आनंद; सम्यक्त्व सन्मुख जीवनी परिणतिनुं
जोर; साधकनी परिणति; इत्यादि संबंधमां
उत्तरः– हा; साधकदशामां धर्मीना ज्ञाननो उपयोग पर तरफ पण होय छे.
प्रश्नः– ज्ञाननो उपयोग पर तरफ होय छतां धर्म थाय?
उत्तरः– हा; पर तरफ उपयोग वखते पण, धर्मीने सम्यग्दर्शन–ज्ञानपूर्वक जेटलो वीतराग भाव थयो छे तेटलो
होय ज नहि. पर तरफ उपयोग वखते पण धर्मीने सम्यग्दर्शन–रूप धर्म तो सळंगपणे वर्ते ज छे तेमज चारित्रनी
परिणतिमां जेटलो वीतरागी–स्थिरभाव प्रगटयो छे तेटलो धर्म पण त्यां वर्ते ज छे.
उत्तरः– तेमां घणो महान तफावत छेः सौथी पहेली वात ए छे के ज्ञानीने सम्यग्दर्शन वखते एक वार तो
उपयोग पर तरफ जाय त्यारे पण भेदज्ञान–प्रमाण तो साथे ने साथे वर्ते ज छे; ज्यारे अज्ञानी तो एकांत परने
ज जाणे छे, परथी भिन्न स्वतत्त्वनी तेने खबर ज नथी, एटले पर तरफ उपयोगथी परने जाणतां ते परनी
साथे ज ज्ञाननी एकता माने छे, एटले तेनुं ज्ञान ज खोटुं छे. ज्ञानीने जगतना गमे ते ज्ञेयने जाणती वखते
प्रमाणज्ञान साथे ज वर्ते छे एटले सम्यग्ज्ञाननुं परिणमन तेने सदा वर्त्या करे छे. आ रीते अज्ञानीने तो
एकलो पर तरफनो उपयोग अने अधर्म ज छे; ज्ञानीने पर तरफना उपयोग वखते साथे अंशे शुद्धतारूप धर्म
पण छे.
उत्तरः– अज्ञानीने तो स्व तरफ उपयोग होतो ज नथी. बधाय ज्ञानीओने एक वार तो (निर्विकल्प
तरफ उपयोग होय छे, चोथा–पांचमा गुणस्थाने क्यारेक क्यारेक उपयोग स्वमां थंभी जतां निर्विकल्प आनंदनी
विशिष्ट अनुभूति थाय छे. मुनिवरोने तो उपयोग वारंवार स्वमां वळ्या करे छे. एकसाथे अंतर्मुहूर्त करतां
वधारे लांबो काळ तेमनो उपयोग परमां रहेतो नथी. सातमा अने त्यांथी आगळना गुणस्थाने तो उपयोगनी
स्वमां ज एकाग्रता होय छे.