Atmadharma magazine - Ank 189
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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ः १४ः आत्मधर्मः १८९
गई छे. अने जराक–द्वेषनी वृत्ति थई जाय ते पोताना अस्थिरभावने लीधे छे, संयोगने लीधे नथी– एम जाणे
छे, ने ज्ञानभावनामां स्थिर थईने ते राग–द्वेषनी वृत्तिने तोडी नांखे छे.
अज्ञानीने ज्ञान–स्वभावनी भावना नथी, संयोगनी ज भावना छे, संयोगथी पोतानी हीनता–
अधिकता माने छे, अनुकूळ संयोगथी पोतानुं मान माने छे ने प्रतिकूळ संयोगथी पोतानुं अपमान माने छे,
एटले तेने संयोगो प्रत्ये रागद्वेष थया ज करे छे; तेने अविद्याना संस्कारने लीधे सर्वत्र पोतानुं मान–अपमान
ज भास्या करे छे. पण हुं तो संयोगथी भिन्न ज्ञायक स्वभाव छुं, मारा ज्ञानने जगतमां कोई प्रतिकूळ के
अनुकूळ नथी, बधाय मारा ज्ञेय ज छे,–आवी स्वभावभावनावडे ज मान–अपमाननी वृत्ति टळीने
समाधिशांति थाय छे.
भरत अने बाहुबली बंने चरमशरीरी समकिती हता; भरतचक्रवर्तीए बाहुबलीने नमवानुं कह्युं, त्यां
बाहुबलीने एम थयुं के अमारा पिताजीए (ऋषभदेव भगवाने) अमने बंनेने राज आप्युं छे, भरत राजा छे
ने हुं पण राजा छुं–तो हुं भरतने केम नमुं? एम जराक माननी वृत्ति आवी; पछी बंने वच्चे लडाई थतां भरत
हारी गया त्यां तेने जराक अपमाननी वृत्ति आवी. आवी मान–अपमाननी वृत्ति थवा छतां, ते बंने धर्मात्माने
ते वखतेय ज्ञानस्वभावनी ज भावना छे, ज्ञानस्वभावनी भावना छूटीने रागद्वेषनी वृत्ति थई नथी,
ज्ञानभावनानी ज अधिकता छे; मान–अपमाननी वृत्ति थई माटे ते वखते ते अज्ञानी हता–एम नथी; अंदर
ज्ञानभावनानुं जोर पडयुं छे, तेथी मान–अपमानरूपे तेमनुं ज्ञान परिणमतुं ज नथी, ए वातनी अज्ञानीने
ओळखाण नथी. ज्ञानभावना छोडीने अज्ञानथी जे जीव परसंयोगमां मान–अपमाननी बुद्धि करे छे ते अज्ञानी
छे. ज्ञानस्वभावनी जेने भावना नथी एवा अज्ञानीने ज बाह्यद्रष्टिथी एकांत मान–अपमानरूप परिणमन थाय
छे. ज्ञानस्वभावनी भावनामां ज्ञानीने ज्ञाननुं परिणमन थाय छे, मान–अपमानरूप परिणमन थतुं नथी; जराक
राग–द्वेषनी वृत्ति थाय त्यां ते वृत्तिने पण ज्ञानथी भिन्नरूप ज जाणे छे ने ज्ञानस्वभावनी ज भावनावडे ज्ञाननी
अधिकतारूपे जे परिणमे छे. ज्ञानीनी आवी भावनाने अज्ञानी ओळखतो नथी, एटले ज्ञानीने जराक राग–
द्वेषनी वृत्ति देखे त्यां तेने एवो भ्रम थाय छे के ज्ञानी आ राग–द्वेष ज करे छे. पण ज्ञानी तो ते वखते राग–
द्वेषथी अधिक ज्ञानभावनारूपे ज परिणमे छे तेने अज्ञानी देखी शकतो नथी, केमके तेने पोताने ज्ञानभावना
जागी नथी. अहीं एम कहे छे के जेने ज्ञानभावना नथी ते ज संयोगमां मान–अपमाननी कल्पना करीने राग–
द्वेषरूपे परिणमे छे. ज्ञानी तो ज्ञानभावनारूपे ज परिणमे छे, तेने कोई संयोगमां मान–अपमाननी कल्पनाथी
राग–द्वेषरूप परिणमन थतुं ज नथी, माटे हे जीव! तुं तारा चित्तने चैतन्य– भावनामां स्थिर कर, जेथी राग–
द्वेषथी ते क्षुब्ध न थाय; अने ज्यां चित्तनो क्षोभ नथी त्यां मान–अपमाननी कल्पना थती नथी एटले रागद्वेषरूप
परिणमन थतुं नथी पण समाधि ज थाय छे. गमे तेवा प्रतिकूळ प्रसंगमां के अनुकूळ प्रसंगमां पण ते
चैतन्यभावनावाळो जीव पोताना सम्यग्दर्शनादिथी च्यूत थतो नथी, ज्ञानभावनाथी च्यूत थतो नथी. आ रीते
ज्ञानस्वभावनी भावना ज वीतरागी समाधिनो उपाय छे, माटे ते ज भावना करवा जेवी छे, एम पूज्यपाद–
प्रभुनो उपदेश छे.
(वीर सं. २४८२, जेठ वद १०)
अनुकूळ संयोगमां मने राग थशे ने प्रतिकूळ संयोगमां मने द्वेष थशे–एम अज्ञानीनो अभिप्राय छे,
एटले तेने ज्ञाननो अभिप्राय नथी पण रागद्वेषनो ज अभिप्राय छे. अनुकूळ संयोगथी मारुं मान ने प्रतिकूळ
संयोगथी मारुं अपमान एम जेणे मान्युं ते अज्ञानीने एकली बाह्यद्रष्टिथी मान–अपमान मानीने राग–द्वेष ज
थया करे छे. पण ज्ञानी तो जाणे छे के माननो प्रसंग हो के अपमाननो प्रसंग हो, हुं तो ज्ञान ज छुंः अनुकूळ
प्रसंग वखते पण हुं तो ‘ज्ञान’ ज छुं, ने प्रतिकूळ प्रसंग वखते पण हुं तो ‘ज्ञान’ ज छुं, एम सर्व प्रसंगे हुं
तो ज्ञानस्वभाव ज छुं–एवी ज्ञान–भावना ज्ञानीने वर्ते छे, ने ते ज्ञानभावनाना जोरे तेने रागद्वेषनो नाश ज
थतो जाय छे, एटले तेने समाधि–शांति थाय छे.ाा ३८ाा
हवे मान–अपमान संबंधी विकल्पो दूर करवानो उपाय बतावशे.