Atmadharma magazine - Ank 181
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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ः ६ः आत्मधर्मः १८१
जुओ, आ मोक्ष माटेनां मूळ मंत्रो! आमां तो साक्षात् वीतरागतानो ज उपदेश छे.
अहा! मोक्षेच्छुए क्यांय पण अने किंचित् एटले के जराक पण राग न करवो. राग ते
भवसागरने तरवानुं साधन नथी, ते तो उदयभाव छे ने तेनुं फळ संसार छे; माटे मोक्षेच्छुए ते
जराय कर्तव्य नथी. मोक्षेच्छुए साक्षात् वीतरागता ज कर्तव्य छे, केमके तेना वडे ज भवसागरने
तराय छे.
*
अहाहा! मोक्षेच्छुनी आ वात तो जुओ! कुंदकुंदाचार्यदेव ज्ञानना अगाध दरिया हता,
तेमना आत्मानी घणी पवित्रता हती......चैतन्यना आनंदमां तेओ झूलता हता.....चैतन्यना
आनंदमां झूलतां झूलतां वच्चे जराक रागनो विकल्प ऊठतां आ शास्त्र लखाय छे. तेमा कहे छे के
साक्षात् वीतरागतारूप जे मोक्षमार्ग, ते मार्गनी प्रभावना अर्थे अमे कहीए छीए....अमे
मोक्षार्थी छीए.... रागने अमे नथी ईच्छता. अहा, केटला भद्रिक! केटला निर्मान! केटला
नीखालस!! बापु! रागनी होंस करशो नहि. अमारो उत्साह वीतरागी मोक्षमार्गमां ज छे,
रागमां अमारो उत्साह नथी, ने हे मोक्षार्थी श्रोताओ! तमे पण वीतरागी मोक्षमार्ग तरफ ज
तमारो उत्साह वाळजो, वच्चे राग आवे तेमां उत्साह करशो नहि.
*
शास्त्रोनुं हृदय खोलीने संतो कहे छे के परम वीतरागता ज कर्तव्य छे. ते ज साक्षात्
मोक्षमार्ग छे. अहा! जे जीव पात्र थईने आवो वीतरागमार्ग समजे तेने ते समजावनारा संतो
प्रत्ये केटलो विनय होय! केटलुं बहुमान होय! रागमां वर्ततो होवा छतां जेने वीतरागी
पंचपरमेष्ठि भगवंतो प्रत्ये विनय अने बहुमाननो भाव नथी उल्लसतो तेने तो
वीतरागमार्गनी श्रद्धा पण थती नथी. वीतरागमार्गनी भावनावाळाने, साक्षात् वीतरागता न
थाय त्यां सुधी, वीतरागीपुरुषो प्रत्ये (पंचपरमेष्ठी वगेरे प्रत्ये) परमभक्ति–विनय–उत्साह–
बहुमाननो भाव जरूर आवे छे; छतांय तेमां जे राग छे ते कांई तात्पर्य नथी, ते मोक्षमार्ग
नथी; मोक्षमार्ग तो वीतरागभाव ज छे ए नियम छे, अने ए ज मोक्षेच्छुए कर्तव्य छे; एना
वडे ज ते भवसागरने तरीने परमानंदरूप मोक्षपदने पामे छे.
वीतरागी मोक्षमार्गनो जय हो.
वीतरागी मोक्षमार्गना उपासक अने उपदेशक संतोनो जय हो.
धु्रवमांथी धर्म ले
धर्मनी वात सांभळतां जीवोने एम थाय छे के अमारे क्यांथी धर्म लेवो? शरीरनी
क्रियामांथी धर्म आवतो हशे? पुण्यमांथी आवतो हशे? के कोई स्थानकमांथी आवतो हशे?
आचार्यदेव समजावे छे के “धु्रवमांथी धर्म ले” धर्मनी खाण तारो धु्रव आत्मा ज छे, ते
ज धर्मनुं स्थानक छे, तेमांथी ज तारो धर्म आवे छे. ए सिवाय शरीरनी क्रियामांथी, रागमांथी,
बहारना स्थानोमांथी के बीजे क्यांयथी तारो धर्म आवे तेम नथी.
धर्म तो जेमां होय तेमांथी आवे के बीजेथी? भाई! तारो धर्म तारा आत्मस्वभावमां ज
छे. ताराथी बहारमां क्यांय तारो धर्म नथी; माटे बहारथी धर्म नहि आवे, तारा
आत्मस्वभावमां ज अंतमुर्ख थईने, तेमांथी सम्यग्दर्शनादि धर्म ले. जेम रत्नोनी खाणमांथी
रत्नो नीकळे छे तेम चैतन्यरत्ननी धु्रवखाण आत्मा छे, तेमां ऊंडो उतरीने ते धु्रवखाणमांथी
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप रत्नो काढ.