चैत्र: २४८६ : ३:
आत्मधमर्
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वर्ष सत्तरमुं: अंक ६ छठ्ठो संपादक: रामजी माणेकचंद दोशी चैत्र: २४८६
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मु....मु....क्षु....नी वि....चा....र....णा
हे जीव! तने एम अंतरमां लागवुं जोईए के
आत्माने ओळख्या वगर छूटको नथी. आ
अवसरमां जो हुं मारा आत्मानो अनुभव करीने
सम्यग्दर्शन प्रगट नहि करुं तो मारो क््यांय
छूटकारो नथी. अरे जीव! वस्तुना भान वगर तुं
कया जईश?–तने सुखशांति क््यांथी मळशे? तारी
सुखशांति तारी वस्तुमांथी आवशे के बहारथी?
तुं गमे ते क्षेत्रे जा, तुं तो तारामां ज रहेवानो,
अने परवस्तु परवस्तुमां ज रहेवानी. परमांथी
क््यांयथी तारुं सुख नथी आववानुं. स्वर्गमां
जईश तो त्यांथी पण तने सुख नथी मळवानुं.
सुख तो तने तारा स्वरूपमांथी ज मळवानुं छे,
माटे स्वरूपने जाण. तारुं स्वरूप ताराथी कोई काळे
जुदुं नथी, मात्र तारा भानना अभावे ज तुं दुःखी
थई रह्यो छे. ते दुःख दूर करवा माटे त्रणे काळना
ज्ञानीओ एक ज उपाय बतावे छे के “आत्माने
ओळखो”
–आ प्रमाणे अंर्त विचारणा द्वारा मुमुक्षु जीव
पोतामां सम्यग्दर्शननी लगनी लगाडीने पोताना
आत्माने तेना उद्यममां जोडे छे.