Atmadharma magazine - Ank 186
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARMA Regd. No. B. 4787
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वनवास वखते
वनवास वखते सीताजीने बहारमां रामनो वियोग
थयो पण अंतरमां आतमरामनो वियोग नथी थयो.
वनवास वखते य निःशंकपणे तेने भान छे के अमने
अमारा चिदानंद स्वभावनो ज आधार छे....आ वन के
सिंह–वाघनी गर्जनाओ ते कोई संयोग अमने अमारा
स्वभावना आधारथी छोडाववा समर्थ नथी. उपर आभ ने
नीचे धरती, भले कोई सगांसंबंधी न हो, छतां अमे
अशरण नथी, अंतरमां अमारो चिदानंद स्वभाव ज
अमारुं मोटुं शरण छे. राजमहेल अमने शरणभूत हता ने
आ जंगलमां अमे अशरण थई गया–एम नथी; जगत
आखुं अमारा माटे अशरण छे, अमारो आत्मा ज अमारुं
शरण छे.
सीताजीनो संदेश
वनवास वखते सीताजी कहेवडावे छे;
“हे सेनापति! मारा रामने कहेजे के लोकापवादना
भयथी मने तो छोडी, पण जिनधर्मने न छोडशो; अज्ञानी
लोको जिनधर्मनी पण निंदा करे तो ते निंदाना भयथी
सम्यग्दर्शन ने कदी न छोडशो. चौविध संघनी सेवा
करजो....मुनिओ अने आर्जिकाओने भक्तिपूर्वक
आहारदान देजो.....” जुओ आवा वनवास प्रसंगे पण
सीताजीने अंतरना स्वभावमांथी धर्मनो उमळको आव्यो
छे..... धर्मना आधारभूत स्वभाव अंतरमां देख्यो छे ते
स्वभावना आश्रये उमळको आव्यो छे....अहो! भले
जंगलमां एकली पडी पण मारा धर्मनो आधार अंदर पडय
ो छे ते आधारने हुं नथी छोडती......अने मारा रामने
कहेजो के ते पण धर्मने न छोडे....लोकोपवादनी खातर मने
तो छोडी पण धर्मने न छोडे.
आत्मानी शोभा
आत्मा पोताना स्वभावमां एकता करीने
सम्यग्दर्शन ज्ञान–चारित्ररूपे परिणमे तेमां आत्मानी
शोभा छे; परंतु साथे संबंधथी अशुद्धतारूपे तेमां तेनी
शोभा नथी. माटे हे जीव! परथी अत्यंत भीन्नपणुं जाणीने,
पर साथेनो संबंध तोडीने तारा ज्ञायकस्वभावमां एकत्व
कर. ज्ञायकस्वभावमां एकता करीने जे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्र प्रगटया तेना वडे ज तारा आत्मानी शोभा छे.
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श्री दिगंबर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्टवती मुद्रक अने
प्रकाशकः हरिलाल देवचंद शेठ आनंद प्री. प्रेस–भावनगर