Atmadharma magazine - Ank 180
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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आसोः २४८४ः १९ः
(मथुरानगरीमां सप्तर्षि मुनिवरोना आगमननो आ आनंदमय प्रसंग जिनमंदिरना चित्रमां आलेखवामां
आव्यो छे. जेमनां दर्शन करतां ज भक्तोना हृदयमां आनंदनी ऊर्मि जागे एवा सप्तर्षि मुनि भगवंतोनी हारमाळा
मथुराना जिनमंदिरमां बिराजी रही छे. मथुरामां “सप्तर्षि–टीला” नामनुं एक स्थान पण छे.)
– ए सप्तर्षि मुनि भगवंतोने अमारा नमस्कार हो.
आ सप्तर्षि मुनिभगवंतो अनेकविध तप करता थका चोमासुं तो मथुराना वन विषे ज रह्या छे, अने
पारणुं चारणऋद्धिना प्रभावथी बीजी गमे ते नगरीमां करी आवे छे. आकाशमार्गे क्षणमात्रमां कोई वार
पोदनापुर जईने पारणुं करी आवे, तो कोई वार विजयपुर जाय, कोई वार उज्जैन जाय तो कोई वार
सौराष्ट्रमां पधारे. (चारणऋद्धिधारी मुनिवरो आकाशमां विचरे छे ने चोमासामां पण विहार करे छे.)–आ
प्रमाणे गमे ते नगरीमां जईने उत्तम श्रावकने त्यां आहार करी आवे ने पाछा मथुरानगरीमां आवीने रहे. ए
धीर–वीर महाशांत मुनिवरो एक वार आहारना समये अयोध्या नगरीमां पधार्या अने अर्हदत्त शेठना घरनी
समीप आव्या.
एकाएक आ मुनिवरोने जोईने अर्हदत्त शेठे विचार्युंः “अरे! चोमासामां तो मुनिओ विहार करे नहीं,
ने आ मुनिओ अयोध्यामां क्यांथी आव्या? चोमासा पहेलां तो आ मुनिओ अहीं आव्या नथी, केमके आ
अयोध्यानी आसपास वनमां, गूफामां, नदीकिनारे, वृक्ष नीचे के वनना चैत्यालयोमां ज्यां ज्यां साधुओ
चातुर्मास रह्या छे ते सर्वेने में वंद्या छे, परंतु आ साधुओने में क्यांय देख्या नथी, माटे आ साधुओ
आचारंगसूत्रनी आज्ञाथी परांगमुख स्वेच्छाविहारी लागे छे तेथी वर्षाकाळमां पण ज्यां त्यां भमता फरे छे.
जो जिनआज्ञाना पालक होय तो वर्षाकाळमां विहार केम करे? माटे ते जिनाज्ञाथी बहार छे.”–आम विचारी
अर्हदत्त शेठे तो मुनिवरोनो आदर न कर्यो ने त्यांथी चाल्या गया; पण तेमनी पुत्रवधुए अतिभक्तिथी
विधिपूर्वक मुनिवरोने प्रासुक आहारदान कर्युं.
आहार करीने सात मुनिवरो भगवानना चैत्यालयमां आव्या; ते चैत्यालयमां द्युतिभट्टारक आचार्य
बिराजता हता. सात ऋषि मुनिवरो ऋद्धिना प्रभावथी चार अंगुल अलिप्तपणे एटले के जमीनथी चार
आंगळ ऊंचे चाल्या आवता हता, चैत्यालयमां आवतां तेमणे पृथ्वी पर पग मूकयो. आ सप्तर्षि भगवंतोने
जोतां ज द्युतिभट्टारक–आचार्य ऊभा थया अने घणा आदरथी तेओने नमस्कार कर्या, बीजा बधा शिष्योए
पण नमस्कार कर्यां; सप्तर्षि भगवंतोए तेमनी साथे धर्मचर्चा करी, अने पछी चैत्यालयमां जिनवंदना करीने
तेओ तो पाछा मथुरानगरीमां पधार्यां.
सप्तर्षि मुनिवरोना गया पछी थोडीवारे अर्हदत्त शेठ चैत्यालयमां आव्या, त्यारे द्युतिभट्टारक आचार्ये
तेमने कह्युं– “सात महर्षि महायोगीश्वर चारण मुनिवरो अहीं आव्या हता, तमेय तेमनां दर्शन कर्या हशे; ते
महामुनिवरो महातपना धारक छे, अने चातुर्मास मथुरानगरीमां रह्या छे; चारणऋद्धिथी गगन–विहार करीने
तेओ आहार माटे गमे त्यां जाय छे, आजे तेओए आ अयोध्यापुरीमां आहार कर्यो, अने पछी चैत्यालयना
दर्शन करवा आव्या, अमारी साथे धर्मचर्चा पण करी, अने पछी मथुरानगरी तरफ सीधाव्या. ए
महावीतरागी, गगनगामी, परम उदार चेष्टाना धारक मुनिवरो वंदनीय छे.”–इत्यादि प्रकारे आचार्यना
मुखथी चारण मुनिओनो महिमा सांभळीने, श्रावक शिरोमणि अर्हदत्त शेठ खेदखिन्न थईने खूबज पश्चात्ताप
करवा लाग्या–‘अरे! मने धिक्कार छे...में मुनिवरोने न ओळख्या! मारा आंगणे पधारेला मुनिभगवंतोनो में
आदर न कर्यो...हा! मारा जेवो अधम कोण? ए मुनिवरो आहार अर्थे मारा आंगणे पधार्या, पण में नवधा
भक्तिपूर्वक तेमने आहार न आप्यो...मारा जेवो पामर–अज्ञानी बीजो कोण के आंगणे आवेला संतोने पण
हुं न ओळखी शक्यो!! चारण मुनिवरोनी तो ए ज रीत छे के चोमासामां निवास तो एकस्थाने करे, पण
आहार अनेक नगरीमां करी आवे. चारणऋद्धिना प्रभावथी तेमना शरीरवडे जीवोने बाधा थती नथी. अहा!
ज्यांसुधी ए चारणऋद्धिधारक मुनि भगवंतोना हुं दर्शन नहीं करुं त्यां सुधी मारा मननो संताप मटशे
नहीं.”–आम पश्चात्तापथी अति भक्तिभीना चित्ते अर्हदत्त शेठ सात मुनिवरोना दर्शनने झंखवा लाग्या.