अशाडः २४८पः १पः
‘न आत्मध्यानात् परो सौख्यं’
कारंजा तथा परतवाडा गामोमां पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी
फागण वद १० तथा ११
ज्ञानानंदस्वरूप आत्मतत्त्व छे, तेनामां अनंतज्ञान ने अनंत आनंदनी ताकात भरी छे. जेम
लींडीपीपरमां तीखास तेम दरेक आत्मामां परिपूर्ण ज्ञान–आनंद स्वभाव जो न होय तो बहारथी आवे नहीं.
परंतु आत्मानी वर्तमान अवस्थामां राग–द्वेष–मोहरूप अपराध छे तेथी तेने पोताना अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन
नथी. आत्मानी अवस्थामां जो अपराध न होय तो तेने पोताना अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन होवुं जोईए. परंतु
आनंदनुं वेदन नथी एटले दुःख छे–अपराध छे.–आ एक वात नक्की थई.
हवे बीजी वातः आत्मामां जे राग–द्वेष–मोहरूप अपराध छे ते तेनुं कायमी स्वरूप नथी पण क्षणिक
विकृति छे; तेने टाळीने आत्मा निर्दोष स्वरूपे रही शके छे. विकारस्वरूपे ज आखो आत्मा थई गयो होय तो
विकार कदी टळी शके नहीं. परंतु चिदानंद स्वभावना आश्रये विकार टळीने निर्दोषता थई शके छे. अनंता जीवो
विकार टाळीने पूर्णानंद प्रगट करीने परमात्मा थया.
जेओ परमात्मा थया तेओ क्यांथी थया? पोताना आत्मामां ताकात हती तेमांथी ज परमात्मदशा प्रगट
करी छे. पहेलां, विकार अने अल्पज्ञता होवा छतां, मारो स्वभाव विकार वगरनो अने परिपूर्ण ज्ञानआनंदथी
भरेलो छे, एवो विश्वास स्वसन्मुख थईने आववो जोईए. चैतन्यस्वभावनो विश्वास करीने पछी तेमां
एकाग्रता करतां विकारनो नाश थईने आत्मा पोते परमात्मा थई जाय छे.
रागादि विकार छे, ते विकारमां चैतन्यनो विकास नथी. पोताना ज्ञानानंदस्वरूपना आश्रये ज चैतन्यनो
विकास थईने ते पूर्ण परमात्मा थाय छे. आत्माना वास्तविकस्वरूपने ओळखीने तेनुं ध्यान ते ज परमात्मा
थवानो उपाय छे.
आत्माना हितने माटे ४०० वर्ष पहेलां ज्ञानभूषणस्वामी तत्त्वज्ञानतरंगिणीमां कहे छे के शुद्ध चिद्रूप
आत्माने जाणीने तेनुं ध्यान ते ज हितनो–शांतिनो अने मुक्तिनो उपाय छे.
न आत्मध्यानात् परो सौंख्यं
न आत्मध्यानात् परं तपः
न आत्मध्यानात् परो मोक्ष–
पथ क्वापि कदाचन।
केवो छे आत्मा? पूर्ण ज्ञान ने आनंदनी शक्तिथी परिपूर्ण छे, तेनो स्वभाव शांत अने अविकारी छे.
आवा आत्मतत्त्वने ओळखीने तेनुं ध्यान करवुं ते उत्तम सुख छे; ते ज सुख छे, एना सिवाय जगतमां बीजे
क्यांय सुख नथी. अने चैतन्यतत्त्वमां उपयोगने एकाग्र करीने तेनुं ध्यान करवुं ते ज उत्तम तप छे. आवा
आत्मध्यान वडे ज मोक्ष सधाय छे.
चैतन्यतत्त्वने चूकीने, परनुं ध्यान एटले के परमां सुख छे एवी मिथ्याबुद्धि ते दुःखनुं मूळ छे. चैतन्यना
सुखने चूकीने, बाह्यमां सुखबुद्धिथी जीव अनादिथी दुःखी थई रह्यो छे. ते दुःख मटवानो उपाय शुं? संतो तेनो
उपाय बतावतां कहे छे के अरे जीव! तारो आत्मा ज सुखस्वभावथी भरेलो परिपूर्ण छे, जगतना बाह्य
विषयोमां क्यांय तारुं सुख नथी, ने बाह्य पदार्थो तरफनी लागणीमां पण सुख नथी.
लक्ष्मी, रूपाळुं शरीर, मिष्टान्न, सोनुं–चांदी के हीरा–माणेक वगेरे जड वस्तुओमां सुखनो अंश पण कदी
नथी,