भाद्रपदः २४८पः १पः
(९)
(नियमसार गा. ११–१२–१३)
जेम पिता पोताना वहाला पुत्रने निधाननो वारसो आपे तेम
परमपिता तीर्थंकरो अने संतो चैतन्यनिधाननो आ वारसो जिज्ञासु भव्य
जीवोने आपी रह्या छे.
जुओ भाई, आ विषय एकला अध्यात्मनो छे, अंतरनी द्रष्टिनो
प्रयोजनभूत आ विषय छे. पहेलां तो आत्मानी पात्रतापूर्वक ज्ञानी
धर्मात्मा पासेथी उत्साहपूर्वक आवी वात सांभळे, पछी अंतरमां आत्मा
साथे मेळवीने ते–रूपे परिणमाववानो प्रयत्न करे. आत्मानी खरेखरी
लगनीपूर्वक स्वभाव तरफना घणा प्रयत्नथी अंतरमां परिणमन थतां
अपूर्व आनंदनुं वेदन थाय छे ते आत्मामां निःशंक मोक्षना कोलकरार आवी
जाय छे. पछी ते जीव पराश्रये धर्म शोधतो नथी; मारा धर्मनुं, मारा सुखनुं,
मारो मोक्षनुं साधन मारी पासे वर्तमान, हाजराहजूर छे–एम ते धर्मात्मा
जाणे छे.
भावना अने तेनुं फळ
गाथा ११–१२ नी टीकामां ‘ब्रह्मोपदेश’ करीने श्री पद्मप्रभ मुनिराजे आत्मानो परम ज्ञानस्वभाव
बताव्यो अने एवा सहज चैतन्यविलासरूपे आत्मानी भावना करवानुं कह्युं.
आवी आत्मभावनानो विशेष प्रमोद आवतां हवे मुनिराज पांच कळश कहीने ते आत्मभावनानुं फळ
तेमज तेनो महिमा बतावे छेः
हे भव्यजीवो! ज्ञानना प्रकारो जाणीने तमे भेदज्ञान प्रगट करो; समस्त शुभ–अशुभने संसारनुं कारण
जाणीने अत्यंतपणे छोडो, ने सहज ज्ञानस्वभावनी भावना करो. सहज ज्ञानस्वभावनी भावनावडे पुण्य–
पापथी उपर जतां एटले के समस्त शुभाशुभथी दूर जईने अंर्तस्वरूपमां ठरतां भव्यजीव परिपूर्ण
शाश्वतसुखने पामे छे. सहज ज्ञानस्वरूप आत्मानी भावनानुं आ फळ छे.
जुओ, आ धु्रवपद पामवानो उपाय! अन्य लोकोमां कहेवाय छे के भगवाने धु्रवने धु्रवपद आप्युं.–अहीं
धु्रवपदनो दातार बीजो कोई भगवान नथी, परंतु धु्रव एवो भगवान कारणपरमात्मा, तेनुं ध्यान करतां ते
पोते पोताने धु्रवपद (–मोक्षपद) आपे छे, माटे बुध पुरुषोए अंतरमां आनंदथी भरपूर एवा ज्ञानस्वरूप
आत्माने भाववो.
ज्ञानना घणा भेद कह्या तेने जाणीने शुं करवुं? के भेदना अवलंबनमां न अटकवुं; ज्ञानना क्षणिक भेदो