: २८ : आत्मधर्म: २००
प्रतीतिना प्रतापे परमात्मा
प्रतीतिना अभावे परिभ्रमण
(१) आत्मा ज्ञानस्वभावी छे, तेना ज्ञानमां सर्वज्ञ थवानी ताकात छे.
(२) ज्ञान पोते पोताना आवा परिपूर्ण सामर्थ्यनी प्रतीत ज्यांंसुधी न करे
त्यांसुधी आत्मानी सम्यक् प्रतीति थाय नहीं.
(३) ‘हुं ज्ञानस्वभाव छुं’ एवी प्रतीतिना प्रतापे आत्मा सर्वज्ञ थाय छे; ने ते
प्रतीतिना अभावे आत्मा संसारमां रखडे छे.
(४) ‘हुं ज्ञानस्वभाव छुं’ एवी प्रतीत करीने ज्यारे आत्मा तेने ध्यावे छे,
एटले के ध्यानमां ते ज्ञानस्वभावने ज कारणपणे ग्रहीने तेमां तन्मयपणे
लीन थाय छे त्यारे तुरत ज परम आनंदमय केवळज्ञान प्रगटे छे.
(प) ते केवळज्ञानी भगवान संपूर्ण अतीन्द्रिय थया छे, तेमने ईंद्रियो साथे
संबंधनो अभाव होवाथी तेओ ईंद्रियोथी पार छे.
(६) सर्वज्ञनुं ज्ञान सर्व आत्मप्रदेशे सोळ कळाए खीली गयुं छे, कोई आवरण
तेने नथी रह्युं के जे कोई पण ज्ञेयने जाणतां तेने रोके. तेओ निर्विघ्न
खीलेली निजशक्तिथी सर्व ज्ञेयोने एक साथे प्रत्यक्ष जाणे छे.
(७) ज्ञाननी जेम भगवानना सुखनुं पण ए ज प्रमाणे समजी लेवुं.
अतीन्द्रिय थयेला ते सर्वज्ञ भगवान भोजनादि ईंद्रियविषयो वगर ज
पोताना अतीन्द्रिय परमसुखने अनुभवे छे. सुखना अनुभवमां विघ्न
करनार कोई कर्म तेमने नथी रह्युं; स्वाधीनपणे ज तेओ पूर्ण सुखरूपे
परिणमी गया छे, तेथी सुख माटे बीजा कोई विषयोनी अपेक्षा ते
स्वयंभू–परमात्माने नथी.
(८) सर्वज्ञतानी प्रतीतिनो एवो प्रताप छे के ते प्रतीति करवा जतां
स्वसन्मुखता थईने आत्मप्रतीति थई जाय छे....ने सम्यग्दर्शन थाय छे.
ते प्रतीतिनो प्रताप तेने अल्पकाळमां सर्वज्ञ परमात्मा बनावी दे छे.
(९) सर्वज्ञतानी प्रतीतिना अभावे आत्मा पोताना ज्ञानस्वभावने भूलीने,
रागादि विभावनो ज कर्ता थईने संसारमां रखडे छे.
(१०) आ रीते प्रतीतिना प्रतापे परमात्मा थवाय छे अने प्रतीतिना
अभावे परिभ्रमण थाय छे.
माटे हे जीवो!
सर्वज्ञस्वभावी आत्मानी प्रतीति करो.... ने तेनो अचिंत्य महिमा जाणीने तेमां ठरो....
एम श्री सन्तोने उपदेश छे.