क्षायिकभावरूप छे तेमां केवळज्ञानी भगवंतो ज आवे. अहीं क्षायिकभावरूपे परिणमेला जीवने ज
अभेदविवक्षाथी ‘क्षायिकभाव’ कही दीधो. ते क्षायिकजीवे केवळज्ञानवडे त्रण भुवनने जाण्या छे,
वळी पोताना स्वभावथी उत्पन्न थता परम वीतरागसुखामृतनो ते समुद्र छे. अहा! केवळी
भगवंतोने पर्यायमां वीतरागी सुखनो दरियो ऊछळ्यो छे. ‘कारण’ नुं सेवन करतां करतां
यथाख्यानरूप कार्यशुद्धचारित्र तेमने प्रगटी गयुं छे. वळी ते भगवंतो (अर्थात् कार्यद्रष्टिवाळा
क्षायिकजीवो) सादिअनंत अमूर्त अतीन्द्रियस्वभाववाळा शुद्ध सद्भुत व्यवहार नयात्मक छे. जुओ,
अहीं सर्वज्ञने नयस्वरूप कह्या, तो पछी ‘नय जड छे’ ए वात क्यां रही? अहीं केवळीनेनयस्वरूप
कह्या, तेथी एम न समजवुं के तेमने पण ज्ञानमां ‘नय’ होय छे. ‘नय’ तो श्रुतज्ञानमां होय छे.
केवळज्ञानमां नय होता नथी; परंतु साधकजीव ज्यारे केवळी भगवानना स्वरूपने ख्यालमां ल्ये छे
त्यारे ते साधकना ज्ञानमां शुद्ध सद्भुत व्यवहारनय होय छे, तेथी ते नयना विषयभूत केवळीने
शुद्धसद्भुत व्यवहारनयात्मक कह्या छे. आ रीते नय अने तेना विषयने अभेद कहेवानी
अध्यात्मशास्त्रोनी शैली छे. कारणद्रष्टि अनादिअनंत छे, कार्यद्रष्टि सादिअनंत छे.
मुनिराज कहे छे के अहो! आवा क्षायिक भावस्वरूप परमात्मा प्रत्यक्ष वंदनायोग्य छे. सिद्ध
भगवंतो पण जाणे पोताना आत्मामां प्रत्यक्ष देखाता होय–एवा उत्कृष्ट भावे टीकाकार कहे छे के
क्षायिकजीव तीर्थंकर परमात्मा त्रण जगतना भव्य जीवोने प्रत्यक्ष वंदनीय छे.–आवा तीर्थंकर
परमदेवने केवळज्ञाननी माफक आ कार्यद्रष्टि पण युगपत लोकालोकमां व्यापनारी छे, परम अवगाढ
सम्यक्त्व पण त्यां साथे ज वर्ते छे.
प्रश्नः– आ उपयोगनी उपयोगिता शी छे?
मोक्षार्थीओने माटे मोक्षनो प्रसिद्ध मार्ग छे, अर्थात् ते शुद्ध चैतन्यतत्त्वनी भावनावडेज मोक्ष थाय
छे. आ सिवाय बीजा कोई मार्ग मोक्ष थतो नथी. शुद्धचैतन्यतत्त्वनी भावनाथी दर्शन–ज्ञान–
चारित्रस्वरूपे परिणमतो पोतानो आत्मा ज मोक्षनो मार्ग छे, आत्माथी बहार बीजो कोई
मोक्षमार्ग नथी.
अचिंत्य महिमानी ओळखाण करवानी अने तेनी सन्मुख थईने कार्य प्रगट करवानी आ वात छे.