Atmadharma magazine - Ank 180
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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आसोः २४८४ः २१ः
अध्यात्म भावना
(पृष्ठ ६थी आगळ)
बाह्यविषयो (एटले के तेमां सुखबुद्धि) त्यां तने प्रेम आव्यो–उत्साह आव्यो,–ए केवी विचित्रता छे!! अरे
जीव! हवे तारा ज्ञानचक्षुने ऊघाड रे ऊघाड!! भाई, तारो स्वभाव दुःखरूप नथी, ते स्वभावना साधनमां जराय कष्ट
नथी, ने बाह्य विषयो तरफनुं वलण एकांत दुःखरूप छे, तेमां स्वप्ने य सुख नथी.–आम विवेकथी विचारीने तारा
अंर्तस्वभाव तरफ वळ, ने बाह्य विषयोमां सुखबुद्धि छोडीने तेमनाथी निवृत्त था...निवृत्त था. नित्य निर्भय स्थान
अने सुखनुं धाम तो तारो आत्मा ज छेः
“सुखधाम अनंत सुसंत चही,
दिनरात रहे तद् ध्यानमंही”
अनंत सुखनुं धाम एवुं जे चैतन्यपद तेने चाहता थका संतो दिनरात तेना ध्यानमां रहे छे, माटे हे जीव! तुं
तारा चैतन्यपदनो विश्वास करीने, जगतमां सुखनुं धाम कोई होय तो मारुं चैतन्यपद ज छे–एम विश्वास करीने,
निर्भयपणे स्वभावमां झूक...स्वभावनी समीप जतां तने पोताने खबर पडशे के अहा! आ तो महाआनंदनुं धाम छे,
आनी साधनामां कष्ट नथी पण ऊलटुं ते तो कष्टना नाशनो उपाय छे...आ ज मारुं निर्भयपद छे.
चैतन्य स्वभावमां अंदर तो प्रवेश करे नहि. अरे! तेनी नजीक पण आवे नहि, ने एम ने
एम दूरथी ज कष्टरूप मानीने तेनाथी दूर भागे, ने विषयो तरफ वेगथी दोडे, एवा मूढ जीवोने
चैतन्यध्यानमां प्रवृत्ति क्यांथी थाय? तेथी आचार्यदेव करुणाथी समजावे छे के अरे जीव! जेमां तुं
सुख मानी रह्यो छे एवा इन्द्रियविषयो समान बीजुं कोई भयस्थान नथी; अने जेमां तुं कष्ट मानी
रह्यो छे एवी परमात्मभावना सिवाय बीजुं कोई अभयस्थान नथी. भवदुःखोथी तारी रक्षा करे
एवुं कोई अभयस्थान आ जगतमां होय तो ते तारुं परमात्मतत्त्व ज छे, माटे तेनी भावनामां
उद्यत था.
जेम, जेने मोटो सर्प डस्यो होय ने झेर चडयुं होय ते, कडवो लीमडो पण प्रेमथी चावे छे, तेम जेने
मिथ्यारुचिरूपी झेर चडयुंछे एवो जीव, दुःखदायी एवा विषयकषायोने सुखदायी समजीने तेमां संलग्न रहे छे; वळी
जेम पीत्तज्वरवाळा रोगीने मीठुं दूध पण कडवुं लागे छे तेम जेने ऊंधी रुचिनो रोग लागु पडयो छे एवा बहिरात्माने
परम सुखदायक एवी आत्मस्वरूपनी भावना पण कष्टरूप लागे छे.–आवी विपरीत बुद्धिने लीधे ज अज्ञानी जीव
आत्मस्वरूपनी भावना भावतो नथी ने विषयकषायनी ज भावना भावे छे. संतो आत्मस्वरूपनी भावना करवानी
वातो करे त्यां पण, ‘अरे! ते आपणथी केम बने? आत्मानी समजण आपणने क्यांथी थाय?’–एम भडकीने
भयभीत थाय छे, पोताथी ते थई ज न शके एम मानीने तेमां निरुत्साही रहे छे, ने बाह्य विषयोमां ज उत्साहरूप
वर्ते छे; तेथी ज अनादिकाळथी जीव दुःखी थई रह्यो छे. खरेखर तो आ जीवने पोताना परमात्मतत्त्वनी भावना
समान बीजो कोई पदार्थ जगतमां सुखदायी नथी, माटे ते भावना ज कर्तव्य छे.
जेम राजदरबारमां पहेलवहेला राजा पासे जनारने अजाणपणाने कारणे कंईक क्षोभ के भय जेवुं लागे छे, पण
वारंवार जेने राजानो परिचय थई गयो तेने राजा पासे जतां कांई क्षोभ के भय थतो नथी, पण ऊलटो हर्ष थाय छे,
तेम चैतन्यराजाना दरबारमां, पहेल वहेलो आत्मानो अनुभव करवा माटे प्रयत्न करनारने, अनादिना अजाणपणाने
कारणे कंईक कष्ट जेवुं लागे, पण रुचिपूर्वक वारंवार चैतन्यराजानो परिचय करतां ते सुगम–सहज अने आनंदरूप
लागे छे...अने वारंवार चैतन्यतत्त्वनी भावना करीने तेमां ज लयलीन रहेवा मांगे छे, माटे चैतन्यतत्त्वनी भावना
खरेखर कष्टरूप नथी पण आनंदरूप छे. आवो विश्वास लावीने हे जीव! तुं वारंवार तेनी भावना कर.
अरे! अत्यार सुधी तारा सुखने भूलीने तें परमां सुख मान्युं...तुं भ्रमणाथी भूल्यो..ने दुःखी थयो. अरे!
स्वपद दुर्गम अने परपद सुगम–एम मानीने तें स्वपदनी अरुचि करी...ने परपदने तारुं करवानी व्यर्थ महेनत करीने
तुं दुःखी थयो. परचीज कदी आत्मानी थई ज नथी ने