करावी छे ने बाह्यकारणना अवलंबननी बुद्धि छोडावी छे.
कारणस्वभावरूप दर्शन त्रिकाळ छे.
छे, आ स्वरूपश्रद्धान ते सम्यक्श्रद्धाननुं कारण छे.
प्रगटे छे.
सत्तामात्र छे, परम चैतन्यसामान्यस्वरूप छे, अकृत्रिम परम स्व–स्वरूपमां अविचळस्थितिमय चारित्रस्वरूप
छे, नित्य शुद्ध निरंजन ज्ञानस्वरूप छे अने समस्त विभाव भावोना नाशनुं कारण छे,–आवा आत्माने श्रद्धा
स्वीकारे छे. कारणरूप एवी स्वरूपश्रद्धामां तो आवा आत्माने श्रद्धवानुं त्रिकाळ सामर्थ्य छे, ने तेमांथी व्यक्त
थती सम्यक् श्रद्धारूप पर्याय आवा आत्माने श्रद्धवानुं कार्य करे छे.
परमपारिणामिक स्वभावी चिदानंदस्वभावना सेवनमां सम्यग्दर्शनना कारणनुं पण भेगुं ज सेवन आवी जाय
छे, ने ते कारणमांथी निर्मळ कार्य प्रगटी जाय छे. आ रीते निर्मळ श्रद्धारूपी कार्य प्रगटवानुं कारण (अर्थात्
स्वरूपश्रद्धान) आत्मामां सदाय वर्ती रह्युं छे–एम अहीं बताववुं छे. आ स्वरूपश्रद्धान अथवा तो
कारणस्वभावद्रष्टि ते सम्यग्दर्शननुं कारण छे. अने जो ‘उपयोग’ ना भेद तरीके लईए तो कारणद्रष्टि एटले
कारणस्वभावदर्शनउपयोग ते केवळदर्शननुं कारण छे. केवळदर्शनने कार्यस्वभावदर्शनउपयोग कहेवाय छे.
भगवान सर्वज्ञने जेम केवळज्ञान लोकालोकने जाणे छे तेम आ केवळदर्शन लोकालोकने देखे छे. अहा,
आत्मस्वभावनो अचिंत्य गंभीर महिमा संतोए खुल्ला कर्यो छे.
उदय–उपशम आदि चारे क्षणिकभावो छे, ते क्षणिक भावोना लक्षे पंचमभाव पकडातो नथी, ते अपेक्षाए चार
भावोथी अगोचर कह्यो छे. तेमज ते उदयादि चारे भावोमां कर्मना उदयादिनी अपेक्षा आवे छे, तेओ त्रिकाळ
एकरूप भाव नथी तेथी ते चारे भावोने ‘विभाव’ भावो कह्या. अहीं ‘विभाव’ एटले विकार न समजवो.
क्षायिकभाव तो पर्यायअपेक्षाए स्वभावभाव छे; परंतु पहेलां ते भाव न हतो ने पछी नवो प्रगटयो–ए रीते
तेनामां एकरूपता न रही माटे तेने विभाव कह्यो; ने त्रिकाळ एकरूप एवा परम पारिणामिक स्वभावने सदा
पावनरूप निज स्वभाव कह्यो.–आवा आत्माने श्रद्धवानी ताकात स्वरूप–श्रद्धानमां त्रणे काळ भरी छे, ते
कारणरूप छे, अने तेमांथी आवा आत्माने श्रद्धवानुं व्यक्त कार्य प्रगटे ते सम्यग्दर्शन छे, ते मोक्षमार्गमां
नियमरूप कर्तव्य छे.