Atmadharma magazine - Ank 191
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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भाद्रपदः २४८पः १९ः
आश्रय करीने पण आत्मानो एकरूप सहज स्वभाव ओळखी शकातो नथी. परम पारिणामिकभाव सदा
पावनरूप छे, साधक जीव अंतर्मुख थईने तेने ज अभिनंदे छे.
क्षायिक सम्यग्दर्शन वगेरेना विचारथी कांई सम्यग्दर्शन के केवळज्ञानादि थतुं नथी; पण परिणति ज्यारे
अंतर्मुख थईने परमस्वभावमां लीन थाय छे त्यारे ज सम्यग्दर्शन वगेरे निर्मळ पर्यायो प्रगटे छे. व्यवहारना
आश्रये थतो शुभराग ते तो औदयिक भाव छे; ज्यां क्षायिक भावना आश्रये पण सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र
थता नथी त्यां औदयिक भावना आश्रये तो ते क्यांथी थाय? एटले, व्यवहारना आश्रयथी अथवा शुभ राग
करतां करतां तेनाथी परमार्थ पमाशे–एवी जेनी मान्यता छे तेने सम्यग्दर्शन वगेरेना कारणरूप (आश्रयरूप)
आत्माना परमस्वभावनी खबर नथी. छद्मस्थने केवळज्ञान तो होतुं नथी एटले तेनो आश्रय क्यां रह्यो?–
परमपारिणामिक स्वभाव बधा जीवोने त्रिकाळ छे, तेनो महिमा अने आश्रय करवा जेवो छे.
व्यवहाररत्नत्रयनी भावनाथी निश्चयरत्नत्रय थाय–एम नथी; पण जेनामां त्रणे काळ शुद्धरत्नत्रयनी
ताकात विद्यमान छे एवा परमस्वभावनी भावनाथी ज शुद्धरत्नत्रय प्रगटे छे, माटे तेनी ज भावना करवा
जेवी छे.
हे भाई! पहेलां तुं लक्षमां तो ले के कोनी भावना करवा जेवी छे! जेवी भावना तेवुं भवन–जेन
छे.
आ जे परमस्वभाव वर्णवाय छे तेवो दरेक आत्मानो स्वभाव छे, अने ए स्वभाव ज सम्यग्दर्शन
वगेरेनुं कारण छे. अंतर्मुख थईने तारा स्वभावने ज तुं तारा सम्यग्दर्शनादिनुं कारण बनाव–एम अहीं
संतोनो उपदेश छे.
समस्त दुष्ट पापोरूप वीर दुश्मनोनी जे सेना छे ते, चिदानंद स्वभावनुं अवलंबन करतां ज नष्ट थई
जाय छे.–जुओ, आ चैतन्यनी वीरता! तेनुं अवलंबन करतां ज मिथ्यात्वादि मोटा दुश्मनो क्षणमात्रमां नष्ट–
भ्रष्ट थई जाय छे; विकल्पो अने विकारनुं टोळुं पण, जेम सिंहने देखीने बकरां भागे तेम चैतन्यना अवलंबने
दूर भागी जाय छे. आवो वीर आत्मा पोतानुं स्वरूप भूलीने, (जेम सिंह पोताने बकरुं मानी बेठो तेम)
पोताने कर्मथी दबायेलो पामर मानी रह्यो छे, पण एक वार जो पोताना स्वभावनी ताकात संभाळीने
सम्यक्श्रद्धारूपी सिंहगर्जना करे तो कर्मरूपी बकरां तो क्यांय भागी जाय!
जुओ, आ आत्मानां निधान! जेम पिता पोताना वहाला पुत्रने निधाननो वारसो आपे तेम
परमपिता तीर्थंकरो अने आचार्यभगवंतो चैतन्यनिधाननो आ वारसो जिज्ञासु भव्य जीवोने आपी रह्या छे.
चैतन्य निधानमां रहेली कारणद्रष्टि ते स्वरूपश्रद्धान मात्र छे एम बताव्युं. हवे तेमांथी व्यक्त थतुं पूरुं कार्य केवुं
होय, अर्थात् कार्यद्रष्टि केवी होय, ते ओळखावे छे. केवळज्ञाननी साथे वर्ततो केवळदर्शनउपयोग तेमज परम
अवगाढ श्रद्धा ए बंने ‘कार्यद्रष्टि’ मां समाई जाय छे– एम अहीं समजवुं.
केवी छे ते कार्यद्रष्टि? कारणद्रष्टि तो पारिणामिकभावरूप छे अने चार घातीकर्मोना नाशथी प्रगटती आ
कार्यद्रष्टि ते क्षायिकभावरूप छे; अने ते कार्यद्रष्टि क्षायिकजीवने होय छे. क्षायिकजीव कोण? के जेने केवळज्ञानादि
क्षायिकभावो प्रगटया छे ते क्षायिकजीव