भूत–व्यंतर–पिशाचने, जोगणी, चंडिका वगेरेने के मणिभद्र वगेरे यक्षने शरण माने छे. कोई कुदेव–देवलां
लाभ करी देशे–एम मानवुं ते मिथ्यात्वनी तीव्रता छे. अरे, बिचारा ए पोते ज ज्यां अशरणपणे
संसारपरिभ्रमणथी दुःखी थई रह्या छे त्यां तने ए शुं शरण आपशे? हजी तो देहादिनी सगवडता खातर
कुदेवादिने मानवा पण जे जीव तैयार थई जाय छे ते जीव देहादिथी भेदज्ञान करीने चैतन्यनुं भान तो क्यांथी करशे? देहादिनी सगवडता रहो के न रहो,–परंतु ज्ञानी कदी कुदेवादिने मानता नथी. अंतरमां
चैतन्यनुं शरण प्राप्त करी लीधुं छे एटले पोतानी रक्षा माटे बहारमां शरण ज्ञानी शोधता नथी. ते जाणे छे
के आ देहादि कांई मारी वस्तु नथी, ए तो संयोगी वस्तु छे, ने संयोगनो तो वियोग थाय ज. जेनो
वियोग थाय तेनुं शरण केवुं? मारा स्वभावभूत तो ज्ञान–दर्शन छे, तेनो मने कदी वियोग थतो नथी. जे
पोतानो स्वभाव होय तेनी साथे एकता होय, पण संयोग साथे एकता होय नहि; अने जेनी साथे एकता
न होय तेनुं शरण पण न होय. माटे जगतनो कोई पण संयोग जीवने शरणभूत नथी, एकमात्र पोतानो
स्वभाव ज जीवने शरणभूत छे. जेम समुद्रनी वच्चे तरता वहाणमां बेठेलुं पंखी, मधदरियामां तेने बीजुं
कोई शरण नहि होवाथी, ऊडी ऊडीने फरी पाछुं वहाणना ज शरणे आवे छे, तेम जेणे आवो निर्णय कर्यो
छे एवा धर्मात्मा जीवनी परिणति, संसारमां बीजे क्यांय शरण नहि होवाथी फरीफरीने अंतरना
चैतन्यशरण तरफ ज वळ्या करे छे.–आ अशरणभावनानुं तात्पर्य छे.
भ्रमणा छे. आ देहना वियोगरूप मरण अवश्य थवानुं ज छे–आवो निर्णय करतां, देह अने देहसंबंधी समस्त
विषयो प्रत्ये उदासीनवृत्ति थईने चैतन्यनी सन्मुखता थाय छे. देहादि बाह्य विषयो प्रत्ये जेने उदासीनवृत्ति पण
नथी–तेनाथी भिन्नतानी भावना पण नथी ने तेमां ज तीव्रपणे आसक्त छे ते जीव विषयातीत अतीन्द्रिय
चैतन्यस्वभावनो अनुभव क्यांथी करशे?
बचाववा तेमने कोई शरण नथी. त्यां मिथ्याद्रष्टि देवो तो खेदपूर्वक अशरणपणे मरे छे; अने सम्यग्द्रष्टि देवो तो
मरणसमये त्यांना शाश्वत जिनप्रतिमाना चरणसमीपे जईने जिनेन्द्रदेवना शरणपूर्वक देह छोडे छे; अंदरमां
चैतन्यशरण भास्युं छे ने बहारमां जिनेश्वरनाथनुं शरण ल्ये छे के ‘हे नाथ! आ संसारमां जीवोने आपना ज
चरणनुं शरण छे. आ असार संसारमां रखडता जीवोने आपना पवित्र शासननुं ज शरण छे.....हे प्रभो! हवे
अमे मनुष्य थईने, आपना शासनना शरणे आत्मानी पूर्ण–सिद्धिने साधशुं. जेणे चैतन्य शरणने जाण्युं छे
एवा धर्मात्मा तो आवा भावपूर्वक देह छोडे छे. पण जीवनमां जेणे चैतन्यनुं शरण नथी जाण्युं ने देहादि
विषयोना शरणे जीवन वीताव्युं छे एवा जीवो तो अशरणपणे मरे छे; जीवतां पण ते अशरण छे ने मरतां पण
अशरण छे; भले मोटो राजा होय ने सेंकडो माणसो खमा–खमा करता सेवामां ऊभा होय तोपण ते अशरण
छे; अने कोई धर्मात्मा जीव कदाच वन–जंगलमां एकलो होय तो पण ते अशरण नथी, अंतरमां चैतन्य ना
शरणे ते निर्भय छे. रामचंद्रजीए ज्यारे सीताजीने भयानक सिंहवाघथी भरेला वनमां मोकली दीधा, अने
सीताजी मुर्छित थई गया तथा रुदन करता हता त्यारे पण खरेखर ते अशरण न हता, ‘सम्यग्दर्शनादि धर्मरूपे
परिणमेलो अमारो आत्मा ज अमने शरण छे’ –एवुं ते वखतेय अंतरमां निःशंक भान हतुं. सम्यग्दर्शन–
ज्ञान–चारित्ररूप परिणमेलो पोतानो आत्मा ज शरणरूप छे–एम जाणीने परम श्रद्धाथी तेनुं सेवन करो एम
आयार्यदेवनो उपदेश छेः
अन्यत् किमपि न शरणं संसारे संसरताम्।। ३०।।