Atmadharma magazine - Ank 181
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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कारतकः २४८पः ११ः
परम श्रद्धाथी सेव; संसारमां संसरता जीवोने एना सिवाय बीजुं कांई शरण नथी. आत्मानो चिदानंद
स्वभाव, जेमां भय नथी, दुःख नथी, जन्म नथी, मरण नथी, ते ज शरणरूप छे, माटे हे जीव! तेनुं ज्ञान कर,
तेनी श्रद्धा कर, ने तेमां लीनता कर.
जंगलमां पाछळ दीपडो आवे, त्यां भयथी जीव जाणे के झाड उपर चडीने रक्षा करुं. देहनी रक्षानी दरकार
करे छे पण अंदर आत्मानी पाछळ मिथ्यात्वादि दीपडा पाडया छे तेनाथी आत्मानी रक्षा केम करवी–तेनी दरकार
करतो नथी. देहनी स्थिति पूरी थतां झाड कांई तने शरणरूप नहि थाय. पण जो चैतन्यनी श्रद्धा करीने तेनुं
शरण ले तो तने दीपडानो के कोईनो भय रहे नहीं. सुकुमार मुनि, सुकोशल मुनि वगेरे अनेक मुनिवरो
चैतन्यनुं शरण लईने तेनी आराधनामां एवा लीन थया के बहारमां सिंह–वाघ आवीने शरीरने खाई गया
तोपण तेओ पोतानी आराधनाथी डग्या नहि, के भयभीत पण थया नहि. ज्यां चैतन्यनुं शरणुं लीधुं त्यां भय
केवो!
अहो! सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते ज मारुं स्वरूप छे ने ते ज मारुं शरण छे. मारुं शरण माराथी जुदुं
न होय. शुद्ध रत्नत्रयरूपे परिणमेलो मारो आत्मा स्वयं पोते पोतानुं शरण छे.’– आम जाणीने हे जीव! तुं
परम श्रद्धापूर्वक रत्नत्रयनी आराधना कर.
आ अशरणअनुप्रेक्षानी छेल्ली गाथामां आचार्यदेव कहे छे के–उत्तम क्षमादि वीतरागभावरूपे परिणमेलो
आत्मा पोते ज पोतानुं शरण छे; अने मिथ्यात्वादि तीव्र कषायोमां प्रवर्ततो आत्मा पोते ज पोताने हणे छे.
बीजुं कोई तेने शरण नथी के बीजुं कोई तेने हणनार नथी. क्रोधादि भाववडे पोताना शुद्धचैतन्यप्राणनी हिंसा
थाय छे. माटे ते भावो आशरण छे. अने उत्तम क्षमादि वीतरागभावथी आत्माना चैतन्यप्राणनी रक्षा थाय छे,
माटे ते वीतराग भावरूपे परिणमेलो आत्मा शरणरूप छे. तेना वडे ज जन्म–मरणना दुःखोथी रक्षा थईने
आत्मा अविनाशी सिद्धपदने पामे छे.
प्रश्नः– पापभावो तो जीवने अशरणरूप छे ए बराबर, परंतु पुण्यभावने पण अशरण कहीने शा माटे
छोडावो छो? जो पाप अने पुण्य बंने भावोने छोडी देशुं तो पछी शरण कोनुं रहेशे?
उत्तरः– समयसारमां एवो ज प्रश्न पूछयो छे, त्यारे तेना उत्तरमां आचार्य भगवान कहे छे के; शुभ
तेमज अशुभ ए बंनेनो निषेध करवामां आवतां, अने ए रीते निष्कर्म अवस्था प्रवर्ततां मुनिओ कांई
अशरण नथी; ज्यारे पाप–पुण्य बंनेथी रहित एवी निष्कर्म अवस्था प्रवर्ते छे त्यारे पोताना ज्ञानस्वरूपमां
परिणमतुं ज्ञान ज ते मुनिओने शरण छे; तेमां लीन थया थका तेओ परम अमृतने स्वयं अनुभवे छे. आ रीते
ज्ञान स्वरूपमां प्रवर्ततुं ज्ञान पोते ज महाशरण छे, तेना शरणे मुनिवरो परम आनंदने अनुभवे छे. शुभराग
वखते व्यवहारथी पंचपरमेष्ठीनुं शरण छे, अने वस्तुस्वरूपथी जोतां, सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रधर्मरूपे
परिणमेलो, पंच परमेष्ठी जेवो पोतानो आत्मा ज शरण छे, एनाथी भिन्न देहादि के रागादि कोई आ जीवने
शरणरूप नथी. आ प्रमाणे अशरणभावना भावीने चैतन्यस्वभावनुं शरण करवुं, परम श्रद्धाथी तेनी
आराधना करवी.
वस्तुस्वभाव विचारथी शरण आप को आप;
व्यवहार पंच परमगुरु, अवर सकल संताप.
(अशरण भावना समाप्त)
अशरणभूत एवा संसार तरफनुं वलण छोडीने, परम शरणभूत
एवा चिदानंद स्वभावनुं शरण लईने जेओ भवसमुद्रथी पार थया
एवा श्री बाहुबलीनाथ आदि वीतरागी संतोने नमस्कार हो.