अशाडः २४८पः १३ः
(वी. सं २४८२, जेठ वद ९)
(समाधिशतक गा. ३८)
रागद्वेषथी विक्षिप्त थतुं मन, ज्ञानना उग्र संस्कारथी स्वतत्त्वमां स्थिर थाय छे एम कह्युं, हवे कहे छे के
ज्ञानस्वभावनी भावनाथी जेणे पोताना चित्तने स्वरूपमां एकाग्र करीने अविक्षिप्त कर्युं छे तेने मान–
अपमानथी विक्षेप थतो नथी; अने जेनुं चित्त चैतन्यभावनामां एकाग्र थयुं नथी तेने ज मान–अपमानथी
चित्तमां विक्षेप–क्षुब्धता थाय छे–
अपमानादयस्तस्य विक्षेपो यस्य चेतसः।
नापमानादयस्तस्य न क्षेपो यस्य चेतसः।। ३८।।
चैतन्यनी भावनामां जेनुं चित्त ठर्युं नथी, तेथी जेना चित्तमां राग–द्वेषनो विक्षेप वर्ते छे तेने ज मान–
अपमान लागे छे; परंतु चैतन्यनी भावनामां जेनुं चित्त ठर्युं छे एटले जेना चित्तमां रागद्वेषनो विक्षेप वर्ततो
नथी तेने मान–अपमान कांई नथी, अर्थात् मान–अपमानमां तेने समभाव वर्ते छे.
‘आणे मने बहुमान आप्युं, आणे मारुं अपमान कर्युं, आणे मारो तिरस्कार कर्यों, आणे मारी निंदा
करी’–आवी मान–अपमाननी कल्पना जीवने त्यां सुधी ज सतावे छे के ज्यांसुधी तेनुं चित्त राग–द्वेषादि
विभावोथी कुत्सित वर्ते छे; रागद्वेषादि विभावोमां वर्ततो जीव ज मान–अपमाननी कल्पनाथी दुःखी थाय छे.
परंतु जेनुं चित्त राग–द्वेष–मोहरूपी विभावोथी दूर थईने पोताना ज्ञानस्वरूपमां ठर्युं छे तेने ए प्रकारनी मान–
अपमाननी कल्पनाओ सतावती नथी. चैतन्यना आनंदमां लीन थतां, कोण मारी स्तुति करे छे के कोण मारी
निंदा करे छे–एनो विकल्प ज ऊठतो नथी, सर्वत्र समभाव ज वर्ते छे.–
“शत्रु–मित्र प्रत्ये वर्ते समदर्शीता,
मान–अमाने वर्ते ते ज स्वभाव जो;
जीवित के मरणे नहि न्युनाधिकता,
भाव–मोक्षे पण शुद्ध वर्ते समभाव जो”
जुओ, आ संतोनी समाधिदशा!–पण आवी वीतरागी समाधि कई रीते थाय? के ज्ञानस्वभावनुं भान
करीने तेमां एकाग्रताना द्रढ संस्कारथी आवी वीतरागी समाधि थाय छे.
मारा ज्ञानस्वभाव सिवाय बीजुं कांई मारुं नथी, ईंद्रियोनो मने आधार नथी, रागनुं मने शरण नथी,–
आवी भावनावाळा ज्ञानीने परद्रव्यथी पोतानुं मान–अपमान लागतुं नथी. मारी महत्ता तो मारा ज्ञान–
स्वभावथी ज छे, मारा स्वभावनी महत्ताने तोडवा जगतमां कोई समर्थ नथी.
–आम पोताना स्वभावनी महत्ता जेने नथी भासती ने परसंयोगवडे जेणे पोतानी महत्ता मानी छे
एवा अज्ञानीने मान–अपमान लाग्या वगर रहेतुं नथी. कोई अपमान–करे निंदा करे–द्वेष करे त्यां जाणे मारो
स्वभाव ज हणाई गयो–एम अज्ञानीने अपमान लागे छे, अने बहारमां ज्यां अनुकूळता ने मान मळे त्यां
जाणे के मारो स्वभाव वधी गयो–एम मूढ जीव माने छे. आवी मान–अपमाननी वृत्ति अज्ञानीने थाय छे.
ज्ञानीने आवा प्रकारनी मान–अपमाननी वृत्ति थती नथी, केमके परसंयोगवडे पोताना आत्मानी महत्ता के
हीनता ते मानता नथी. अस्थिरताने लीधे जराक मान–अपमाननी वृत्ति थाय त्यां ज्ञानीने स्वभावनी भावना
छूटीने ते वृत्ति थई नथी. मुनिवरोने तो ध्यानमां मान–अपमाननी वृत्ति ज नथी ऊठती, एटलुं वीतरागी
चारित्र थई गयुं छे. समकिती गृहस्थने एटलुं वीतरागी चारित्र थयुं नथी पण परसंयोगनी असर विनाना
पोताना ज्ञानानंद स्वरूपनी द्रष्टि थई छे, अज्ञानना संस्कार छूटी गया छे, ज्ञानस्वभावनी ज महत्ता करी छे,
एटले ते ज्ञानस्वभावनी महत्ता पासे बीजा पदार्थोनी जराय महत्ता भासती नथी, तेथी बीजा पदार्थोवडे तेने
पोतानुं मान भासतुं नथी; तेमज निंदा वगेरे प्रतिकूळ प्रसंगथी तेने पोतानुं अपमान भासतुं नथी. कोई निंदा
करे के कोई प्रसंशा करे, ते बंने वखते हुं तो तेनाथी जुदो ज्ञानस्वरूप छुं, निंदाना के प्रशंसाना शब्दो मारामां
आवता नथी, निंदा करनार तेना पोताना द्वेष भावने करे छे, प्रशंसा करनार तेना पोताना रागभावने करे छे,
पण मारा ज्ञानस्वभावमां ते कांई करता नथी,–आवा भानमां धर्मीने मान–अपमाननी बुद्धि छूटी