नथी, ने बाह्य विषयो तरफनुं वलण एकांत दुःखरूप छे, तेमां स्वप्ने य सुख नथी.–आम विवेकथी विचारीने तारा
अंर्तस्वभाव तरफ वळ, ने बाह्य विषयोमां सुखबुद्धि छोडीने तेमनाथी निवृत्त था...निवृत्त था. नित्य निर्भय स्थान
अने सुखनुं धाम तो तारो आत्मा ज छेः
निर्भयपणे स्वभावमां झूक...स्वभावनी समीप जतां तने पोताने खबर पडशे के अहा! आ तो महाआनंदनुं धाम छे,
आनी साधनामां कष्ट नथी पण ऊलटुं ते तो कष्टना नाशनो उपाय छे...आ ज मारुं निर्भयपद छे.
चैतन्यध्यानमां प्रवृत्ति क्यांथी थाय? तेथी आचार्यदेव करुणाथी समजावे छे के अरे जीव! जेमां तुं
सुख मानी रह्यो छे एवा इन्द्रियविषयो समान बीजुं कोई भयस्थान नथी; अने जेमां तुं कष्ट मानी
रह्यो छे एवी परमात्मभावना सिवाय बीजुं कोई अभयस्थान नथी. भवदुःखोथी तारी रक्षा करे
एवुं कोई अभयस्थान आ जगतमां होय तो ते तारुं परमात्मतत्त्व ज छे, माटे तेनी भावनामां
उद्यत था.
जेम पीत्तज्वरवाळा रोगीने मीठुं दूध पण कडवुं लागे छे तेम जेने ऊंधी रुचिनो रोग लागु पडयो छे एवा बहिरात्माने
परम सुखदायक एवी आत्मस्वरूपनी भावना पण कष्टरूप लागे छे.–आवी विपरीत बुद्धिने लीधे ज अज्ञानी जीव
आत्मस्वरूपनी भावना भावतो नथी ने विषयकषायनी ज भावना भावे छे. संतो आत्मस्वरूपनी भावना करवानी
वातो करे त्यां पण, ‘अरे! ते आपणथी केम बने? आत्मानी समजण आपणने क्यांथी थाय?’–एम भडकीने
भयभीत थाय छे, पोताथी ते थई ज न शके एम मानीने तेमां निरुत्साही रहे छे, ने बाह्य विषयोमां ज उत्साहरूप
वर्ते छे; तेथी ज अनादिकाळथी जीव दुःखी थई रह्यो छे. खरेखर तो आ जीवने पोताना परमात्मतत्त्वनी भावना
समान बीजो कोई पदार्थ जगतमां सुखदायी नथी, माटे ते भावना ज कर्तव्य छे.
तेम चैतन्यराजाना दरबारमां, पहेल वहेलो आत्मानो अनुभव करवा माटे प्रयत्न करनारने, अनादिना अजाणपणाने
कारणे कंईक कष्ट जेवुं लागे, पण रुचिपूर्वक वारंवार चैतन्यराजानो परिचय करतां ते सुगम–सहज अने आनंदरूप
लागे छे...अने वारंवार चैतन्यतत्त्वनी भावना करीने तेमां ज लयलीन रहेवा मांगे छे, माटे चैतन्यतत्त्वनी भावना
खरेखर कष्टरूप नथी पण आनंदरूप छे. आवो विश्वास लावीने हे जीव! तुं वारंवार तेनी भावना कर.
तुं दुःखी थयो. परचीज कदी आत्मानी थई ज नथी ने