स्वभाव, जेमां भय नथी, दुःख नथी, जन्म नथी, मरण नथी, ते ज शरणरूप छे, माटे हे जीव! तेनुं ज्ञान कर,
तेनी श्रद्धा कर, ने तेमां लीनता कर.
करतो नथी. देहनी स्थिति पूरी थतां झाड कांई तने शरणरूप नहि थाय. पण जो चैतन्यनी श्रद्धा करीने तेनुं
शरण ले तो तने दीपडानो के कोईनो भय रहे नहीं. सुकुमार मुनि, सुकोशल मुनि वगेरे अनेक मुनिवरो
चैतन्यनुं शरण लईने तेनी आराधनामां एवा लीन थया के बहारमां सिंह–वाघ आवीने शरीरने खाई गया
तोपण तेओ पोतानी आराधनाथी डग्या नहि, के भयभीत पण थया नहि. ज्यां चैतन्यनुं शरणुं लीधुं त्यां भय
केवो!
परम श्रद्धापूर्वक रत्नत्रयनी आराधना कर.
बीजुं कोई तेने शरण नथी के बीजुं कोई तेने हणनार नथी. क्रोधादि भाववडे पोताना शुद्धचैतन्यप्राणनी हिंसा
थाय छे. माटे ते भावो आशरण छे. अने उत्तम क्षमादि वीतरागभावथी आत्माना चैतन्यप्राणनी रक्षा थाय छे,
माटे ते वीतराग भावरूपे परिणमेलो आत्मा शरणरूप छे. तेना वडे ज जन्म–मरणना दुःखोथी रक्षा थईने
आत्मा अविनाशी सिद्धपदने पामे छे.
अशरण नथी; ज्यारे पाप–पुण्य बंनेथी रहित एवी निष्कर्म अवस्था प्रवर्ते छे त्यारे पोताना ज्ञानस्वरूपमां
परिणमतुं ज्ञान ज ते मुनिओने शरण छे; तेमां लीन थया थका तेओ परम अमृतने स्वयं अनुभवे छे. आ रीते
ज्ञान स्वरूपमां प्रवर्ततुं ज्ञान पोते ज महाशरण छे, तेना शरणे मुनिवरो परम आनंदने अनुभवे छे. शुभराग
वखते व्यवहारथी पंचपरमेष्ठीनुं शरण छे, अने वस्तुस्वरूपथी जोतां, सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रधर्मरूपे
परिणमेलो, पंच परमेष्ठी जेवो पोतानो आत्मा ज शरण छे, एनाथी भिन्न देहादि के रागादि कोई आ जीवने
शरणरूप नथी. आ प्रमाणे अशरणभावना भावीने चैतन्यस्वभावनुं शरण करवुं, परम श्रद्धाथी तेनी
आराधना करवी.
व्यवहार पंच परमगुरु, अवर सकल संताप.
एवा चिदानंद स्वभावनुं शरण लईने जेओ भवसमुद्रथी पार थया
एवा श्री बाहुबलीनाथ आदि वीतरागी संतोने नमस्कार हो.