Atmadharma magazine - Ank 191
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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ः १८ः आत्मधर्मः १९१
क्षायिकभावना अभाव वखते पण जेनो सद्भाव छे एटले क्षायिकभावनी पण जेने अपेक्षा नथी,
एवा निरपेक्ष त्रिकाळ एकरूप परमस्वभावना आश्रये ज धर्मरूप कार्य थाय छे; उपशम–क्षयोपशम के
क्षायिक ते भावो धर्म छे पण ते भावो पंचम–परमभावने आश्रये ज प्रगटे छे; माटे एवा परमस्वभावे
आत्माने भाववो एवो उपदेश छे. आमां ‘भावना’ ते मोक्षमार्ग छे, सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र तेमां
आवी जाय छे.
आत्मानो परम पारिणामिकस्वभाव त्रिकाळ छे; ते स्वभावनुं अवलंबन करीने तेनी भावनाथी ज
मोक्षनुं साधन प्रगटे छे. द्रव्यस्वभावमां तो सम्यग्दर्शनथी मांडीने सिद्धपद सुधीनुं कारण थवानी ताकात
त्रिकाळी छे, ते कारणशक्तिने कांई आवरण नथी; पण ज्यारे ते कारणशक्तिनुं अवलंबन लईने
सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान–चारित्ररूप कार्य करवामां आवे त्यारे ते कारणशक्तिनुं कारणपणुं सार्थक थाय छे.–आम
कारण–कार्यनी संधि छे.
जुओ भाई, आ विषय एकला अध्यात्मनो छे; अंतरनी द्रष्टिनो प्रयोजनभूत आ विषय छे. पहेलां तो
आत्मानी पात्रतापूर्वक ज्ञानी पासेथी उत्साहपूर्वक आवी वात सांभळे, पछी अंतरमां आत्मा साथे मेळवीने–ते
रूपे परिणमाववानो प्रयत्न करे. आत्मानी खरेखरी लगनीपूर्वक स्वभाव तरफना घणा प्रयत्नथी अंतरमां
परिणमन थतां अपूर्व आनंदनुं वेदन थाय छे ने आत्मामां मोक्षना निःशंक कोलकरार आवी जाय छे. पछी ते
जीव पराश्रये धर्म शोधतो नथी; मारा धर्मनुं, मारा सुखनुं, मारा मोक्षनुं साधन मारी पासे वर्तमानमां हाजरा–
हजूर छे, एम ते धर्मात्मा जाणे छे. पोतानो स्वभाव पोतानी पासे ज छे, ते कांई पोताथी दूर नथी; अंतरमां
नजर करीने पोताना स्वभावनो आश्रय करे तो धर्म थाय, ए सिवाय बहारना आश्रये अनंतकाळे पण धर्म
थतो नथी. आ रीते स्वभावने लक्षमां लईने तेनो महिमा करतां करतां तेमां एकाग्र थई जवा उपर ज्ञानीओ
जोर मूके छे.
भाई, अनंतदुःखमय एवा संसारना जन्ममरणनुं मूळ छेदवानी आ वात छे. अरे, आ संसारमां
अनेकविध दुःखनो त्रास, तेनुं मूळ मिथ्यादर्शन छे, तेने टाळवा आत्मानी साची ओळखाण करीने सम्यग्दर्शन
करवुं जोईए. आत्मार्थी–जिज्ञासु एम विचारे के अरेरे! अत्यार सुधी सम्यग्दर्शन वगर हुं अनंत संसारमां
रखडी रखडीने बहु दुःखी थयो. हवे सर्व उद्यमथी सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं ते ज मारे करवा योग्य पहेलुं कर्तव्य
छे. अंतरमां मारो आत्मा छे तेने हुं लक्षमां लउं,–ए सिवाय बीजा कोने मानवुं ने कोनुं जोवुं? दुनिया तो चाली
ज जाय छे. आखी दुनिया मारा अंर्तआत्माथी बहार छे. मारा कार्यनो संबंध अंतरमां मारा कारण साथे छे.
बहारमां कोई साथे नथी.
आत्मानो परम पारिणामिक स्वभाव धु्रव छे, सदा एकरूप छे, ते परम आदरणीय छे, तेनो ज
आश्रय करवा जेवो छे. आ पंचमभाव, औदयिकादि चार भावोमां समातो नथी, माटे ते चारे क्षणिक
भावोथी अगोचर छे. चार क्षणिक भावोनो आश्रय छोडाववा माटे तेमनाथी अगम्य कहीने पंचम
भावनो आश्रय कराव्यो छे. समकितीने ते स्वभाव अंतरमां अनुभवगम्य थई गयो छे.
पारिणामिकभावने चार भावोथी अगोचर कहेवानो आशय एवो छे के चार भावोना आश्रये ते
पंचमभाव जणातो नथी, परम पारिणामिक स्वभावना आश्रये ज ते जणाय छे.–जणाय तो छे
क्षायोपशमिक वगेरे भावोथी–पण ते भाव ज्यारे अंतरमां परमपारिणामिक स्वभावनो आश्रय करे
त्यारे ज ते परमस्वभावने जाणे छे.
परम पारिणामिक स्वभाव ते ज आत्मानो ‘निजस्वभाव’ छे, ते निजभावने आत्मा कदी
छोडतो नथी. कर्मना उदय–क्षय वगेरेनी अपेक्षा ते ‘निजस्वभाव’ ने लागती नथी तेथी ते निरपेक्ष छे.
केवळज्ञान पर्याय प्रगटी तेने जाणवा माटे कोई ईंद्रिय–प्रकाश वगेरेनी अपेक्षा नहि होवाथी निरपेक्ष
कहेवाय, ते जुदी अपेक्षा छे, परंतु ते केवळज्ञानपर्यायमां कर्मना क्षयनी अपेक्षा आवे छे, पहेलां ते
केवळज्ञान न हतुं ने पछी कर्मनो क्षय थतां प्रगटयुं–ए रीते तेमां निरपेक्षता नथी, एकरूपता नथी,
एटले ते क्षायिकभावनो