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प्रवचनोनी श्रुतधारा आजे शरू थाय छे...आ प्रवचनो
द्वारा गुरुदेव पिपासु जीवोने आनंदमय अध्यात्मरसनुं
पान करावीने तेओनी तृषा मटाडे छे...अंतरमां
जयनादपूर्वक श्रोताजनो अध्यात्मरसने झीलीने तृप्त
थाय छे...भारतना हजारो जिज्ञासुओनां हैयां जेनी राह
जोई रह्या हता ते अध्यात्मरसनां झरणां गुरुदेवे
वहेवडाववा शरू कर्या छे. “आत्मधर्म” ना आ खास
वधाराद्वारा जिज्ञासुओने तेनी प्रसादीनुं रसपान करतां
जरूर आनंद थशे आ मंगल प्रसंगे गुरुदेवने अतिशय
भक्तिपूर्वक नमस्कार करीए छीए. जय हो.....भवछेदक
गुरु–वाणीनो!
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किनारो अत्यंत नजीक आवी गयो छे, अल्पकाळमां तेओ भवने छेदीने मोक्ष पामवाना
छे.–आवा भवछेदक पुरुषनी वाणी छे, ते वाणी पण भवछेदक छे. भवनो छेद करवानो
उपाय आ वाणी बतावे छे.
भव्यजीवोने माटे आ प्रवचनसारनी टीका रचाय छे. जेने चैतन्यना परमआनंदनी ज
पिपासा छे, जगतनी बीजी कोई लप जेनां अंतरमां नथी, अरे! अमारा चैतन्यनुं
अमृत अमारा अंतरमां ज छे–एम जेनी जिज्ञासानो दोर आत्मा तरफ वळ्यो छे, एवा
भव्यजीवोना आनंद माटे–हितने माटे आ टीका रचवामां आवे छे. जुओ, आ श्रोतानी
जवाबदारी बतावी; श्रोता केवो छे? के चैतन्यना परमानंदरूपी अमृतनो ज पिपासु छे,
ए सिवाय संसारनी कोई चीजनो, माननो, लक्ष्मीनो, पुण्यनो, के रागादिनो पिपासु जे
नथी, आवा जिज्ञासुश्रोताने माटे आ “तत्त्वप्रदीपिका” रचाय छे. तरता पुरुषनी आ
वाणी भवछेदक छे.
छे. आ शास्त्रद्वारा आचार्यदेव परमानंदना पिपासु भव्यजीवने यथार्थ तत्त्वोनु स्वरूप
समजावे छे, –ज्ञान अने ज्ञेय तत्त्वोनुं यथार्थस्वरूप समजतां भेदज्ञानज्योति प्रगटे छे
ने जीव परम आनंदने पामे छे.
परिणाममां वास्तविक सुख नथी. परमानंदरूप जे ज्ञानतत्त्व छे तेमां शुभ के अशुभ
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परिणाममां किंचित् सुख के मोक्षमार्ग नथी. चोथा गुणस्थानथी मोक्षमार्गनी शरूआत
थई होवा छतां जे शुभोपयोग छे ते कंई मोक्षमार्ग नथी. मोक्षमार्ग राग वगरनी जे
शुद्धता प्रगटी तेमां ज छे. ए सिवाय अशुभ के शुभ (सम्यद्रष्टि के मिथ्याद्रष्टि) ते
बंनेमां दुःखनुं साधनपणुं समानपणे छे, जेम पापने उत्पन्न करनार अशुभ उपयोग ते
दुःखनुं ज कारण तेम पुण्यने उत्पन्न करनार शुभउपयोग पण ते अशुभोपयोगनी
माफक ज दुःखनुं साधन छे.–एम ७२मी गाथामां समजावे छे.
कोने समजावे छे?–के जे जीव चैतन्यना परम आनंदनो पिपासु छे तेने समजावे छे–
तो जीवनो उपयोग ए शुभ ने अशुभ कई रीत छे? ७२.
अभाव छे, बंने आत्माना शुद्धोपयोगथी विलक्षण छे, बंने अशुद्ध छे, स्वाभाविक सुख
तो शुद्धोपयोगमां ज छे. जेने रागमां–पुण्यमां–शुभमां सुख लागतुं होय ते जीव खरेखर
परमानंदनो पिपासु नथी. सम्यग्दर्शनमां प्राप्त थतुं जे परमसुख तेनी तेने खबर नथी.
शुभना फळरूप जे पुण्य–तेमां झंपलावीने जेओ पोताने सुखी माने छे तेवा जीवोने
चैतन्यना परमानंदनी खबर नथी, चैतन्यना परमानंदने भूलीने कायरताथी तेओ
ईंद्रियविषयोमां झंपापात करे छे, तेओ दुःखमां ज पड्या छे. नरकनो नारकी के स्वर्गनो
देव–ए बंने जीवो ईन्द्रियविषयोथी ज दुःखी छे.
श्रीमद् राजचंद्रजी कहे छे के–
शुं कुटुंब के परिवारथी वधवापणुं ए नय ग्रहो?
एनो विचार नहि अहोहो, एक पळ तमने हवो!
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भवनो छेद थाय. भाई, आवो मनुष्य अवतार मळ्यो तेमां जो तें भवना छेदनो उपाय
न कर्यो तो तें शुं कर्युं? आ भव, भवना छेद माटे ज मळेलो छे. चार गतिना भवनो
अभाव करवा माटे ज आ अवतार छे; परम आनंदनी प्राप्तिनो पिपासु थईने तुं
भवछेदनो उपाय कर.
ईंद्रियविषयनो अभाव छे.–आम ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थईने जेणे द्रव्येन्द्रियो
भावेन्द्रियो तथा ते ईंद्रियना विषयो–ए बधाथी भिन्न पोताना ज्ञानस्वभावने
अनुभव्यो ते जीव जीतेन्द्रिय छे, ते जिनेन्द्रदेवनो खरो भक्त छे, ते जीव आत्माना
परम आनंदने अनुभवनार छे.
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अविनाशी एक सुखराशि सोहे घटहीमें, ताको अनुभौ सुभाव सुधारस पीजिए;
देव भगवान ज्ञानकालको निधान जाको, उरमें अनाय सदाकाल धिर कीजिए,
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नीडलींग (
थवाना आ प्रसंगे पूजन–भक्ति वगेरे द्वारा उत्सव ऊजवायो हतो.
नीकळी हती. सुगंधदशमी दरवर्षनी जेम उल्लासपूर्वक उजवाणी हती.
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अने हुं पण आ रीते चैतन्यने साधुं–एम तेने आराधनानो
उत्साह जागे छे. चैतन्यने साधवामां हेतुभूत एवा संतगुरुओने
ने संत–गुरुओ तेना उपर प्रसन्न थईने तेने आत्मप्राप्ति करावे छे.
श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रने प्रगट करुं? आत्मामां सतत आवी धून
वर्तती होवाथी ज्यां संत गुरुए तेना श्रद्धा–ज्ञानादिनो उपाय
अर्थी मनुष्य राजाने देखतां ज प्रसन्न थाय छे अने तेने विश्वास
आवे छे के हवे मने धन मळशे ने मारी दरिद्रता टळशे; तेम
संतोने देखतां ज परम प्रसन्न थाय छे...तेनो आत्मा उल्लसी जाय
छे के अहा! मने मारा आत्मानी प्राप्ति करावनार संत मळ्या...हवे
मारा संसारदुःख टळशे ने मने मोक्षसुख मळशे. आवो उल्लास
साधवानुं कहे छे ते रीते समजीने पोते सर्व उद्यमथी चैतन्यने जरूर
साधे छे.
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पंचेन्द्रिगजना दर्प दलने दक्ष श्री आचार्य छे. ७३
अन्य मुनिओने दीक्षा–शिक्षा वगेरेना देनार छे, एवा जैन–शासनना धूरंधर आचार्यो होय छे.
कुशळ छे तेथी तेओ ज्ञानाचारथी परिपूर्ण छे.
अनशन, अवमौदर्य, वृत्ति, परिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त, शय्यासन, कायकलेश,
श्री आचार्य महाराज आवा पांच आचारनुं परिपूर्ण पालन करनारा छे. हजी जेने श्रद्धा–
पाडोशी पद छे, केवळज्ञान लेवानी तैयारीमां तेओ झूली रह्या छे.
अतीन्द्रिय चिदानंद स्वभावना अवलंबन वडे पांच ईन्द्रियोना मदना चुरेचूरा करी नांख्या छे,
समर्थ छे. अतीन्द्रिय आनंद परिणति ठरी त्यां ईंद्रियो जीताई गई.
धीर अने गंभीर छे.
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धीर अने गंभीर होय छे. गमे तेवी ऋद्धि प्रगटो परंतु मारी चैतन्य ऋद्धि पामे तेनी शुं महत्ता छे!
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न्यपरिणमन होय त्यां ज आचार्यपद होई शके. आवा चैतन्यपरिणमनवाळा आचार्य परमेष्ठीने
जिनवरकथित अर्थोपदेशेशुर श्री उवझाय छे. ७४
उपाध्यायने रत्नत्रय–संयुक्त कह्या तेमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र आव्या. अने
साधुने चतुर्विध आराधनामां रत कहेशे, तेमां पण सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र आवी गया.
आ रीते सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते गुरुनुं मूळस्वरूप छे, अने सर्वज्ञता ते देवनुं (–अरिहंत
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परंतु ओळखाण–पूर्वकनुं जेवुं परम बहुमान ज्ञानीने आवशे तेवुं अज्ञानीने नहीं आवे. एटले
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अद्भुत कथन आचार्यभगवाने कर्युं छे.
छे. आत्मज्ञान होय छतां मुनिपणुं न होय, अगर होय पण खरुं,–एटले तेमां कोई नियम नथी.
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होय, एटले कोई साधु शुद्धोपयोगमां वर्तता होय ने कोई साधु शुभोपयोगमां पण वर्तता होय, एवा
आ रीते बहुमानपूर्वक भगवान पंच–परमेष्ठीनुं वर्णन पूरुं थयुं.....ते परमेष्ठी भगवंतो
नमो सिद्धाणं।
नमो आइरियाणं।
नमो उवज्झायाणं।
नमो लोए सव्वसाहूणं।
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–तेने ओळखी, तेनो अचिंत्य महिमा लावी,
अनंत शक्तिसंपन्न तेनो अचिंत्य महिमा छे; तेनी
शक्तिओने ओळखे तो तेनो महिमा आवे ने जेनो
महिमा आवे तेमां सन्मुखता थया विना रहे नहीं.–
आ रीते स्वसन्मुखता थतां अपूर्व सुख–शांति ने
धर्म थाय छे. आवी स्वसन्मुखता कराववा माटे
आचार्य भगवाने चैतन्यशक्तिनुं अद्भुत वर्णन
कर्युं छे. तेना उपर पू. गुरुदेवनां अध्यात्मरसभीनां
प्रवचनोनुं केटलुंक दोहन गतांकमां आवी गयुं छे,
त्यार पछी विशेष अहीं आपवामां आव्युं छे. आ
४७ शक्तिनां विस्तृत प्रवचनो ‘आत्मप्रसिद्धि”
नामना पुस्तकरूपे प्रसिद्ध थई गया छे,
जिज्ञासुओने ते वांचवा भलामण छे.
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छे, ने केवा केवा निधान भर्या छे तेनी अज्ञानीओने खबर नथी. जे चैतन्यनिधानने लक्षमां लेतां ज
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तो तेणे खरेखर करोडपति ओळख्यो नथी, तेनुं बहुमान कर्युं नथी पण अपमान कर्युं छे. तेम
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परंतु आत्मामां भेदना विकल्पोरूप चिंताथी पण साध्यआत्मानी सिद्धि नथी एटले के आत्मानो
अनुभव थतो नथी. साध्यआत्मानी सिद्धि तो सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रथी ज थाय छे, बीजी रीते थती
नथी. माटे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र वडे शुद्धआत्माने सेववो (आराधवो, अनुभववो) ते ज
मोक्षार्थीजीवनुं प्रयोजन छे. मोक्षार्थीए पोतानुं आवुं प्रयोजन सिद्ध करवा माटे शुं करवुं ते वात
आचार्यदेव द्रष्टांत आपीने समजावे छे.–(समयसार गाथा १७–१८)
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