मथुराना जिनमंदिरमां बिराजी रही छे. मथुरामां “सप्तर्षि–टीला” नामनुं एक स्थान पण छे.)
पोदनापुर जईने पारणुं करी आवे, तो कोई वार विजयपुर जाय, कोई वार उज्जैन जाय तो कोई वार
सौराष्ट्रमां पधारे. (चारणऋद्धिधारी मुनिवरो आकाशमां विचरे छे ने चोमासामां पण विहार करे छे.)–आ
प्रमाणे गमे ते नगरीमां जईने उत्तम श्रावकने त्यां आहार करी आवे ने पाछा मथुरानगरीमां आवीने रहे. ए
धीर–वीर महाशांत मुनिवरो एक वार आहारना समये अयोध्या नगरीमां पधार्या अने अर्हदत्त शेठना घरनी
समीप आव्या.
अयोध्यानी आसपास वनमां, गूफामां, नदीकिनारे, वृक्ष नीचे के वनना चैत्यालयोमां ज्यां ज्यां साधुओ
चातुर्मास रह्या छे ते सर्वेने में वंद्या छे, परंतु आ साधुओने में क्यांय देख्या नथी, माटे आ साधुओ
आचारंगसूत्रनी आज्ञाथी परांगमुख स्वेच्छाविहारी लागे छे तेथी वर्षाकाळमां पण ज्यां त्यां भमता फरे छे.
जो जिनआज्ञाना पालक होय तो वर्षाकाळमां विहार केम करे? माटे ते जिनाज्ञाथी बहार छे.”–आम विचारी
अर्हदत्त शेठे तो मुनिवरोनो आदर न कर्यो ने त्यांथी चाल्या गया; पण तेमनी पुत्रवधुए अतिभक्तिथी
विधिपूर्वक मुनिवरोने प्रासुक आहारदान कर्युं.
आंगळ ऊंचे चाल्या आवता हता, चैत्यालयमां आवतां तेमणे पृथ्वी पर पग मूकयो. आ सप्तर्षि भगवंतोने
जोतां ज द्युतिभट्टारक–आचार्य ऊभा थया अने घणा आदरथी तेओने नमस्कार कर्या, बीजा बधा शिष्योए
पण नमस्कार कर्यां; सप्तर्षि भगवंतोए तेमनी साथे धर्मचर्चा करी, अने पछी चैत्यालयमां जिनवंदना करीने
तेओ तो पाछा मथुरानगरीमां पधार्यां.
महामुनिवरो महातपना धारक छे, अने चातुर्मास मथुरानगरीमां रह्या छे; चारणऋद्धिथी गगन–विहार करीने
तेओ आहार माटे गमे त्यां जाय छे, आजे तेओए आ अयोध्यापुरीमां आहार कर्यो, अने पछी चैत्यालयना
दर्शन करवा आव्या, अमारी साथे धर्मचर्चा पण करी, अने पछी मथुरानगरी तरफ सीधाव्या. ए
महावीतरागी, गगनगामी, परम उदार चेष्टाना धारक मुनिवरो वंदनीय छे.”–इत्यादि प्रकारे आचार्यना
मुखथी चारण मुनिओनो महिमा सांभळीने, श्रावक शिरोमणि अर्हदत्त शेठ खेदखिन्न थईने खूबज पश्चात्ताप
करवा लाग्या–‘अरे! मने धिक्कार छे...में मुनिवरोने न ओळख्या! मारा आंगणे पधारेला मुनिभगवंतोनो में
आदर न कर्यो...हा! मारा जेवो अधम कोण? ए मुनिवरो आहार अर्थे मारा आंगणे पधार्या, पण में नवधा
भक्तिपूर्वक तेमने आहार न आप्यो...मारा जेवो पामर–अज्ञानी बीजो कोण के आंगणे आवेला संतोने पण
हुं न ओळखी शक्यो!! चारण मुनिवरोनी तो ए ज रीत छे के चोमासामां निवास तो एकस्थाने करे, पण
आहार अनेक नगरीमां करी आवे. चारणऋद्धिना प्रभावथी तेमना शरीरवडे जीवोने बाधा थती नथी. अहा!
ज्यांसुधी ए चारणऋद्धिधारक मुनि भगवंतोना हुं दर्शन नहीं करुं त्यां सुधी मारा मननो संताप मटशे
नहीं.”–आम पश्चात्तापथी अति भक्तिभीना चित्ते अर्हदत्त शेठ सात मुनिवरोना दर्शनने झंखवा लाग्या.