चैतन्यना शरणने शोधे.
चैतन्यस्वभावनी जेणे दरकार करी नथी, तेनुं लक्ष पण कर्युं नथी, एवा जीवो मृत्युरूपी सिंहना मुखमां पडतां
अशरणपणे मरे छे. ज्यां काळ पूरो थयो त्यां कोण शरण थाय तेम छे? अंदरमां जे शरण छे तेने तो जाण्युं
मोटा राजाओ पण जंगलमां अशरणपणे मरे छे,–मरतां मरतां पाणी पण नथी मळतुं; अने कदाचित मरण
टाणे आसपास सगांवहालां ऊभा होय ने बधी जातनी अनुकूळता होय तोपण मरनार जीवने ते कोईनुं शरण
जीवतां पण जीवने कोई बीजुं शरणभूत नथी.–आम जाणीने, वीजळीना झबकारा जेवा आ मनुष्यजीवनमां
भेदज्ञान करीने शुद्धआत्मस्वभावनुं शरण प्राप्त करी ल्यो, एवो संतोनो उपदेश छे.
मंत्र के क्षेत्रपाल वगेरे जो मृत्यु पामता मनुष्यनी रक्षा करी शकता होत तो मनुष्यो अक्षय थई जात! परंतु ए
आराधना करवी. आ उपाय सिवाय मृत्युथी बचवा माटे दोरा–धागा कराववा के कुदेवादिनी मानता करवी ते तो
तीव्र मूढता छे, सर्वज्ञनो खरो भक्त कुदेवादिने माने नहि, तेमज दोराधागा करे नहि. भाई! देहनी चिंता छोडने
तारुं, शरण नथी. रत्नत्रय धर्म ज अमरपदने देनार अमरफळ छे, एना सिवाय जीवने मरणथी बचावनार
बीजुं कोई अमरफळ जगतमां नथी.
थई शकती नथी, पण जो ज्ञानस्वभावनुं रक्षण ल्ये तो ते ज्ञानस्वभाव स्वतः रक्षित ज छे, तेनी रक्षा माटे
अशरण छे त्यां तेओ बीजानी शुं रक्षा करशे? भाई, तारा आत्मानी खरी रक्षा करवा माटे उपयोगने अंतरमां
वाळीने, शुद्धोपयोगरूपी एवो गढ रच, के देहमां लाखो वींछी करडे तोय चैतन्यमां वेदना प्रवेशी न शके,
छे, अने निश्चयथी तो सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप धर्म ज शरण छे.
अनाथ एकांत सनाथ थाशे,
एना विना कोई न बांह्य स्हाशे.
जुओ, आ अशरण भावना! अशरणभावना पण चैतन्यस्वभावना शरणे ज भवाय छे.
वैराग्य भावनाओ भविक जीवोना हृदयमां आनंद उपजावनारी छे. जेणे आ वैराग्यभावनारूपी बख्तर पहेर्युं तेने
जगतनी कोई प्रतिकूळता नडे नहि; वैराग्य भावनावडे उपयोगने अंतरमां वाळीने पोताना आत्मानी रक्षानो
शरणने शोधे छे ते जीव अज्ञानी छे.