: १८ : आत्मधर्म: १९प
तो ते पदार्थनुं अनादिपणुं नथी रहेतुं”–एम कोई शंका करे तो कहे छे के: भाई! एम नथी.
ज्ञेयो करतां केवळज्ञाननुं सामर्थ्य अचिंत्य छे तेनी तने खबर नथी. जो अनादि पदार्थने
अनादिस्वरूपे केवळज्ञान न जाणी ल्ये तो ते ज्ञाननुं सर्वज्ञपणुं क््यां रह्युं? माटे श्रद्धा कर के
केवळज्ञान त्रणलोक अने त्रणकाळने जाणे छे. केवळज्ञानभानु एवा जिनदेव जयवंत छे.
हे जीव! तारा ज्ञानमां सर्वज्ञनो स्वीकार करतां ज, तारा आत्मानुं अचिंत्य सामर्थ्य
तने लक्षमां आवशे. अहा! सर्वज्ञताने पामेला केवळीभगवंतोने सर्वे ईष्टनी प्राप्ति थई छे ने
सर्वे अनिष्टनो नाश थयो छे. पूर्ण ज्ञान ने आनंदनी प्राप्ति ते ज मुमुक्षुनुं ईष्ट छे. आत्माना
ज्ञान–आनंद सिवाय मुमुक्षुने बीजुं शुं ईष्ट होय? “जगत ईष्ट नहि आत्मथी”–मुमुक्षुने
ज्ञानानंदस्वरूप आत्मानी प्राप्ति सिवाय जगतमां बीजुं कांई ईष्ट नथी. रत्नत्रयमार्गनी
आराधनाथी आवुं ईष्ट केवळीभगवंतोने परिपूर्ण प्राप्त थयुं छे. तेमने ओळखवानी आ वात
छे. केमके–
जे जाणतो अर्हंतने गुण द्रव्य ने पर्ययपणे
ते जीव जाणे आत्मने तसु मोह पामे लय खरे.
(प्रवचनसार गा. ८०)
अहा! केवळज्ञानसूर्यना निमित्ते जगतना जीवोने नेत्र प्राप्त थाय छे.–तेने लक्षमां
लईने प्रतीत करनार जीवोने सम्यग्ज्ञाननेत्र प्राप्त थाय छे. अने सम्यग्ज्ञानरूपी नौकावडे ते
जीव भगसागरने तरी जाय छे.
केवळज्ञानरूपी जे मार्गनुं फळ तेने पोतानी प्रतीतमां लईने साधक जीव कहे छे के:
हे जिननाथ! सद्ज्ञानरूपी नावमां आरोहण करी भवसागरने ओळंगी जईने, तुं
झडपथी शाश्वतपुरीए पहोंच्यो....हवे हुं पण तारा ज मार्गे ते शाश्वतपुरीमां आवुं छुं,
सर्वज्ञताना अचिंत्य सामर्थ्यने मारा हृदयमां लईने, ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थईने हुं पण
तारा मार्गे चाल्यो आवुं छुं, कारण के आ लोकमां उत्तमपुरुषोने ते मार्ग सिवाय बीजुं शुं
शरण छे?
जुओ, आ सर्वज्ञनी श्रद्धा करनार जीवनी निःशंकताना भणकार!
सर्वज्ञनी श्रद्धा ते सर्वज्ञस्वभावनी आराधनानुं कारण छे, सर्वज्ञनी श्रद्धा भवनुं
कारण नथी. सर्वज्ञने यथार्थ ओळखे ने अनंत भवमां रखडवानी शंका रहे एम बने नहीं.
सर्वज्ञनो निर्णय करनार तो चैतन्य स्वभावनी सन्मुख थईने मोक्षनो आराधक थई जाय छे.
एटले मार्गफळनो निर्णय करनार पोते पण ते मार्गमां भळी जाय छे; आ रीत मार्ग अने
मार्गना फळनी संधि छे.