आराधनामां तत्पर रहे छे, जरा पण डगी जता नथी. माटे आचार्यदेव कहे छे के निकट भव्यजीवोने आनंद
उपजावनारी भावनाओ हुं कहीश. जेना संसारनो अंत नजीक आवी गयो छे एवा भव्य जीवोने आ वैराग्य
भावनाओथी आनंद थशे, अने तेमनो आत्मा मोक्षमार्गमां उत्साहित थशे.
भावनाओ भावीने वस्तुस्वरूप चिंतवे छे ने वीतरागता वधारे छे. एवा मुनिभगवंतोए कहेली वैराग्यनी आ
भावनाओ दरेक जीवे भाववा जेवी छे. आ भावनाओ आनंदनी जननी छे; केमके वस्तुस्वरूप अनुसार
वैराग्यनी भावनाओनुं चिंतवन करतां चित्तनी स्थिरता थईने भव्यजीवने आनंद थाय छे, तेथी आ
भावनाओ ‘भविक जन–आनंद जननी’ छे. आ बार भावनाओथी भव्यजीवने मोक्षमार्गमां उत्साह ऊपजे
छे. दीक्षा वखते बधाय तीर्थंकरो पण आ बार–भावनाओनुं चिंतन करे छे. अहा! वैराग्य रस झरती आ बार
भावनाओ भावतां कोने आनंद न थाय!–कोने मोक्षमार्गनो उत्साह न ऊपजे.
भावना, (९) निर्जरा भावना, (१०) लोक भावना, (११) बोधिदुर्लभ भावना, अने (१२) धर्म भावना;–
आ प्रमाणे बार वैराग्य भावनाओ छे. अनुक्रमे ते दरेकनुं स्वरूप कहेवाशे. तेमांथी पहेली ‘अनित्य भावना’नुं
केटलुंक विवेचन आत्मधर्म अंक १७३मां आवी गयुं छे; त्यार पछी बीजी ‘अशरण भावना’ नुं आ विवेचन छे.
छे! ईन्द्रपद के चक्रवर्तीपद ए कोई, जीवने शरणभूत नथी, चैतन्यपद ज जीवने शरणभूत छे. स्वर्गना ईन्द्रने
चारे बाजु हजारो देवो सेवामां ऊभा होय, छतां आयुष्य पूरुं थतां ते ईन्द्रने पण मरतां कोई बचावी शकतुं
नथी, तो साधारण जीवोनी शी वात! हा, एक चैतन्यस्वभाव ज जीवोने मरणथी बचाववा समर्थ छे, माटे हे
जीव! आखाय संसारने अशरण जाणीने तारा चैतन्यस्वभाव तरफ वळ, ने तेनुं शरण ले; तेना शरणे एवुं
सिद्धपद थशे के ज्यां कदी मरण नथी, दुःख नथी, भय नथी.
जेवा पण क्षणमात्रमां काळनो कोळियो थई जाय छे, तो जीवने कोण शरण छे? शरण तो ते कहेवाय के जे
पोतानी रक्षा करे,–जन्ममरणादिदुःखोथी आत्माने बचावे. जन्ममरणनां दुःखोथी आत्मानी रक्षा करनार तो
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ज छे, तेथी ते ज शरणरूप छे.
होय त्यां ट्रेईनमां ज अकस्मात थतां बंने मरी जाय छे, आ रीते थोडीवार पहेलां जे लग्नमंडपमां हता ते ज
थोडीवार पछी राख थता देखाय छे; परणती वखते तो स्त्रीने एम थयुं हशे के आ पति मने आखी जिंदगी
शरण आपशे....परंतु ते पोते ज घरे पहोंचतां पहेलां अशरणपणे मरणने शरण थई जाय छे.–आवा प्रसंगो
नजरे जोवा छतां मोहमूढ जीवोने वैराग्य नथी आवतो. बापु! संसारने अशरण जाणीने ते तरफना वेगथी
पाछो वळ, ने तारा आत्मानुं शरण ले. आ असार संसारमां आत्माना श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र सिवाय बीजुं कोई
शरण नथी. हे जीव! बहारमां शरण मानीने अनंतकाळ तुं बहारमां दोडयो.....पण तने क्यांय शरण न
मळ्युं..... माटे हवे तो अंतमुर्ख था......तारुं शरण अंतरमां छे. आ संसार के संसारना संयोगो स्वप्नेय पण
शरणभूत मानवा जेवा नथी, अंतरना एक चिदानंदतत्त्वने