Atmadharma magazine - Ank 195
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 18 of 21

background image
पोष: २४८६ : १७ :
मा र्ग नुं
फ ळ
केवळज्ञान–सूर्यथी जगतना जीवोने नेत्र प्राप्त थाय छे
(नियमसार गाथा १प९–१६० ना प्रवचनमांथी)
नियमसारमां मोक्षना मार्गरूप शुद्धरत्नत्रयनुं, अने ते मार्गना फळरूप
केवळज्ञानादि शुद्धोपयोगनुं वर्णन कर्युं छे. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप जे मार्ग तेनी
आराधनावडे मागना फळने पामेल आत्मा केवो छे? – के केवळज्ञानमूर्ति ते आत्मा
समस्त विश्वने साक्षात् जाणे छे. झळहळतो चैतन्यसूर्य ज्यां ऊग्यो अने कर्मरूपी
समस्त वादळां ज्यां दूर थया त्यां ते चैतन्यसूर्य कोने न प्रकाशे? –कोने न जाणे?
खरेखर ते केवळज्ञान पोताना दिव्य सामर्थ्यवडे त्रणलोक–त्रणकाळवर्ती समस्त पदार्थोने
जाणी ले छे. अहो! आवा चैतन्यसूर्यनो उदय जगतना जीवोने ज्ञाननेत्र खोलवानुं
कारण छे. जेम सूर्यनो उदय थतां जगतना जीवोनी निद्रा टळीने नेत्र खूले छे, तेम
केवळज्ञानसूर्यनो उदय जगतना जीवोनी निद्राने दूर करीने ज्ञाननेत्र खोलवानुं कारण
छे. जे जीव केवळज्ञानने लक्षमां लईने तेनो निर्णय करे तेने ज्ञानस्वभावनी सन्मुखता
थईने सम्यग्ज्ञानचक्षु खुल्या वगर रहे नहीं.
स्वभाव–आश्रित जे सम्यक्मार्ग, तेनी आराधना करनारने तेना फळनी शंका
होय नहीं. केवळज्ञानना सामर्थ्यमां जेने शंका छे तेने मार्गना फळनी शंका छे, एटले
खरेखर मार्गनी पण तेने शंका छे,–मार्गनी आराधना तेने प्रगटी ज नथी. जगतमां
मार्गना फळरूपे झळहळतो चैतन्यसूर्य ऊग्यो छे, पण जेनां ज्ञानचक्षु बंध छे ते तेने
देखतो नथी–श्रद्धतो नथी. स्वसन्मुख थईने ज्ञानचक्षु ऊघडया वगर केवळज्ञाननी श्रद्धा
थाय नहीं.
केवळज्ञान जगतना पदार्थोना पारने पामेलुं छे,–एम जे नथी मानतो ते जीव
केवळज्ञानना पारने पाम्यो नथी एटले के केवळज्ञाननी तेने श्रद्धा नथी.
अनादि पदार्थना पारने पण केवळज्ञान पामी गयुं छे एटले के अनादि पदार्थने
अनादिपणे जेम छे तेम ते केवळज्ञाने जाणी लीधुं छे. “अनादिपदार्थने जो ज्ञान जाणे