Atmadharma magazine - Ank 181
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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कारतकः २४८पः ९ः
ज शरणभूत समजीने तेनी भावना करवा जेवुं छे. आ संसारना दुःखथी जेने थाक लाग्यो होय ते अंतरमां
चैतन्यना शरणने शोधे.
जेम जंगलमां सिंहना मुखमां पडेला सारंगने कोई रक्षक नथी, तेम मृत्युना मुखमां पडेला जीवने पण
संसारमां कोई रक्षक नथी. जेम सिंहना मुखमां पडेलुं हरणीयुं अशरणपणे मरे छे, तेम शरणभूत एवा
चैतन्यस्वभावनी जेणे दरकार करी नथी, तेनुं लक्ष पण कर्युं नथी, एवा जीवो मृत्युरूपी सिंहना मुखमां पडतां
अशरणपणे मरे छे. ज्यां काळ पूरो थयो त्यां कोण शरण थाय तेम छे? अंदरमां जे शरण छे तेने तो जाण्युं
नथी, ने बहारमां शरण मान्युं छे, परंतु बहारमां कोई एक क्षण पण शरणभूत थाय तेम नथी. अरे, मोटा
मोटा राजाओ पण जंगलमां अशरणपणे मरे छे,–मरतां मरतां पाणी पण नथी मळतुं; अने कदाचित मरण
टाणे आसपास सगांवहालां ऊभा होय ने बधी जातनी अनुकूळता होय तोपण मरनार जीवने ते कोईनुं शरण
नथी. जीवने शरणरूप तो शुद्ध रत्नत्रय ज छे. अहीं मरण वखतनो तो दाखलो आप्यो छे, परंतु मरणनी जेम
जीवतां पण जीवने कोई बीजुं शरणभूत नथी.–आम जाणीने, वीजळीना झबकारा जेवा आ मनुष्यजीवनमां
भेदज्ञान करीने शुद्धआत्मस्वभावनुं शरण प्राप्त करी ल्यो, एवो संतोनो उपदेश छे.
मरता मनुष्यने बचाववा माटे तीव्र मोहने लीधे केटलाक जीवो कुदेवादिनी मानता पण करे छे; परंतु अरे
भाई! मरता मनुष्यने जो कोई मृत्युथी बचावी शकतुं होत तो तो जगतमां कोई मरत ज नहीं. कोई देव, मंत्र–
मंत्र के क्षेत्रपाल वगेरे जो मृत्यु पामता मनुष्यनी रक्षा करी शकता होत तो मनुष्यो अक्षय थई जात! परंतु ए
कोई जीवने मृत्युथी बचावी शके तेम नथी. मृत्युथी बचवानो उपाय तो एक ज छे के देहरहित एवा सिद्धपदनी
आराधना करवी. आ उपाय सिवाय मृत्युथी बचवा माटे दोरा–धागा कराववा के कुदेवादिनी मानता करवी ते तो
तीव्र मूढता छे, सर्वज्ञनो खरो भक्त कुदेवादिने माने नहि, तेमज दोराधागा करे नहि. भाई! देहनी चिंता छोडने
चैतन्यनुं चिंतन कर, ए ज तने शरण छे. देह तो ताराथी जुदो ज छे, ते तो तेना काळे चाल्यो जशे, तेमां कांई
तारुं, शरण नथी. रत्नत्रय धर्म ज अमरपदने देनार अमरफळ छे, एना सिवाय जीवने मरणथी बचावनार
बीजुं कोई अमरफळ जगतमां नथी.
भले अति बळवान होय, भयंकर होय ने अनेक प्रकारना उपायोथी रक्षा करवामां आवतो होय, छतां
पण आ संसारमां मरण वगरनुं कोई देखातुं नथी. मजबूत किल्लो, अंगरक्षको के शस्त्र वगेरे द्वारा मरणथी रक्षा
थई शकती नथी, पण जो ज्ञानस्वभावनुं रक्षण ल्ये तो ते ज्ञानस्वभाव स्वतः रक्षित ज छे, तेनी रक्षा माटे
बीजा कोईनी जरूर पडती नथी, तेमज तेमां मृत्युनो प्रवेश नथी. आ सिवाय बीजा कुदेवादि पोते ज ज्यां
अशरण छे त्यां तेओ बीजानी शुं रक्षा करशे? भाई, तारा आत्मानी खरी रक्षा करवा माटे उपयोगने अंतरमां
वाळीने, शुद्धोपयोगरूपी एवो गढ रच, के देहमां लाखो वींछी करडे तोय चैतन्यमां वेदना प्रवेशी न शके,
चैतन्यनुं शरण छूटे नहि, ने आत्मानुं भावमरण थाय नहि. ‘अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण ए व्यवहारथी
छे, अने निश्चयथी तो सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप धर्म ज शरण छे.
सर्वज्ञनो धर्म सुशर्ण जाणी,
आराध्य! आराध्य! प्रभाव आणी;
अनाथ एकांत सनाथ थाशे,
एना विना कोई न बांह्य स्हाशे.
(श्रीमद् राजचंद्रः अशरण भावना)
अंतमुर्ख थईने जेणे रत्नत्रय धर्म प्रगट कर्यो तेणे ज अरिहंत–सिद्ध वगेरेनुं खरुं शरण लीधुं.
जुओ, आ अशरण भावना! अशरणभावना पण चैतन्यस्वभावना शरणे ज भवाय छे.
चैतन्यस्वभावनी द्रष्टि वगर एकेय भावना साची होती नथी. चैतन्यस्वभावनी द्रष्टिपूर्वक भाववामां आवती आ
वैराग्य भावनाओ भविक जीवोना हृदयमां आनंद उपजावनारी छे. जेणे आ वैराग्यभावनारूपी बख्तर पहेर्युं तेने
जगतनी कोई प्रतिकूळता नडे नहि; वैराग्य भावनावडे उपयोगने अंतरमां वाळीने पोताना आत्मानी रक्षानो
एवो गढ कर्यो–के जेमां अणुबोंब वगेरे तो शुं, पण कोई परभावो पण प्रवेशी शके नहि. आ सिवाय बहारमां जे
शरणने शोधे छे ते जीव अज्ञानी छे.