Atmadharma magazine - Ank 182
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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आत्मधर्म
वर्ष सोळमुं संपादक मागशर
अंक २जो रामजी माणेकचंद दोशी २४८प
चैतन्यसरोवरमांथी
वहेती शांतिनी सरिता
परम शांत रसनी सरिता तो चैतन्य
सरोवरमां एकाग्र थवाथी ज वहे छे; बाह्य
भावोमांथी शांतिनी सरिता वहेती नथी. ज्यां
पाणी भर्युं होय त्यांथी प्रवाह आवे. शांति अने
हितरूप जळ तो अंतरमां चैतन्य सरोवरमां भर्युं
छे, ते चैतन्य सरोवरमांथी ज (– एटले के तेमां
एकाग्र थवाथी ज) हित अने शांतिनी सरितानो
प्रवाह नीकळे छे; बीजी कोई रीते आत्मामां शांत
रसनी सरिता वहेती नथी.
आथी आचार्यदेव कहे छे के–
हे जीवो! जो तमारा आत्मामां तमारे
शांतरसनी सरिता वहेवडाववी होय तो
आत्मस्वरूपमां एकाग्र थईने आत्मनिष्ठ रहेवुं ते
ज परम आवश्यक कार्य छे, एनाथी जे बाह्य छे ते
बधुं त्याज्य छे.
नियमसार गा. १प० ना प्रवचनमांथी
माह वद तेरस