Atmadharma magazine - Ank 186
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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चैत्रः २४८पः १९ः
जे जीव आत्मस्वरूप समजवानो, अत्यंत जिज्ञासु छे, तेने श्रीगुरु शुद्धात्मा समजावे छे, परंतु ते
शिष्यने शुद्धनयनो अनुभव नहि होवाथी तेने समजाववा भेदरूप व्यवहारथी उपदेश आपे छे. उपदेशक
गुरुनो आशय भेदमां अटकाववानो नथी तेमज जिज्ञासु शिष्य पण ते भेदना विकल्पमां अटकतो नथी,
पण भेदथी खसीने अभेद स्वभावने पकडवानो प्रयत्न करे छे. आवा जिज्ञासुने शुद्ध आत्मानी शांतिनुं
अपूर्व वेदन थाय छे.
आ चैतन्यस्वरूपनुं भान करीने तेनी शांतिनुं वेदन आबालगोपाळ सौने थई शके छे, सिंह वगेरे
तिर्यंचोने के नारकीओने पण चैतन्यनी अतीन्द्रिय शांतिना अंशनुं वेदन थई शके छे. दरेक आत्मा
शांतिस्वभावथी भरेलो परमात्मा छे. भाई, तने तारुं परमात्मस्वरूप संतो देखाडे छे. तारी शांति तारामां
भरेली छे, ते क्यांय बहारथी नथी आवती, तेमज बहिर्मुख विकल्पोमांथी पण शांति नथी आवती; रागथी पार
थईने चैतन्यस्वरूपमां अंतर्मुखताथी ज पोतानी अतीन्द्रिय शांति वेदनमां आवे छे.
शिष्यने समजाववा माटे आचार्यदेव गुण–गुणी भेदथी उपदेश आपे छे के ‘दर्शन–ज्ञान–चारित्रने
जे हंमेशा प्राप्त होय ते आत्मा छे.” तारो आत्मा सदाय दर्शन–ज्ञान–चारित्रस्वरूपमां परिणमी रह्यो छे.
देहने प्राप्त होय ते आत्मा–एम न कह्युं, रागने प्राप्त होय ते आत्मा–एम पण न कह्युं, केमके ते
आत्मानुं खरूं स्वरूप नथी; आत्मानुं खरूं स्वरूप तो दर्शन–ज्ञान–चारित्र छे, ते स्वरूप साथे आत्मा
त्रणे काळे एकमेक छे. आवी आत्मानीवात सांभळतां वेंत ज ते समजवा माटे टगटग जोई रहे छे
अर्थात् ज्ञानने अंतरमां वाळवानो प्रयत्न करे छे. अहो! आ कांईक मारा अपूर्व हितनी वात मने
संभळावे छे–एम तेनो महिमा लावे छे, न समजायुं तेथी कंटाळो नथी लावतो पण तेनो महिमा लावीने
समजवानो गरजु थईने अंदर प्रयत्न करे छे. संतो जे भाव कहेवा मांगे छे तेने धीरजथी
तीव्रजिज्ञासाथी अनुसरवा मांगे छे. अहा! आ चैतन्यस्वरूप आत्मानी वातमां कोई अपूर्व शांतिनी
झांखी थाय छे, संतो मने मारी अपूर्वशांतिनो उपाय बताय छे–एम अतिशय बहुमान लावीने ज्ञान–
नजरने (मति, श्रुतज्ञानने) अंतरमां वाळीने शुद्ध नयवडे टगटगपणे चैतन्यस्वरूपने नीहाळे छे. आ
दर्शन मोहनो क्षय करीने अपूर्व चैतन्यशांति प्राप्त करवानो उपाय छे. शांतिनाथ भगवान पण आ ज
रीते आत्मानी पूर्ण शांतिने पाम्या, ने शांति माटे तेमणे आ ज मार्ग जगतने उपदेश्यो...माटे जेओ
आत्मशांतिने चाहता होय एवा मुमुक्षुओ शुद्ध नयवडे आ मार्गने अनुसरो.
आचार्यदेव कहे छे के अमे मुमुक्षु छीए अने शुद्ध नयवडे चैतन्यस्वरूपने अमे अनुसरीए छीए.
बीजा पण जे जीवो मुमुक्षु होय तेमने माटे अमारो उपदेश छे के हे मुमुक्षुओ! तमे पण शुद्ध नयवडे तमारा
आत्माने अनुसरो....ते शुद्ध नयना अवलंबन वडे ज कर्मक्षय थाय छे. कोई व्यवहारनी रुचिवाळा जीवोने
शुद्ध नयना आश्रयनी आ वात न रुचे तो मने मुमुक्षु जाणीने क्षमा करजो...केमके हुं तो मुमुक्षु (मोक्षनो ज
अभिलाषी) छुं तेथी जेनाथी मोक्ष थाय ते ज वात मारा उपदेशमां आवशे. अमने रागनी रुचि नथी तो
रागना अवलंबननो उपदेश अमारी वाणीमां केम आवे? पद्मनंदीमां ब्रह्मचर्यनो खूब उपदेश आपीने
छेवटे विषयना लोलुपी जीवो उपर कटाक्ष करतां कहे छे के हे विषयांध प्राणीओ, विषयोना तीव्र प्रेमने
लीधे तमने जो आ ब्रह्मचर्यनो उपदेश न रुचे तो मने मुनि जाणीने क्षमा करजो...केम के हुं मुनि छुं,
विषयोथी पार चैतन्यना आनंदने साधनार मुनिनी वाणीमां तो ब्रह्मचर्यनो ने वीतरागतानो ज उपदेश
होय; विषय–कषायना सेवननो उपदेश वीतरागनी वाणीमां केम होय! अरे मूढ प्राणीओ! बाह्य
विषयोमां सुखनी कल्पना ते तो मोटी भ्रमणा छे; बाह्य विषयो स्वप्नमां पण शांति आपवा समर्थ नथी.
बाह्य विषयोना अवलंबनवडे के रागादि बाह्य वृत्तिओवडे कदी चैतन्यशांतिनुं वेदन थतुं नथी.
चैतन्यशांतिनुं वेदन तो शुद्धनयद्वारा अंतर्मुख थवाथी ज थाय छे. आ ज धर्म छे, आ ज शांतिनो राह छे,
ने आ ज शांतिनाथ भगवाननी खरी यात्रा छे.