Atmadharma magazine - Ank 180
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः २०ः आत्मधर्मः १८०
कार्तिकी पुनम नजीक आवतां, महा सम्यग्द्रष्टि अर्हदत्त शेठ सर्वकुटुंब सहित सप्तर्षि मुनिवरोनी वंदना पूजा
करवा माटे अयोध्याथी मथुरा तरफ चाल्या. मुनिवरोनो अपार महिमा जेणे जाण्यो छे अने राजा समान जेनो वैभव
छे एवा ते शेठ वारंवार पोतानी निंदा करतां अने मुनिवरोनी प्रशंसा करतां, रथ–हाथी–पायदळ तथा घोडेसवार
वगेरेनी मोटी सेना सहित योगीश्वरोना पूजन माटे शीघ्रताथी मथुरा तरफ चाल्या. महाविभूति सहित अने
शुभध्यानमां तत्पर एवा अर्हदत्त शेठ कारतक सुद सातमे मुनिवरोना चरणोमां आवी पहोंच्या. ते धर्मात्माए
विधिपूर्वक ते मुनिवरोने वंदना करीने अति भक्तिपूर्वक पूजन कर्युं, अने मथुरानगरीमां अनेक प्रकारनी महान शोभा
करावी. आखी मथुरानगरी स्वर्गसमान शोभवा लागी.
आ बधो वृत्तांत सांभळीने शत्रुघ्नकुमार पण तरत ज सप्तर्षि मुनिवरोनी समीप आव्यो, अने तेनी माता
सुप्रभा पण मुनिभक्तिथी प्रेराईने तेनी पाछळ आवी. शत्रुघ्ने अतिशय भक्तिपूर्वक मुनिवरो पासेथी धर्मनुं श्रवण
कर्युं. मुनिवरोए कह्युंः “आ संसार असार छे, एक वीतरागता ज सार छे. जिनदेवनो कहेलो वीतरागमार्ग ज
जगतना जीवोने शरणरूप छे. जिनधर्मअनुसार तेनी आराधना करो.”
उपदेश सांभळीने शत्रुघ्नकुमार विनयथी कहेवा लाग्यो–हे देव! आपना पधारवाथी आ मथुरानगरीमांथी
मरकीनो मोटो उपसर्ग दूर थयो, रोग गया, दुर्भिक्ष गयो, बधा विघ्नो टळ्‌या, प्रजानां दुःख टळ्‌या, सुभिक्ष थयो, सर्व
जीवोने साता थई, अनेक प्रकारनी समृद्धि थई अने धर्मनी वृद्धि थई, माटे हे प्रभो! कृपा करीने थोडा दिवस आप
अहीं ज बिराजो.
त्यारे श्री मुनिराजे कह्युंः हे शत्रुघ्न! जिन आज्ञाथी वधारे रहेवुं उचित नथी. हवे अमारा चातुर्मासनो काळ
पूरो थयो...मुनिओ तो अप्रतिबद्ध–विहारी होय छे. आ चोथो काळ धर्मना उद्योतनो छे, तेमां अनेक जीवो मुनिधर्म
धारोे छे, जिनआज्ञा पाळे छे, ने महामुनिओ केवळज्ञान पामीने मोक्ष जाय छे. वीसमा तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ तो मोक्ष
पधार्या, हवे आ भरतक्षेत्रमां नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ अने वर्द्धमान ए चार तीर्थंकरो थशे. हे भव्य!
जिनशासनना प्रतापे मथुरानो उपद्रव हवे दूर थयो छे. हवे मथुराना समस्त लोको धर्ममां तत्पर थजो, दया पाळजो,
साधर्मीओनुं वात्सल्य करजो, जिनशासननी प्रभावना करजो...घरेघरे जिनबिंब स्थापजो, जिनपूजन तथा अभिषेकनी
प्रवृत्ति करजो, तेथी सर्वत्र शांति थशे. जे जिनधर्मनुं आराधन नहि करे तेने ज आपदा आवशे, परंतु जेओ जैनधर्मनुं
आराधन करशे तेनाथी तो आपदा एवी भागशे के जेवी गरूडने देखीने नागणी भागे. माटे जिनधर्मनी आराधनामां
सर्व प्रकारे तत्पर रहेजो..
शत्रुघ्ने कह्युंः– प्रभो! आपनी आज्ञा प्रमाणे सर्व लोको धर्मनी आराधनामां प्रवर्तशे.
त्यारबाद मुनिवरो तो आकाशमार्गे विहार करी गया, अने अनेक निर्वाणभूमिओने वंदीने अयोध्यानगरीमां
पधार्या, त्यां सीताजीने त्यां आहार कर्यो. सीताजीए महा हर्षपूर्वक श्रद्धा वगेरे गुणो सहित प्रासुक भोजनवडे
मुनिओने पारणुं कराव्युं.
आ तरफ शत्रुघ्ने मथुरानगरीमां बहार तेमज अंदर अनेक जिनमंदिर कराव्या, घरेघरे
जिनप्रतिमा पधराव्या, अने धर्मनो मोटो उत्सव कर्यो. आखी नगरी उपद्रवरहित थई गई. वन–
उपवन फळ–फूलवडे शोभी उठयां, सरोवरमां कमळो खील्यांः अने भव्यजीवोनां हृदयकमळ प्रफुल्लित
थईने धर्मनी आराधनामां तत्पर बन्या. आ रीते सप्तर्षि मुनि भगवंतोना प्रतापे मथुरानगरीनो
उपद्रव दूर थई गयो, अने महान धर्मप्रभावना थई.
–कथाना अंतमां शास्त्रकार कहे छे के जे जीवो आ अध्याय वांचशे–सांभळशे ने साधुओनी भक्तिमां अनुरागी
थईने साधुओनो समागम चाहशे ते जीवो मनवांछित फळ पामशे, अर्थात् साधुओनी संगति पामी धर्मनी आराधना
करीने परमपदने पामशे.
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