Atmadharma magazine - Ank 184
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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महाः २४८पः १पः
१४अंतरना यथार्थ प्रयत्नवडे समजवा मांगे तेने सहज–सर्वज्ञस्वभावी आत्मा अंतर्मुहूर्तमां ज
समजाई जाय तेवो छे.
१पसहज–सर्वज्ञस्वभावी आत्मा रागना उपाय वडे अनंतकाळे पण समजाय तेवो नथी.
१६प्रभो! आवो मनुष्यअवतार तने अनंतकाळे मळ्‌यो तेमां आत्मानी दरकार करीने सहज–
सर्वज्ञस्वभावी तारा आत्माने समज.
१७ सहज सर्वज्ञस्वभावी आत्माने समजतां ज अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन थाय छे.
१८
सहज–सर्वज्ञस्वभावी आत्माने समजतां ज आत्मामां मोक्षना कोलकरार आवी जाय छे.
१९सहज–सर्वज्ञस्वभावी आत्माने समजतां ज जीव सर्वज्ञनो लघुनंदन थाय छे.
२०सहज–सर्वज्ञस्वभावी आत्मा पोते ज पोतानो परमेश्वर छे.
२१सहज–सर्वज्ञस्वभावी आत्मा पोते ज पोतानो आराध्यदेव छे.
२२भाई, तारे दोष टाळीने गुण प्रगट करवा छे ने?–‘हा’
२३तो तुं समज के दोष तारो स्वभाव नथी, ने गुण तारो स्वभाव छे.
२४जे टळी जाय ते स्वभाव होय नहि; अने जे स्वभाव होय ते बहारथी आवे नहि.
२पमिथ्यात्व–रागादि दोषो टळी जाय छे माटे ते तारो स्वभाव नथी.
२६ज्ञानादि गुणो तारो स्वभाव छे ते बहारथी आवतो नथी.
२७‘निजभावने छोडे नहीं, परभाव कंई पण नव ग्रहे; जाणे जुए जे सर्व ते हुं–एम ज्ञानी
चिंतवे.’
२८प्रभो! तारा स्वभावनी प्रतीत तने न आवे–तो तें शुं कर्युं?
२९तारा सर्वज्ञस्वभावनी प्रतीत वगर सर्वज्ञदेवने पण तुं क्यांथी ओळखीश?
३०निजस्वभावना अस्तित्वमांथी ज धर्मनी शरूआत थाय छे.
३१जेने निजस्वभावना अस्तित्वनी श्रद्धा नथी तेने धर्मनी शरूआत थती नथी.
३२आत्मा अनेकान्त स्वभावी छे तेनी साथे धर्मीने मैत्री थई छे.
३३अनेकान्त साथे मैत्रीथी जेमनुं चित्त पवित्र थयुं छे एवा धर्मात्मा शुद्ध जैन छे.
३४छे.
३परत्नत्रयआराधक संतने पण जे शुभोपयोग छे ते धर्म नथी.
३६धर्मनुं पहेलुं पगलुं सम्यग्दर्शन छे.
३७ज्यां सम्यग्दर्शन थयुं त्यां स्वभावमां कोई शंका रहेती नथी.
३८भवरहित एवा सर्वज्ञदेवने जेणे ओळख्या छे तेने अंनतभवनी शंका होती नथी.
३९ ‘मारे अनंत भव हशे’ एवी जेने शंका छे तेणे भवरहित सर्वज्ञ भगवानने ओळख्या नथी.
४०सर्वज्ञनो निर्णय करतां पोताना मोक्षनो पण निर्णय थई जाय छे.
४१सर्वज्ञनो खरो निर्णय अने पोताना ज्ञानस्वभाव नो निर्णय–ए बंने एक साथे थाय छे.
४२साधुपद वगर सम्यग्दर्शन होई शके छे, परंतु सम्यग्दर्शन वगर साधुपद होतुं नथी.
४३सम्यग्दर्शन वगर साधुपद नहीं, साधुपद वगर सिद्धपद नहीं.
४४जे सहज–सर्वज्ञस्वभावी आत्माने रागथी भिन्न जाणे छे तेने ज अनेकान्त साथे मित्रता छे.
४पजे सहज सर्वज्ञस्वभावी आत्माने रागथी लाभ माने छे तेने अनेकान्त साथे दुश्मनावट छे,
मित्रता नथी.
४६अनेकान्त साथे जेने मैत्री छे ते ज अर्हंतदेवनो खरो भक्त छे, ते ज साचो जैन छे.
४७जेने अनेकान्त साथे दुश्मनावट छे ते अर्हंतदेवनो भक्त नथी, जैन नथी.