Atmadharma magazine - Ank 197
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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फागण: २४८६ : १३ :
(श्री समयसार गा. ६९ थी ७२ उपरना प्रवचनोनुं दोहन: गतांकथी चालु)
भेदज्ञान थतां आत्मानी अंर्तपरिणति
एवी अलौकिक थई जाय छे–जाणे के आखो
आत्मा ज पलटी गयो. ज्ञान अने वैराग्य ए
बे सम्यग्द्रष्टिनी खास शक्तिओ छे के जेने लीधे
तेने बंधन थतुं नथी, पण निर्जरा ज थाय छे.
सम्यग्द्रष्टिनुं हृदय ऊंडु छे, घणी पात्रता वगर
ते पकडातुं नथी. अहा! ज्ञानी तो महावैराग्यनुं
पूतळुं छे...एना रोमे रोमे–चैतन्यना प्रदेशे
प्रदेशे रागथी उदासीनता परिणमी गई छे. ते
समकिती हंस आत्म–आराममां–चैतन्य बागमां
निजानंदनी केली करे छे. एवी दशा केम प्रगटे
तेनी आ वात छे.
(१३४) भेदज्ञान केवुं होय, अने ते भेदज्ञान थतां आत्मानी केवी दशा थाय, तेनुं आ वर्णन
छे. आत्मा अने रागादिने जुदा जाणनारुं भेदज्ञान रागादिथी छुटूं पडेलुं छे. भेदज्ञान थया पछी एवा
ने एवा रागद्वेष रहेता नथी. ज्ञाने ते रागादिने पोताथी जुदा जाण्या होवाथी ते रागादिनुं जोर अनंतुं
घटी गयुं छे. आ कोई बहारनी क्रियानी वात नथी पण आत्मानी अंतरपरिणतिनी वात छे. भेदज्ञान
थतां आत्मानी अंतरपरिणति एवी अलौकिक थई जाय छे–जाणे के आखो आत्मा ज पलटी गयो....
आत्मानी आखी दशा ज बदली जाय छे...पहेलांनी अने अत्यारनी दशामां आकाश–पाताळ जेटलुं
मोटुं अंतर छे.
(१३प) भेदज्ञाननी अपूर्व कळा जेना हृदयमां जागी छे ते धर्मात्मा जगतमां सहज वैरागी
होय छे; भेदज्ञान थाय अने छतां विषयसुखोमां एवी ने एवी मग्नता रह्या करे एवुं कदी बनतुं नथी.
‘ज्ञानकला जिसके घट जागी ते जगमांही सहज वैरागी।
ज्ञानी मगन विषयसुखमांही यह विपरीत संभवे नांही।।’
पांच ईंद्रियना विषयमां एवी ने एवी मीठास वेदतो होय, जाणे के तेमांथी सुखना सडका
आवता होय–एवी मग्नताथी विषयोमां वर्ततो होय, रुचि पण न पलटे, ईंद्रियविषयोमांथी विरकतता
जराय न थाय, राग–द्वेष कांई पण न घटे अने एम कहे के मने ज्ञान थयुं छे–हुं सम्यग्द्रष्टि छुं, तो ए
तो मात्र शुष्कज्ञानी छे, सम्यगज्ञानीनी दशा केवी होय तेनी एने गंध पण नथी.