Atmadharma magazine - Ank 191
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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ः १६ः आत्मधर्मः १९१
जेटलो आत्मा नथी, आत्मा त्रिकाळी सहजज्ञानस्वरूपे छे–एम जाणीने, तेवा सहजज्ञानस्वरूपे आत्माने
भाववाथी अपूर्व भेदज्ञान थाय छे ने संसारनुं मूळ छेदाई जाय छे. शुभकार्यने पण अहीं संसारनुं मूळ कह्युं छे,
ते शुभमां रहीने मोक्षसुख नथी पमातुं परंतु शुभने ओळंगीने मोक्षसुख पमाय छे, माटे शुभाशुभथी पार एवा
चैतन्यस्वरूपे आत्माने भाववो.
ए रीते भेदज्ञानवडे आत्मानी भावना करतां मोह निर्मूळ थईने केवळज्ञानज्योति प्रगटे छे. श्री
मुनिराज बहुमानथी कहे छे के अहो! भेदज्ञानरूपी वृक्षनुं आ सत्फळ वंदनीय छे ने जगतने मंगळरूप छे.
जुओ, आ केवळज्ञाननो महिमा! भेदज्ञानरूपी वृक्षने आत्मानी भावनारूपी पाणी पातां पातां आ
केवळज्ञानरूपी फळ पाक्यां. आ केवळज्ञान आत्माने तो मंगळरूप छे, अने जगतने पण ते मंगळरूप छे; केमके
जगतना जे कोई जीवो आवा केवळज्ञाननुं स्वरूप लक्षमां ल्ये छे ते जीवोनुं ज्ञान रागथी भिन्न थईने
ज्ञानस्वभावमां पहोंची जाय छे ने ज्ञानस्वभावना आश्रये तेओने भेदज्ञानरूप अपूर्व मंगळ प्रगटे छे.–आ
रीते केवळज्ञानरूपी सुप्रभात जगतने मंगळरूप छे,–वंद्य छे, पूज्य छे, आदरणीय छे.
हवे केवळज्ञानरूप कार्यनी साथे तेना कारणने पण याद करीने कहे छे के सहजज्ञान मोक्षमां जयवंत वर्ते
छे. मोक्षदशामां केवळज्ञान तो जयवंत वर्ते छे, ने तेनी साथे तेना कारणरूप एवुं सहजज्ञान पण जयवंत वर्ते
छे. कार्य अने कारणने साथे साथे ज वर्णववा ते आ टीकाकारनी खास शैली छे. आमां मार्ग अने मार्गफळ बंने
बतावी दीधा. कई–रीते? सहज ज्ञानस्वरूपनी भावना करवानुं कह्युं ते मार्ग छे, अने केवळज्ञानप्रगटयुं ते
मार्गनुं फळ छे.
ज्ञान केवुं छे? के आनंदमां फेलाववाळुं छे. केवळज्ञान संपूर्ण आनंदमां फेलाववाळुं छे, ने सहज ज्ञान
त्रिकाळ आनंदमां फेलाववाळुं छे, साधकनुं सम्यज्ञान पण अंशे आनंदमां फेलाववाळुं छे. आ रीते ज्ञान साथे
अतीन्द्रिय आनंद होय छे ते बताव्युं. जे ज्ञाननी साथे अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन न थाय ते ज्ञान खरेखर ज्ञान
नथी पण अज्ञान छे.
ज्ञानना अनेक प्रकारो वगेरेने जाणीने शुं करवुं?–श्री मुनिराज कहे छे केः “सहज ज्ञानरूपी साम्राज्य
जेनुं सर्वस्व छे एवा शुद्ध चैतन्यमय आत्माने जाणीने, हुं आ निर्विकल्प थाउं छुं.”–बस! आ करवानुं छे.
आ रीते जीवना ज्ञानोपयोग संबंधी वर्णन पूरुं थयुं.
(गाथा ११–१२ पूरी)
हवे तेरमी गाथामां दर्शन–उपयोगना प्रकारो कहेशे.
भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यरचित नियमसार शास्त्रनो जीव अधिकार वंचाय छे. जीव उपयोगस्वरूप छे, ते
उपयोग ज्ञान अने दर्शन एवा बे भेदवाळो छे; तेमांथी ज्ञानउपयोगना प्रकारोनुं वर्णन गाथा १०–११–१२ मां
कर्युं; हवे दर्शन–उपयोगना प्रकारोनुं वर्णन करे छेः–
गाथा १३
तह दंसणउवओगो ससहावेदरवियपदो दुविहो।
केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावमिदि भणिदं।।
उपयोग दर्शननो स्वभाव–विभावरूप द्विविध छे;
असहाय, इंद्रिविहीन, केवळ, ते स्वभाव करेल छे.
जेवी रीते ज्ञानउपयोग स्वभाव अने विभाव एम बे प्रकारनो कह्यो तेवी रीते आ दर्शनउपयोग पण
स्वभावरूप अने विभावरूप एम बे प्रकारनो छे. जे केवळ, ईंद्रियरहित अने असहाय छे ते
स्वभावदर्शनउपयोग छे.
चैतन्य अनुविधायी परिणाम ते उपयोग छे. ज्ञाननी जेम आ दर्शनउपयोग पण चैतन्यने ज
अनुसरनारो छे. टीकाकारे जेम स्वभावज्ञानमां कारण अने कार्य एम बे प्रकारो वर्णव्या हता तेम आ
स्वभावदर्शनमां पण कारण अने कार्य एम बे प्रकारनुं वर्णन करे छे. आ शास्त्रमां ‘नियमसार’ एटले के
नियमथी–चोक्कस करवा योग्य एवा शुद्ध रत्नत्रयरूपी कार्यनुं प्रतिपादन छे, तेथी टीकाकार ते ‘कार्य’ नी साथे