Atmadharma magazine - Ank 204
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration). Entry point of HTML version.

Next Page >


Combined PDF/HTML Page 1 of 2

PDF/HTML Page 1 of 29
single page version

background image
आत्मधर्म
वर्ष १७
सळंग अंक २०४
Version History
Version
Number Date Changes
001 Apr 2004 First electronic version.

PDF/HTML Page 2 of 29
single page version

background image
आत्मधर्मना अंकनो खास वधारो
श्री जिनवाणीदातार गुरुदेवाय नम:
परम आनंदना पिपासु
जीवने संतो चैतन्यनो–
अध्यात्मरस पीवडावे छे.
आसो सुद पूर्णिमा: आजे जिज्ञासुओने माटे
आनंदनो सोनेरी दिवस छे...गुरुदेवना मंगलमय
प्रवचनोनी श्रुतधारा आजे शरू थाय छे...आ प्रवचनो
द्वारा गुरुदेव पिपासु जीवोने आनंदमय अध्यात्मरसनुं
पान करावीने तेओनी तृषा मटाडे छे...अंतरमां
जयनादपूर्वक श्रोताजनो अध्यात्मरसने झीलीने तृप्त
थाय छे...भारतना हजारो जिज्ञासुओनां हैयां जेनी राह
जोई रह्या हता ते अध्यात्मरसनां झरणां गुरुदेवे
वहेवडाववा शरू कर्या छे. “आत्मधर्म” ना आ खास
वधाराद्वारा जिज्ञासुओने तेनी प्रसादीनुं रसपान करतां
जरूर आनंद थशे आ मंगल प्रसंगे गुरुदेवने अतिशय
भक्तिपूर्वक नमस्कार करीए छीए. जय हो.....भवछेदक
गुरु–वाणीनो!

PDF/HTML Page 3 of 29
single page version

background image
: २ : आत्मधर्म: २०४
आ प्रवचनसारनी ७२मी गाथा छे. आ प्रवचनसारना कर्ता भगवान
कुंदकुंदाचार्यदेव छे, तेमना संबंधमां श्री अमृतचंद्राचार्यदेव कहे छे के तेमने भवसमुद्रनो
किनारो अत्यंत नजीक आवी गयो छे, अल्पकाळमां तेओ भवने छेदीने मोक्ष पामवाना
छे.–आवा भवछेदक पुरुषनी वाणी छे, ते वाणी पण भवछेदक छे. भवनो छेद करवानो
उपाय आ वाणी बतावे छे.
ज्ञानानंदस्वभावने नमस्कार करीने, तथा अनेकान्तमय वाणीने नमस्कार करीने
प्रवचनसारनी शरूआत करतां आचार्यदेव कहे छे के परमानंदरूपी सुधारसना पिपासु
भव्यजीवोने माटे आ प्रवचनसारनी टीका रचाय छे. जेने चैतन्यना परमआनंदनी ज
पिपासा छे, जगतनी बीजी कोई लप जेनां अंतरमां नथी, अरे! अमारा चैतन्यनुं
अमृत अमारा अंतरमां ज छे–एम जेनी जिज्ञासानो दोर आत्मा तरफ वळ्‌यो छे, एवा
भव्यजीवोना आनंद माटे–हितने माटे आ टीका रचवामां आवे छे. जुओ, आ श्रोतानी
जवाबदारी बतावी; श्रोता केवो छे? के चैतन्यना परमानंदरूपी अमृतनो ज पिपासु छे,
ए सिवाय संसारनी कोई चीजनो, माननो, लक्ष्मीनो, पुण्यनो, के रागादिनो पिपासु जे
नथी, आवा जिज्ञासुश्रोताने माटे आ “तत्त्वप्रदीपिका” रचाय छे. तरता पुरुषनी आ
वाणी भवछेदक छे.
काम एक आत्मार्थनुं,
बीजो नहि मन रोग.
जेना अंतरमां एक आत्मार्थ साधवा सिवाय बीजी कोई तमन्ना नथी, आत्माने
साधवानी ज तमन्ना छे, एवा आत्मार्थी जीवोने माटे आचार्यभगवान आ शास्त्र रचे
छे. आ शास्त्रद्वारा आचार्यदेव परमानंदना पिपासु भव्यजीवने यथार्थ तत्त्वोनु स्वरूप
समजावे छे, –ज्ञान अने ज्ञेय तत्त्वोनुं यथार्थस्वरूप समजतां भेदज्ञानज्योति प्रगटे छे
ने जीव परम आनंदने पामे छे.
आटला उपोद्घात पछी हवे मूळ अधिकार शरू थाय छे.
(जेठ सुद १४ना रोज प्रवचनसार गा. ७१ सुधी वंचायेल, त्यारबाद आजे
आसो सुद १पना रोज प्रवचनसार गा. ७२थी शरू थाय छे.)
जगतना छ द्रव्योमां आ आत्मा ज्ञानतत्त्व छे, विशुध्ध ज्ञानदर्शनस्वभावी
आत्मा छे तेना स्वभावमां ज वास्तविक सुख छे; ए सिवाय शुभ के अशुभ
परिणाममां वास्तविक सुख नथी. परमानंदरूप जे ज्ञानतत्त्व छे तेमां शुभ के अशुभ

PDF/HTML Page 4 of 29
single page version

background image
आसो: २४८६ : ३ :
परिणामनो अभाव छे–पछी अज्ञानीना शुभ हो के ज्ञानीना हो,–पण ते शुभ
परिणाममां किंचित् सुख के मोक्षमार्ग नथी. चोथा गुणस्थानथी मोक्षमार्गनी शरूआत
थई होवा छतां जे शुभोपयोग छे ते कंई मोक्षमार्ग नथी. मोक्षमार्ग राग वगरनी जे
शुद्धता प्रगटी तेमां ज छे. ए सिवाय अशुभ के शुभ (सम्यद्रष्टि के मिथ्याद्रष्टि) ते
बंनेमां दुःखनुं साधनपणुं समानपणे छे, जेम पापने उत्पन्न करनार अशुभ उपयोग ते
दुःखनुं ज कारण तेम पुण्यने उत्पन्न करनार शुभउपयोग पण ते अशुभोपयोगनी
माफक ज दुःखनुं साधन छे.–एम ७२मी गाथामां समजावे छे.
कोने समजावे छे?–के जे जीव चैतन्यना परम आनंदनो पिपासु छे तेने समजावे छे–
तिर्यंच–नारक–सुर–नरो जो देहगत दुःख अनुभवे
तो जीवनो उपयोग ए शुभ ने अशुभ कई रीत छे? ७२.
आचार्यदेव कहे छे के, अरे जीव! तुं विचार तो खरो के, जो शुभ अने अशुभ
बंनेमां जोडायेला जीवो दुःख ज पामे छे, तो ते बंनेमां शो फेर छे?–बंनेमां सुखनो
अभाव छे, बंने आत्माना शुद्धोपयोगथी विलक्षण छे, बंने अशुद्ध छे, स्वाभाविक सुख
तो शुद्धोपयोगमां ज छे. जेने रागमां–पुण्यमां–शुभमां सुख लागतुं होय ते जीव खरेखर
परमानंदनो पिपासु नथी. सम्यग्दर्शनमां प्राप्त थतुं जे परमसुख तेनी तेने खबर नथी.
शुभना फळरूप जे पुण्य–तेमां झंपलावीने जेओ पोताने सुखी माने छे तेवा जीवोने
चैतन्यना परमानंदनी खबर नथी, चैतन्यना परमानंदने भूलीने कायरताथी तेओ
ईंद्रियविषयोमां झंपापात करे छे, तेओ दुःखमां ज पड्या छे. नरकनो नारकी के स्वर्गनो
देव–ए बंने जीवो ईन्द्रियविषयोथी ज दुःखी छे.
श्रीमद् राजचंद्रजी कहे छे के–
लक्ष्मी अने अधिकार वधतां शुं वध्युं ते तो कहो
शुं कुटुंब के परिवारथी वधवापणुं ए नय ग्रहो?
वधवापणुं संसारनुं नर देहने हारी जवो,
एनो विचार नहि अहोहो, एक पळ तमने हवो!
अरे जीव! लक्ष्मी वगेरे वधतां तेमां आत्माने शुं वध्युं? तेमां आत्माने शुं सुख
मळ्‌युं?–एनाथी आत्मानी कांई अधिकता नथी. आत्मानी अधिकता

PDF/HTML Page 5 of 29
single page version

background image
: ४ : आत्मधर्म: २०४
तो ज्ञानस्वभावथी ज छे. ज्ञानस्वभाववडे अधिक एवा आत्माने जाण तो तारो
भवनो छेद थाय. भाई, आवो मनुष्य अवतार मळ्‌यो तेमां जो तें भवना छेदनो उपाय
न कर्यो तो तें शुं कर्युं? आ भव, भवना छेद माटे ज मळेलो छे. चार गतिना भवनो
अभाव करवा माटे ज आ अवतार छे; परम आनंदनी प्राप्तिनो पिपासु थईने तुं
भवछेदनो उपाय कर.
ज्ञानी, अथवा तो परमानंदनो पिपासु जीव एम जाणे छे के मारा विशुद्ध
चैतन्य स्वभावमां शुभ के अशुभ नथी, मारा अतीन्द्रिय आनंद स्वभावमां
ईंद्रियविषयनो अभाव छे.–आम ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थईने जेणे द्रव्येन्द्रियो
भावेन्द्रियो तथा ते ईंद्रियना विषयो–ए बधाथी भिन्न पोताना ज्ञानस्वभावने
अनुभव्यो ते जीव जीतेन्द्रिय छे, ते जिनेन्द्रदेवनो खरो भक्त छे, ते जीव आत्माना
परम आनंदने अनुभवनार छे.
अमृतझरणी.....
शांतिदातारी.......
भव तारणहारी......
गुरुदेवनी मंगल वाणीनो
(आ मंगल–प्रवचन पछी पू. बेनश्रीबेने
हर्षोल्लासपूर्वक भक्ति करावी हती.)
आत्मधर्मना ग्राहक बनो
अने
लवाजम तुरत मोकलावो

PDF/HTML Page 6 of 29
single page version

background image
____________________________________________________________________________
वर्ष सत्तरमुं: अंक १२ मो संपादक: रामजी माणेकचंद दोशी आसो: २४८६
____________________________________________________________________________
ज्ञा न द र्प ण
लगभग २प० वर्ष पहेलां जयपुर राज्यमां एक अध्यात्मप्रेमी कवि
दीपचंदजी थई गया, अनुभवप्रकाश, परमात्मापुराण वगेरे अनेक अध्यात्म
ग्रंथोनी रचनाद्वारा तेमणे पोतानो अध्यात्मरस वहेतो मूक््यो छे. तेमनी कथनशैली
केटली सरल, अने छतां केटली असरकारक छे ते ‘अनुभवप्रकाश’ वांचनारने
ख्यालमां हशे. तेमना रचेला पांच ग्रंथोनो संग्रह “अध्यात्म पंच संग्रह” तरीके
प्रसिद्ध थयेल छे, तेमां “ज्ञानदर्पण” पद्यरूपे छे: आ ज्ञानदर्पणमां सम्यग्द्रष्टि संतनी
परिणतिनुं सुंदर महिमाभर्युं वर्णन कर्युं छे. कुल १९६ पद छे, तेमांथी कोई कोई
पदो अर्थ सहित अहीं आपीए छीए–जेथी जिज्ञासु पाठको तेना अध्यात्मरसनुं
आस्वादन करी शके.
निजभावनामें आनंद लीजिए
(कवित)
परम पदारथ को देखे परमारथ हवै, स्वारथ स्वरूपको अनूप साधि लीजिए,
अविनाशी एक सुखराशि सोहे घटहीमें, ताको अनुभौ सुभाव सुधारस पीजिए;
देव भगवान ज्ञानकालको निधान जाको, उरमें अनाय सदाकाल धिर कीजिए,
ज्ञान हीमें गम्य जाको प्रभुत्व अनंतरूप, वेदी निजभावनामें आनंद लहीजिए.ाा ४ाा
भावार्थ:– परम पदार्थने देखतां परमार्थ सधाय छे, माटे तेने देखीने पोताना
निज–प्रयोजनरूप अनुपम स्वरूपने साधी ल्यो अविनाशी एकरूप सुखराशी अंतरमां ज
सोहे छे तेनो अनुभव करीने स्वभाव–सुधारसनुं पान करो.....ज्ञानकळानो निधान एवो
भगवान चैतन्यदेव, तेने अंतरमां लावीने सदाकाळ स्थिर करो....जेनुं अनंत प्रभुत्व
ज्ञानमां ज गम्य छे एवा ते परम पदार्थने वेदीने निजभावनामां आनंद लिजिए.
२०४

PDF/HTML Page 7 of 29
single page version

background image
स....मा....चा....र
परम पूज्य गुरुदेव सुख शांतिमां बिराजे छे. आंखे घणुं सारुं छे, कोई
तकलीफ नथी. भादरवा वद एकमना रोज मुंबईथी डो. चीटनीस तथा डो.
मनसुखभाई सोनगढ आव्या हता, अने पू. गुरुदेवनी आंख फरी तपासीने
नीडलींग (
needling) कर्या बाद गुरुदेव झीणामां झीणा अक्षरो पण स्पष्ट
वांची शके छे. भादरवा वद त्रीजे ज्यारे गुरुदेवे वांचवा–जोवानी प्रेकटीस करी अने
बराबर स्पष्ट वांची–जोई शकायुं त्यारे ए वधामणी सांभळीने सर्वे भक्तोना
हृदयमां घणो आनंद थयो हतो. मोटा मोटा गामोमां आ समाचार तारथी पहोंची
गया हता, अने घणा स्थळेथी खुशाली व्यक्त करता संदेशा आव्या हता. हवे
आसो सुद एकमथी पू. गुरुदेवे शास्त्रोनी स्वाध्याय शरू करी दीधी छे; अने आसो
सुद १प ने मंगळवारथी पू. गुरुदेवना मंगळ प्रवचनो शरू थया छे. गुरुदेवना
प्रवचनो शरू थतां भक्तोने घणो आनंद थयो छे अने घणां दिवसोथी तरसता
जिज्ञासुओना हृदय गुरुदेवनुं अध्यात्म–झरणुं पामीने तृप्त थया छे. ए एक घणा
आनंद समाचार छे. मंगळ प्रवचनो हवे नियमित चालुं रहेशे. प्रवचन शरू
थवाना आ प्रसंगे पूजन–भक्ति वगेरे द्वारा उत्सव ऊजवायो हतो.
आसो सुद पांचमना रोज आफ्रिकावाळा शेठ भगवानजीभाईना
मकानना वास्तु प्रसंगे पू. गुरुदेवे समयसारनी ४१२ मी गाथा उपर अद्भुत
भावभीनुं प्रवचन कर्युं हतुं...जेनो सार आ अंकमां आपवामां आव्यो छे.
सोनगढमां दसलक्षणीपर्व आनंदपूर्वक उजवाया हता; दसलक्षणना दिवसोमां पू.
गुरुदेवना प्रवचनो पण चालु रह्या हता भादरवा सुद पुनमना रोज
जिनमंदिरमां अभिषेक वगेरे विधि थई हती, तथा ते दिवसे रथयात्रा पण
नीकळी हती. सुगंधदशमी दरवर्षनी जेम उल्लासपूर्वक उजवाणी हती.
सावरकुंडला शहेरमां दि. जैनमंदिरनुं शिलान्यास मुहूर्त
आसो सुद दशम ने शुक्रवारना रोज सावरकुंडला शहेरमां दि. जिनमंदिरनुं
शिलान्यास मुहूर्त घणा हर्ष अने उत्साहपूर्वक थयुं हतुं. आ प्रसंगे सावरकुंडलाना
भाई–बहेनोने घणो उल्लास हतो. शिलान्यास पोरबंदरना शेठ श्री नेमिदास
खुशालभाई हस्ते थयुं हतुं. पोताने आवा शुभकार्यनो लाभ मळ्‌यो ते बदल
तेमणे हर्ष व्यक्त कर्यो हतो अने सावरकुंडलाना जिनमंदिर माटे रूा. प००२)
अर्पण कर्या हता. आ प्रसंगे गामना केटलाक प्रतिष्ठित गृहस्थो पण उपस्थित
रह्या हता. आवो धन्य अवसर पोताना आंगणे आव्यो ते माटे शेठश्री
जगजीवनभाई तथा नरभेरामभाई वकील वगेरेए घणो प्रमोद जाहेर कर्यो हती.
दोशी बावचंद जादवजीना सुपुत्रो तरफथी रूा. ११००१) तथा जयंतिलाल
बेचरदास दोशी तरफथी प००१) जिनमंदिर माटे अर्पण करवामां आव्या हता,
आ उपरांत सावरकुंडलाना बीजा अनेक मुमुक्षुओए पण उत्साहपूर्वक पोतानो
फाळो लखाव्यो हतो. घणा वर्षथी भावेली जिनमंदिर माटेनी भावना पूरी थती
होवाथी सावरकुंडलाना मुमुक्षुमंडळने घणो उत्साह हतो आ प्रसंगे भगवाननी
रथयात्रा नीकळी हती, अने आखो दिवस भक्तिनुं उमंगभर्युं वातावरण रह्युं
हतुं. आ मंगलकार्य माटे सावरकुंडलाना मुमुक्षुमंडळने अभिनंदन!

PDF/HTML Page 8 of 29
single page version

background image
आसो: २४८६ : ३ :
आत्मार्थी जीव चैतन्यने जरूर साधे छे
(आत्मार्थ साधवा माटे आत्मार्थी जीवनो उल्लास अने विश्वास
केवो होय? ते गुरुदेव अद्भुत रीते अहीं समजावे छे.)
जेने चैतन्यने साधवानो उत्साह छे तेने चैतन्यना साधक
धर्मात्माने देखतां पण उत्साह अने उमळको आवे छे: अहा! आ
धर्मात्मा चैतन्यने केवा साधी रह्या छे! एम तेने प्रमोद आवे छे,
अने हुं पण आ रीते चैतन्यने साधुं–एम तेने आराधनानो
उत्साह जागे छे. चैतन्यने साधवामां हेतुभूत एवा संतगुरुओने
पण ते आत्मार्थी जीव सर्व प्रकारनी सेवाथी राजानी जेम रीझवे छे
ने संत–गुरुओ तेना उपर प्रसन्न थईने तेने आत्मप्राप्ति करावे छे.
ते मोक्षार्थी जीवना अंतरमां एक ज पुरुषार्थ माटे घोलन छे
के कई रीते हुं मारा आत्माने साधुं?–कई रीते मारा आत्माना
श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रने प्रगट करुं? आत्मामां सतत आवी धून
वर्तती होवाथी ज्यां संत गुरुए तेना श्रद्धा–ज्ञानादिनो उपाय
बताव्यो के तरत ज तेना आत्मामां ते प्रणमी जाय छे. जेम धननो
अर्थी मनुष्य राजाने देखतां ज प्रसन्न थाय छे अने तेने विश्वास
आवे छे के हवे मने धन मळशे ने मारी दरिद्रता टळशे; तेम
आत्मानो अर्थी मुमुक्षु जीव आत्मप्राप्तिनो उपाय दर्शावनारा
संतोने देखतां ज परम प्रसन्न थाय छे...तेनो आत्मा उल्लसी जाय
छे के अहा! मने मारा आत्मानी प्राप्ति करावनार संत मळ्‌या...हवे
मारा संसारदुःख टळशे ने मने मोक्षसुख मळशे. आवो उल्लास
अने विश्वास लावीने, पछी संत–धर्मात्मा जे रीते चैतन्यने
साधवानुं कहे छे ते रीते समजीने पोते सर्व उद्यमथी चैतन्यने जरूर
साधे छे.

PDF/HTML Page 9 of 29
single page version

background image
: ४ : आत्मधर्म: २०४
पंच परमेष्ठी
प्रत्ये बहुमान
(श्री नियमसार गा. ७१ थी ७प उपरना प्रवचनोमांथी: अंक २०२ थी चालु)
धर्मात्माने पोताना चिदानंदस्वरूपना आदरपूर्वक
भगवान पंचपरमेष्ठी प्रत्ये बहुमान होय छे; केमके
आत्मानी पूर्ण शुद्धता ते धर्मात्माने परम ईष्ट छे, तेथी
एवा परम ईष्ट पदने पामेला के तेने साधनारा एवा
जीवो प्रत्ये पण धर्मीने बहुमान आवे छे....अहा! हुं जे
पद प्राप्त करवा मागुं छुं–जे मारुं परम ईष्ट पद छे तेने
आ अरिहंत अने सिद्धभगवंतो पामी चूकया छे, ने आ
आचार्य–उपाध्याय तथा मुनिभगवंतो ते पदने साधी
रह्या छे.–एम पंचपरमेष्ठी प्रत्ये परम भक्ति धर्मात्माने
वर्तती होय छे. साधकने पोतानो आत्मा स्वानुभवथी
कांईक प्रत्यक्ष छे अने कांईक परोक्ष छे. निश्चय
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रमां तो पोताना परम ईष्ट
एवा चैतन्यस्वभावने ज नमे छे ने तेनो ज आदर करे
छे; तेने व्यवहारसंबंधी राग छे तेमां भगवान
अरिहंतदेव वगेरे पंच परमेष्ठीनुं बहुमान– विनय होय
छे. अहीं नियमसार गाथा ७१ थी ७पमां ते पंच
परमेष्ठीनुं स्वरूप श्री कुंदकुंदाचार्यदेव वर्णवे छे,–तेओ
पोते त्रीजा परमेष्ठी पदमां वर्ती रह्या छे ने पंच
परमेष्ठीना बहुमानपूर्वक तेनुं स्वरूप वर्णवे छे.
पंचपरमेष्ठीमांथी पहेला अरिहंतपरमेष्ठीनुं अने बीजा
सिद्धपरमेष्ठीनुं स्वरूप ‘आत्मधर्म’ अंक २०२ मां आवी
गयुं छे; बाकीना त्रण परमेष्ठीनुं–आचार्य, उपाध्याय ने
साधु–नुं स्वरूप अहीं आपवामां आव्युं छे.

PDF/HTML Page 10 of 29
single page version

background image
आसो: २४८६ : प :
(३) आचार्य परमेष्ठीनुं स्वरूप
परिपूर्ण पंचाचारमां, वळी धीर गुणगंभीर छे,
पंचेन्द्रिगजना दर्प दलने दक्ष श्री आचार्य छे. ७३
केवा छे आचार्य–परमेष्ठी? सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञान वगेरे पांच आचारोथी परिपूर्ण छे; पांच
ईन्द्रियोरूपी जे हाथी तेना मदनुं दलन करवामां दक्ष छे–कुशळ छे, धीर छे अने गुणोथी गंभीर छे,–
अगाध गुणोना दरिया छे.–आवुं आचार्यपद परम ईष्ट छे; अहा, केवळज्ञान लेवानी तैयारीमां वर्ततुं
आवुं परम ईष्ट आचार्यपद ते बहुमान योग्य छे, वंदनीय छे. अंतरमां मिथ्यात्वादि परिग्रहरहित अने
बहारमां वस्त्रादि परिग्रह रहित, एवा रत्नत्रय संपन्न मुनिवरो शुद्धोपयोगना बळथी केवळज्ञानने
साधी रह्या छे–वीतरागमार्गमां दरेक मुनिनी आवी दशा होय छे; ते उपरांत विशेष योग्यताथी जेओ
अन्य मुनिओने दीक्षा–शिक्षा वगेरेना देनार छे, एवा जैन–शासनना धूरंधर आचार्यो होय छे.
ते आचार्य भगवंतो ज्ञानादि पंचाचारथी परिपूर्ण होय छे. अहीं ‘ज्ञानाचारथी परिपूर्ण’ एम
कह्युं तेथी केवळज्ञान न समजवुं, परंतु सम्यग्ज्ञानना विनय वगेरे आठ आचारो छे ते समजवा. काळ,
विनय, उपधान, बहुमान, अनिह्मव, अर्थ, व्यंजन अने तदुभयसंपन्न–ए आठ ज्ञानाचारना पालनमां
कुशळ छे तेथी तेओ ज्ञानाचारथी परिपूर्ण छे.
ए ज रीते सम्यग्दर्शनना आठ आचार छे; निशंकता, निःकांक्षपणुं, निर्विचिकित्सा, निर्मूढता,
उपगुहन–उपबृंहण, स्थितिकरण, वात्सल्य अने प्रभावना.
पंचमहाव्रत, ऋणगुप्ति अने पांच समिति ए चारित्रना आचार छे.
अनशन, अवमौदर्य, वृत्ति, परिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त, शय्यासन, कायकलेश,
प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान अने व्युत्सर्ग–ए प्रमाणे बार प्रकारना तपाचार छे.
तथा, ज्ञान वगेरे आचारमां स्वशक्तिने गौपव्या वगर प्रवर्तन ते वीर्याचार छे.
श्री आचार्य महाराज आवा पांच आचारनुं परिपूर्ण पालन करनारा छे. हजी जेने श्रद्धा–
ज्ञाननुं ठेकाणुं न होय, वैराग्यनुं ठेकाणुं न होय, मुनिदशाना मूळगुणोनुं ठेकाणुं न होय तेने आचार्यपद
होतुं नथी. छतां तेवाने जे आचार्य माने ते कुगुरुने माननार छे. अहा! आचार्यपद तो तीर्थंकरनुं
पाडोशी पद छे, केवळज्ञान लेवानी तैयारीमां तेओ झूली रह्या छे.
वळी केवा छे आचार्य परमेष्ठी?
अतीन्द्रिय चिदानंद स्वभावना अवलंबन वडे पांच ईन्द्रियोना मदना चुरेचूरा करी नांख्या छे,
पांचे ईंद्रियो तरफथी संकोचाईने तेमनी परिणति चैतन्य स्वभावमां ढळी गई छे. पहेलां अज्ञानथी के
अस्थिरताथी ईंद्रियविषयो तरफ परिणति जती त्यारे ईंद्रियो मदांध हती. परंतु विषय कषाय रहित
थईने चिदानंदस्वरूपमां ठरतां ईंद्रियविषयो तरफ वलण ज न रह्युं एटले ईंद्रियो रूपी मदोन्मत्त
हाथीना मदना चुरा थई गया. आ रीते पंचेन्द्रियरूपी गजना मदने चूरी नांखवामां आचार्यपरमेष्ठी
समर्थ छे. अतीन्द्रिय आनंद परिणति ठरी त्यां ईंद्रियो जीताई गई.
वळी, अनेक प्रकारना घोर उपसर्ग आवे तेना पर विजय प्राप्त करता होवाथी, एटले के घोर
उपसर्ग वखते पण निज स्वरूपथी डगता नहि होवाथी, आचार्य भगवंतो धीर अने गुणगंभीर छे.
चैतन्यने साधतां साधतां वच्चे अनेक प्रकारनी ऋद्धिओ सहेजे प्रगटी होय, चक्रवर्तीना सैन्यने क्षणमां
हरावी दे एवुं सामर्थ्य प्रगट्युं होय, परंतु चैतन्यना परमानंदना अनुभवनी धूनमां पडेला संतोने ते
ऋद्धि वापरवा उपर लक्ष नथी, घोर प्रतिकूळता आवी पडे तोपण ऋद्धिनो उपयोग करता नथी–एवा
धीर अने गंभीर छे.
साधारण प्राणीओने जराक ऋद्धि मळे त्यां ते जीरवी न शके अने जराक प्रतिकूळता आवी पडे
त्यां तो धैर्यथी च्यूत थई जाय....पण चैतन्यने साधनारा संतो तो महा

PDF/HTML Page 11 of 29
single page version

background image
: ६ : आत्मधर्म: २०४
धीर अने गंभीर होय छे. गमे तेवी ऋद्धि प्रगटो परंतु मारी चैतन्य ऋद्धि पामे तेनी शुं महत्ता छे!
अने गमे तेवी प्रतिकूळताना गंज आवो परंतु मारा चैतन्यमां प्रतिकूळता करवानी कोईनी ताकात
नथी;–एम जाणता धर्मात्मा चैतन्यना अवलंबने घोर उपसर्गने पण जीती ल्ये छे. आ रीते तेओ
गुणगंभीर अने धीर छे.
श्री वादिराजसूरि कहे छे के अहा, आवा गुणगंभीर आचार्योने भक्तिक्रियामां कुशळ एवा अमे
भवदुःखने भेदवा माटे पूजीए छीए. जुओ तो खरा! आचार्यनिदशामां झुलता संत कहे छे के अमे
भक्तिक्रियामां कुशळ छीए....रत्नत्रयना धारक आचार्य भगवंतो प्रत्ये अमने भक्तिनो प्रमोद उल्लसी
जाय छे. रत्नत्रयधारक संतो प्रत्ये के भगवान प्रत्ये ओळखाणपूर्वक जेवी भक्ति धर्मात्माने ऊछळशे
तेवी भक्ति अज्ञानीने नहि आवे, एटले खरेखर रत्नत्रयने ओळखनारा धर्मात्मा जीवो ज
भक्तिक्रियामां कुशळ छे. जेने रत्नत्रयनी के मुनिदशा वगेरेनी खरी ओळखाण ज नथी तेने तेना
प्रत्येनी भक्तिमां कुशळता क््यांथी होय?–न ज होय; एटले जेणे सम्यग्दर्शनादिनुं साचुं स्वरूप जाण्युं
नथी ते भक्ति क्रियामां कुशळ नथी पण ठोठ छे; तेनी भक्ति एकली रागरूप छे, ज्यारे धर्मात्मानी
भक्ति तो वीतरागताना अंश सहित छे.
अहीं कहे छे के भक्तिक्रियामां कुशळ एवा अमे ते आचार्योने पूजीए छीए.–शा माटे? के
भवदुःखराशिने भेदवा माटे–शुं एकली रागरूपभक्तिथी भवराशि भेदाय? ना; भवनुं भेदन तो
वीतरागताथी ज थाय, ने वीतरागता तो स्वसन्मुखताथी ज थाय.–माटे स्वसन्मुखता सहितनी भक्ति
जेने वर्ते छे ते ज भक्तिक्रियामां कुशळ छे. एकली परसन्मुखताथी जे भवनुं भेदन करवा मांगे छे ते
भक्ति क्रियामां कुशळ नथी पण ठोठ छे.
आचार्य भगवंतो अकिंचनताना स्वामी छे. चैतन्यस्वभाव सिवाय बीजुं कांई पण मारुं नथी–
एवी निर्मोह परिणतिनुं नाम ‘अकिंचन’ छे, मुनिवरो एवी अकिंचन परिणतिना स्वामी छे एटले के
एवी निर्मोह–वीतरागी पर्यायरूपे तेओ परिणम्या छे, अने कषायोनो नाश करी नांख्यो छे.
हवे एक सरस वात करे छे: आचार्यो परिणमता ज्ञानना बळवडे महा पंचास्तिकायनी स्थितिने
समजावे छे.–जुओ, शुं कहे छे? ‘परिणमता ज्ञानना बळवडे’ एटले के जीवादिनुं ज्ञान तेमना आत्मामां
परिणमी गयुं छे, एकला शास्त्रज्ञानना बळथी देशना नथी करता, पण पंचास्तिकायना ज्ञानरूपे पोते
परिणमीने, ते परिणमता ज्ञानना बळवडे पंचास्तिकायनुं स्वरूप समजावे छे. आ रीते आचार्योनी
देशना पाछळ परिणमता ज्ञाननुं बळ छे.–एटले के, देशनालब्धिमां ज्ञानरूपे परिणमतो आत्मा ज
निमित्त होय, अज्ञानी निमित्त न होय,–ए वात पण आमां आवी जाय छे.
जुओ, आ आचार्यदशा!! आचार्य सिवायना बीजा मुनिओने पण आ वात लागु पडे छे.
ज्यां ‘परिणमता ज्ञाननुं बळ’ न होय ने रागनुं ज बळ होय (–रागनी ज अधिकता भासती होय)
–त्यां मुनिदशा के आचार्यपद होतुं नथी. जेम अग्निना कणेकणमां उष्णता परिणमी थई छे तेम
मुनिवरो रोमेरोममां जीवादितत्त्वोनुं ज्ञान परिणमी गयुं छे, तेमनी परिणतिनुं ज्ञानबळ एटलुं छे के
जाणे हमणां ज केवळज्ञान लेशे? एमना हाडोहाडमां वीतरागी उपशमभाव फेलाई गयो छे..एना
देदार जुओ तो वैराग्यनी मूर्ति!! एना अंसख्यप्रदेशमां श्रध्धा–ज्ञान–चारित्र वगेरे गुणोना दरिया
उछळे छे.....अतीन्द्रिय आनंदना अनुभवना ओडकार ल्ये छे, चैतन्यस्वरूपमां जोडाण करवा माटे
जेमनी बुद्धि स्थिर छे, स्थिरबुद्धिथी चैतन्यने अवलोकवामां जेओ निपूण छे...आवी परिणतिवाळा
गुणना दरिया आचार्य भगवंतोने अमे भक्तिपूर्वक पूजीए छीए....तेमना चरणकमळमां अमारा
नमस्कार हो.
अहीं आचार्य परमेष्ठीनी स्तुतिमां पद्मप्रभ मुनिराज कहे छे के: आ श्री चंदकीर्ति मुनिनुं
निरूपम चैतन्य परिणमन वंद्य छे.–केवुं छे ते चैतन्य परिणमन? सकळ ईंद्रियोना अवलंबन विनानुं
छे, अनाकुळ छे, स्वहितमां लीन छे, शुद्ध छे, मोक्षना कारणरूप शुक्लध्याननुं ते कारण छे, शांतिनुं धाम
छे, संयमनुं स्थान छे. ज्यां आवुं चैतन्य

PDF/HTML Page 12 of 29
single page version

background image
आसोः२४८६ : ७ :
न्यपरिणमन होय त्यां ज आचार्यपद होई शके. आवा चैतन्यपरिणमनवाळा आचार्य परमेष्ठीने
नमस्कार हो. अहीं एक चंद्रकीर्ति आचार्यनुं नाम लीधु तेमां आवी चैतन्यदशावाळा बधा आचार्योने
नमस्कार आवी जाय छे–एम समजी लेवुं; जेम एक सिद्धने नमस्कार करतां सर्वे सिद्धोने नमस्कार
आवी जाय छे, एक सर्वज्ञने नमस्कार करतां सर्वे सर्वज्ञने नमस्कार आवी जाय छे, तेम आचार्यने
नमस्कार करतां सर्वे आचार्योने नमस्कार आवी जाय छे,–केमके गुणद्रष्टिए तेमनामां एकता छे, एटले
के भेद नथी. एक आचार्यमां बधा आवी जाय छे,–एटले साचा ने खोटा बधा भेगा आवी जाय छे–
एम न समजवुं, परंतु एक आचार्य जेवा ज गुणना धारक बीजा आचार्यो समजवा. आ ७३मी
गाथामां वर्णव्या एवा गुणो जेमनामां होय तेमने ज जैनशासनमां आचार्य परमेष्ठी तरीके
स्वीकारवामां आवे छे, अने “नमो आइरियाणं” मां तेवा ज आचार्योनो समावेश थाय छे. जेओ
एनाथी विरुद्ध होय, ऊंधी श्रद्धावाळा होय, वस्त्रादि परिग्रहवाळा होय एवा जीवोने, भले हजारो
माणसो भेगा थईने आचार्यपदवी आपे तो पण, जैनशासनमां तेमने आचार्य परमेष्ठी तरीके
स्वीकारवामां आवता नथी, ने नमोक्कारमंत्रना त्रीजा पदमां के कोईपण पदमां तेमनो समावेश थतो
नथी. आ वात उपाध्याय अने साधु परमेष्ठीमां पण समजी लेवी.
कोई एम कहे छे के “नमो लोएसव्व साहूणं” मां लोकमां रहेला बधाय साधुओने नमस्कार
कर्या छे एटले जैनना तेमज बीजा बधाय साधुनो तेमां समावेश करवो जोईए;–पण ए वात तद्न
जुठी छे. अरेरे, जैन नाम धरावनार लोकोने हजी नमस्कार मंत्रना खरा अर्थनी पण खबर नथी,
पंचपरमेष्ठीनी शी दशा छे–तेनी पण ओळखाण नथी. जेने हजी रत्नत्रयधर्मनी गंघ पण नथी मोक्षनुं
साधकपणुं रंचमात्र पण प्रगटयुं नथी–एने ते साधु दशा केवी? अने एने पंचपरमेष्ठीमां नमस्कार
केवा? हजी तो सम्यग्दर्शन पण कोई अलौकिक अचिंत्य वस्तु छे, ते पण जैन सिवाय बीजा मतमां
होई न शके–तो पछी सम्यग्दर्शन करतांय घणी ऊंची एवी साधुदशा परम ईष्ट पद–ते तो बीजे होय ज
क््यांथी? अने आचार्य ते तो साधुओना पण शिरोमणि छे.
“आ रीते आचार्यपरमेष्ठीनुं स्वरूप वर्णव्युं; ते आचार्य भगवंतोने अमारा नमस्कार हो.”
(४) उपाध्याय–परमेष्ठीनुं स्वरूप
अरिहंत, सिद्ध अने आचार्य ए त्रण परमेष्ठीनुं स्वरूप कहीने तेमनुं बहुमान कर्युं, हवे चोथा
उपाध्याय परमेष्ठीनुं स्वरूप कहे छे. जेमना प्रत्ये नमस्कार के बहुमान करवुं होय तेनुं स्वरूप ओळखवुं
जोईए केमके स्वरूपने जाण्या वगर तो खबर नथी पडती के हुं कोनुं बहुमान करुं छुं?–माटे, स्वरूपने
ओळखे तो ज खरुं बहुमान आवे. केवा छे उपाध्याय–परमेष्ठी? –
रत्नत्रये संयुक्त ने निःकांक्षभावथी युक्त छे,
जिनवरकथित अर्थोपदेशेशुर श्री उवझाय छे. ७४
उपाध्याय–परमेष्ठी रत्नत्रयथी संयुक्त छे, जिनवरदेवे कहेला पदार्थोना शूरवीर उपदेशक छे
अने निष्कांक्षभावथी सहित छे. टीकाकार मुनिराज कहे छे के, आवा उपाध्याय भगवंतोने हुं फरीफरीने
वंदुं छुं. आचार्य, उपाध्याय अने मुनि ए त्रणेय परमगुरु छे.
आचार्यने पंचाचारथी परिपूर्ण कह्या तेमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र आवी ज गया.
उपाध्यायने रत्नत्रय–संयुक्त कह्या तेमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र आव्या. अने
साधुने चतुर्विध आराधनामां रत कहेशे, तेमां पण सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र आवी गया.
आ रीते सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते गुरुनुं मूळस्वरूप छे, अने सर्वज्ञता ते देवनुं (–अरिहंत
अने सिद्धनुं) मूळस्वरूप छे. सर्वज्ञता वगर अरिहंत के सिद्धपद नहि, अने रत्नत्रय वगर आचार्य,
उपाध्याय के साधुपद नहि. आम देव–गुरुना वास्तविक स्वरूपने ओळखे तो पोतामां पण भेदज्ञान
थाय ने देव–गुरुनुं अलौकिक बहुमान आवे. जो के देव–गुरुना बहुमाननो विकल्प ते पण राग छे,

PDF/HTML Page 13 of 29
single page version

background image
: ८ : आत्मधर्म: २०४
परंतु ओळखाण–पूर्वकनुं जेवुं परम बहुमान ज्ञानीने आवशे तेवुं अज्ञानीने नहीं आवे. एटले
पंचपरमेष्ठीनी भक्तिमां खरेखर कुशळता ज्ञानीने ज होय छे.
आ उपाध्याय–परमगुरुनुं वर्णन छे. अहा, उपाध्याय पद पण अलौकिक छे. साधारण संस्कृत–
प्राकृत वांचीने के शास्त्रो वांचीने उपाध्यायपणुं मानी बेसे ते कांई खरुं उपाध्याय–पद नथी, ते तो
उपाधि छे. रत्नत्रयने साधनारा मुनिओ पण जेमनी पासे शास्त्र भणे–एवुं उपाध्याय पद छे. ते
उपाध्याय सौथी पहेलां तो परम चिद्रूपनां श्रद्धान–ज्ञान ए आचरण रूप निश्चय–रत्नत्रयवाळा होय
छे. ते उपरांत भगवान जिनेन्द्रदेवे जेवा जीवादि पदार्थो कह्या छे तेना उपदेशमां तेओ शूरवीर छे,
यथार्थ तत्त्वथी विपरीत वातने युक्तिना बळथी, आगमना बळथी ने अनुभवना बळथी तेओ तोडी
नांखे छे. भवभ्रमणनो जेमने भय छे ने जिनेन्द्र मार्गना जेओ उपासक छे एवा उपाध्यायनो उपदेश
भगवाननी वाणी अनुसार ज होय छे–जाणे के जिनेन्द्र भगवान ज तेमना हृदयमां बेसीने बोलता
होय! जिनेन्द्र भगवाने कहेला तत्त्वोनुं स्वरूप शुं छे तेनी जेने ओळखाण न होय ते तेना उपदेशमां
शूरवीर क््यांथी होय? न ज होय. एटले के अज्ञानीनो उपदेश यथार्थ न होय, ज्ञानी ज भगवाने
कहेला तत्त्वना उपदेशमां कुशळ होय, अने तेमां पण उपाध्याय तो बधा पडखेथी उपदेशमां शूरवीर छे
जो के उपदेशनी वाणी तो जड छे, ते जड छे, ते कांई आत्मानुं कार्य नथी परंतु उपाध्यायने ते प्रकारना
ज्ञाननो विशेष क्षयोपशमभाव होय छे–तेम अहीं बताववुं छे.
वळी ते–उपाध्याय निष्कांक्षभावना सहित होय छे.–कई रीते? के समस्त परिग्रहना परित्याग–
स्वरूप जे निरंजन निज परमात्म तत्त्व तेनी भावनाथी उत्पन्न थता परम वितराग सुखामृतना
पानमां सन्मुख होवाथी ते उपाध्याय परमेष्ठी समस्त कांक्षाथी रहित छे. चैतन्यसुख पासे जगतना
कया सुखनी वांछा होय? परमात्मतत्त्वनी भावनाथी जेओ वीतरागी सुखने अनुभवी रह्या छे एवा
संतोने संसारना सुखोनी (विषयोनी) वांछा केम होय?–न ज होय.–ए रीते तेओ निष्कांक्ष छे,
जगतथी निस्पृह छे.
जेनो आत्मा रत्नत्रयमय छे, आत्मा पोते ज रत्नत्रयरूप परिणमी गयो छे, अने रत्नत्रयमय
होवाथी जेओ शुद्ध छे, मिथ्यात्वादि भावो अशुद्ध छे तेनो तेमने अभाव छे, वळी जेओ भव्य कमळना
सूर्य छे–जेमनो वीतरागी उपदेश झीलतां भव्य जीवोरूपी कमळ विकसी जाय छे, अने जेओ
वीतरागमार्गना उपदेशक छे, एवा जैन–उपाध्याय परमेष्ठीने फरी फरीने वंदन हो.
आ रीते उपाध्यायनुं स्वरूप कह्युं; हवे पांचमा परमेष्ठीनुं स्वरूप कहे छे.
(प) साधु परमेष्ठीनुं स्वरूप
निर्ग्रंथ छे, निर्मोह छे, व्यापारथी प्रविमुक्त छे, चउविध आराधन विषे नित्यानुरकत श्री
साधु छे. ७प. जैनमार्गमां साधुओ केवा होय छे?–के व्यापारथी विमुक्त होय छे,–मंदिर वगेरेनी
व्यवस्था करवी, पुस्तको छपाववानी के वेचवानी व्यवस्था करवी–एवा प्रकारनी प्रवृत्तिओनो व्यापार
मुनिओनो होतो नथी; तेमने तो एक चैतन्यनो व्यापार छे–चैतन्यमां ज उपयोगने वारंवार जोडे छे,
बीजा व्यापारथी तेओ रहित छे; अने चतुर्विध आराधनामां तेओ सदा रक्त छे,–सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्र अने तपमां तेओ पोतानो पुरुषार्थ जोडया ज करे छे; वळी तेओ निर्ग्रंथ छे–मिथ्यात्वादि
परिग्रहनी गांठ जेमने नथी, तेमज वस्त्रादि परिग्रह पण जेमने नथी; तथा तेओ निर्मोंह छे.–आवा
साधुओ होय छे.
भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे आ नियमसारनी ७१ थी ७प पांच गाथाओमां पचंपरमेष्ठीनुं
स्वरूप बताव्युं छे, तेमां–
(७१) अरिहंता एरिसा होंति (अरिहंतो आवा होय छे.)
(७२) सिध्धा एरिसा होंति (सिद्धो आवा होय छे)
(७३) आयरिया एरिसा होंति (आचार्यो आवा होय छे)

PDF/HTML Page 14 of 29
single page version

background image
आसो : २४८६ : ९ :
(७४) उवज्झाया एरिसा होंति (उपाध्यायो आवा होय छे)
(७प) साहू एरिसा होंति (साधुओ आवा होय छे)
–ए रीते दरेक पदमां “एरिसा होंति” एम कहीने, जाणे के पांचे परमेष्ठी भगवंतो साक्षात्
सन्मुख ज–नजर सामे प्रत्यक्ष वर्तता होय–एवुं वर्णन कर्युं छे.
“जुओ, आ रह्या अर्हंतो, आ रह्या सिद्धो, आ रह्या आचार्यो, आ रह्या उपाध्यायो, ने आ
रह्या साधुओ!” आ रीते पंच परमेष्ठी भगवंतो एरिसा होंति–एम जाणे आचार्यदेव साक्षात् देखाडी
रह्या छे. पोते विदेहक्षेत्रे जईने बधुं साक्षात् जोई आव्या छे एटले जाणे बधुं नजरे तरवरतुं होय–एवुं
अद्भुत कथन आचार्यभगवाने कर्युं छे.
नमो लोए सव्वसाहूणं” एटले के लोकना सर्व साधुओने नमस्कार हो.–आ नमस्कारमां केवा
साधु आवे? जगतना बधाय साधुओ आवे, ए वात खरी, परंतु ते साधु होवा जोईए ने! कुसाधु तो
तेमां न ज आवे.–जो कुसाधुने साधु मानीने नमस्कार करे तो तो मिथ्यात्व छे. ‘नमो लोए सव्व
साहूणं’ मां आवनारा साधु केवा होय ते अहीं समजाव्युं छे. निर्ग्रंथ होय, निर्मोह होय, संसारसंबंधी
समस्त व्यापारथी रहित होय अने चार आराधनामां सदाय तत्पर होय–ते साधु छे, ते मोक्षना साधक
छे. वस्त्रादि सहित पोताने साधुपणुं माने ते तो संसारना साधक छे, ते मोक्षना साधक नथी एटले
साधु नथी. भले द्रव्यलिंग (दिगंबरदशा, पंचमहाव्रतादि शुभराग) धारण करेल होय, परंतु जो
रागमां धर्म मानीने अटक्यो ने रागथी पर एवा चैतन्यने न साध्यो तो ते पण संसारतत्त्व ज छे–
एम प्रवचनसारमां आचार्यदेवे कह्युं छे. ‘साधु’ तो तेने कहेवाय जे मोक्षने साधे. सम्यग्दर्शन,
सम्यग्ज्ञान ने सम्यक्चारित्र ए त्रणने ‘साधु’ कहेवाय छे केम के ते मोक्षना साधक छे. अने जेओ
एवा साधु–भावने (सम्यग्दर्शनादिने) धारण करे छे तेओ ‘साधु’ छे, तेओ सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्रवडे मोक्षने साधी रह्या छे. सम्यग्दर्शन पण मोक्षनुं साधक होवाथी समकितीने पण ते
साधकअंशनी अपेक्षाए तेटलुं साधुपणुं कहेवाय, परंतु पंचपरमेष्ठीपदना साधुपणामां ते न आवे.
परमेष्ठीपद तो ज्यां सम्यग्दर्शन–ज्ञान उपरांत चारित्रदशा प्रगटी होय त्यां ज होय छे, ने त्यांज
रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग छे. एकला आत्मज्ञानथी के सम्यग्दर्शनथी मुनिपणुं नथी, परंतु आत्मज्ञान
अने सम्यग्दर्शन उपरांत स्वरूपमां स्थिरतारूप चारित्रदशा होय त्यारे ज मुनिपणुं होय छे. एटलुं खरूं
के आत्मज्ञान होय तो ज मुनिपणुं होई शके. आत्मज्ञान वगर तो मुनिपणुं होय ज नहि–ए नियम
छे. आत्मज्ञान होय छतां मुनिपणुं न होय, अगर होय पण खरुं,–एटले तेमां कोई नियम नथी.
नमो लोए सव्व साहुणं’ मां आ बधुं आवी जाय छे पण मोटा भागना लोको तो वस्तुस्वरूप
समज्या वगर मात्र पाठ गोखी जाय छे. एक साधुना स्वरूपने ओळखे तोपण भेदज्ञान थई जाय तेवुं
छे, पंच परमेष्ठीमांथी कोईना स्वरूपने ओळखे–अरे! सम्यग्द्रष्टिना स्वरूपने ओळखे तोय जीवने
अंतरमां पोताना वास्तविक स्वभावनुं लक्ष थई जाय.....ने पोते पण तेमनी जातमां भळी जाय.
‘सजात’ थया विना, एटले के तेमनी ज जातनो अंश पोतामां प्रगट कर्या विना, अरिहंत वगेरेना
स्वरूपनो खरो निर्णय थई शकतो नथी. आहा! आमां पण निश्चय व्यवहारनी अद्भुत संधि छे.
जैनशासननुं रहस्य अंतर्मुख–स्वसन्मुख थवाथी ज समजाय छे.....मोक्षमार्गनी पण ए ज रीते छे.
जेओ अंर्तस्वभावनी सन्मुख थईने चैतन्यनी साधनामां रत छे तेओ ज साधु छे. जेओ चैतन्यमां
रत न होय ने रागमां के परद्रव्यना परिग्रहमां रत होय तेने साधुपणुं क््यांथी होय? परद्रव्यमां ने
परभावमां लीन रहेनार जीव स्वपदने क््यांथी साधे? जैनशासनमां बधाय साधुओ स्वपदने
साधवामां तत्पर होय छे; तेमां कोई साधु सातमे गुणस्थाने निर्विकल्प आनंदमां बिराजता होय, ने
कोई साधु छठ्ठा गुणस्थाने सर्विकल्पदशामां वर्तता

PDF/HTML Page 15 of 29
single page version

background image
: १० : आत्मधर्म: २०४
होय, एटले कोई साधु शुद्धोपयोगमां वर्तता होय ने कोई साधु शुभोपयोगमां पण वर्तता होय, एवा
प्रकारना भेद होय, परंतु कोई साधु वस्त्ररहित दिगंबर होय अने कोई साधु वस्त्रसहित पण होय–
एवा प्रकारना भेद तो जैनशासनना साधुओमां नथी. अंतरमां तेमज बाह्य निर्गंथदशा वगर कोई
जीव जैनशासनना ‘नमो लोए सव्व साहूणं’ पदमां आवी शके नहीं. साधुपणुं ए तो जैनशासननुं
परम–ईष्ट परमेष्ठी पद छे.
जैनशासनना साधु केवा होय? ए वात स्वयं साधुदशामां वर्ती रहेला कुंदकुंदाचार्य अने
पद्मप्रभमुनिराज समजावी रह्या छे. जैनशासनना साधुओ तो परम संयमी महापुरुषो होवाथी
त्रिकाळ निरंजन निरावरण परम पंचमभावनी भावनामां परिणमेला होय छे अने समस्त
बाह्यव्यापारथी विमुक्त होय छे. जुओ, आ महापुरुषनुं कार्य! सौथी श्रेष्ठ–महान एवो जे पोतानो
परम पंचमस्वभाव तेनी भावना ए ज महापुरुषोनुं कर्तव्य छे. ए सिवाय रागनी के बाह्यविषयोनी
भावना ए तो तूच्छजीवोनुं एटले के मिथ्याद्रष्टिओनुं कार्य छे. महापुरुष एवा मुनिवरो तो अंतरमां
चिदानंदस्वभावनी भावनामां परिणमी गया छे. वळी ते साधुओ ज्ञान–दर्शन–चारित्र अने चतुर्विध
आराधनामां सदा अनुरक्त छे; बाह्य–अभ्यंतर समस्त परिग्रह रहित होवाथी निर्ग्रंथ छे; अने
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रथी विरुद्ध एवा मिथ्यादर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप जे मोह तेनो अभाव होवाथी
मुनिओ निर्मोह छे. आवा निर्ग्रंथ–निर्मोह मुनिवरो मोक्षनी साधनामां ज तत्पर छे, जगतना स्त्री
आदि पदार्थोने अवलोकवानुं कुतूहल तेमने रह्युं नथी, तेओ तो वीतराग थईने अतीन्द्रिय आनंदरूप
एवी जे मुक्तिसुंदरी तेनी अनुपमता अवलोकवामां ज कुतूहलबुद्धिवाळा छे, एटले के मोक्ष सिवाय
बीजुं कांई तेमने प्रिय नथी, मोक्षने साधवा सिवाय बीजे क््यांय तेमनी बुध्धि भमती नथी. आवा
साधुओ अल्पकाळमां ज मोक्षसुखने साधे छे. तेमनुं बहुमान टीकाकार मुनिराज कहे छे, भववाळा
जीवोना भवसुखथी जे विमुख छे अने सर्वसंगना संबंधथी जे मुक्त छे, एवुं ते साधुनुं मन अमने
वंद्य छे. हे साधु! ते मनने शीघ्र निजात्मामां मग्न करो...समग्रपणे अंतरमां मग्न करीने शीघ्र
केवळज्ञान पामो. खरेखर तो पोते साधुपदमां वर्ते छे ने पोताना आत्माने संबोधीने कहे छे के अरे
आत्मा तें मुनिदशा तो प्रगट करी....हवे तारा उपयोगने शीघ्र आत्मस्वभावमां मग्न करीने तुं
केवळज्ञान प्रगट कर. तुं केवळज्ञाननो साधक थयो....हवे चैतन्यमां लीन थईने जलदी केवळज्ञानने
साध.
हे सिध्धपदना साधक साधु–परमेष्ठी! तारा चैतन्यपरिणमनने मारा नमस्कार हो.......
आ रीते बहुमानपूर्वक भगवान पंच–परमेष्ठीनुं वर्णन पूरुं थयुं.....ते परमेष्ठी भगवंतो
अमारुं कल्याण करो....तेमने नमस्कार हो.
नमो अरिहंताणं।
नमो सिद्धाणं।
नमो आइरियाणं।
नमो उवज्झायाणं।
नमो लोए सव्वसाहूणं।

PDF/HTML Page 16 of 29
single page version

background image
अनंत शक्तिसंपन्न
चैतन्यधाम

–तेने ओळखी, तेनो अचिंत्य महिमा लावी,
तेनी सन्मुख थाओ. चैतन्यमां बेहद ताकात छे,
अनंत शक्तिसंपन्न तेनो अचिंत्य महिमा छे; तेनी
शक्तिओने ओळखे तो तेनो महिमा आवे ने जेनो
महिमा आवे तेमां सन्मुखता थया विना रहे नहीं.–
आ रीते स्वसन्मुखता थतां अपूर्व सुख–शांति ने
धर्म थाय छे. आवी स्वसन्मुखता कराववा माटे
आचार्य भगवाने चैतन्यशक्तिनुं अद्भुत वर्णन
कर्युं छे. तेना उपर पू. गुरुदेवनां अध्यात्मरसभीनां
प्रवचनोनुं केटलुंक दोहन गतांकमां आवी गयुं छे,
त्यार पछी विशेष अहीं आपवामां आव्युं छे. आ
४७ शक्तिनां विस्तृत प्रवचनो ‘आत्मप्रसिद्धि”
नामना पुस्तकरूपे प्रसिद्ध थई गया छे,
जिज्ञासुओने ते वांचवा भलामण छे.
अनंतशक्तिथी परिपूर्ण चैतन्यतत्त्व छे तेनी सन्मुख थईने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप जे
निर्मळ पर्याय प्रगटे ते पर्यायनी अभेदता सहित चैतन्यतत्त्वने ‘समयसार’ कहे छे आवी दशाथी
आत्मानुं जीवन ते ज साचुं जीवत्व छे. एवुं जीवत्व जेणे जाण्युं तेणे साचुं जीवनसंशोधन कर्युं, ते धर्मी
थयो, तेनुं जीवन सुखी थयुं.
भाई, तारा सुखी जीवननुं कारण तारी चैतन्यशक्ति ज छे, बीजुं कोई कारण नथी. जुओ, आ
सम्यग्दर्शननी पद्धति कहेवाय छे. ४७ शक्तिना वर्णनद्वारा जे चैतन्यपिंड बताव्यो तेनी सन्मुख थतां
सम्यग्दर्शनादि प्रगटीने घातिकर्मोनी ४७ प्रकृतिनो क्षय करीने जीव केवळज्ञान पामे छे, ते सर्वज्ञ थाय
छे, सर्वदर्शी थाय छे, परम सुखी थाय छे, अनंतवीर्यसंपन्न थाय छे, परम स्वतंत्र प्रभुताथी ते शोभी
ऊठे छे, ने ते ज सादि–अनंत निश्चयजीवन परम आनंद सहित जीवे छे. सम्यग्दर्शन वगरना जीवनने
ज्ञानीओ खरुं जीवन कहेता नथी, ए तो दुःखमय जीवन छे, तेमां चैतन्यनी दशा हणाय छे;–एवा
जीवनने जीवन केम कहेवाय?
अहा! चैतन्यदरियामां केवा केवा रत्नो पड्या

PDF/HTML Page 17 of 29
single page version

background image
: १२ : आत्मधर्म: २०४
छे, ने केवा केवा निधान भर्या छे तेनी अज्ञानीओने खबर नथी. जे चैतन्यनिधानने लक्षमां लेतां ज
अनुकूळ सुखनो अनुभव थाय–एवां निधान पोतामां छे, तेनी प्रतीत करवी ए ज सम्यग्दर्शननी
पद्धति छे. चैतन्यनी एक ज्ञानशक्तिना गर्भमां सर्वज्ञतानी व्यक्ति थवानी ताकात छे.–ए ताकातनो
विश्वास कोण करे? जेने रागनी अधिकता भासे तेने चैतन्यनी ताकातनो विश्वास नथी. रागने तोडीने
सर्वज्ञताने पामे–एवी चैतन्यनी ताकात छे. ते ताकातथी भिन्न रहीने तेनी प्रतीत थई शकती नथी पण
तेनी सन्मुख थईने, तेमां तन्मय थईने तेनी सम्यक् प्रतीति थाय छे. ए ज सम्यग्दर्शन छे, ए ज
सुखनो अने सत्य जीवननो उपाय छे.
ईंद्रियोथी जे लाभ माने छे, जड इंद्रियोने ज्ञाननु्रं साधन माने छे, के ईंद्रियविषयोमां जे सुख
माने छे ते मूढ जीव जडने आधीन पोतानुं जीवन माने छे, जडथी भिन्न पोताना अतीन्द्रिय–
चैतन्यजीवनने ते जाणतो नथी, एटले ते तो जड जीवन जीवे छे. चिदानंद स्वभावनी सन्मुख थईने
ज्ञानीए ईंद्रियोनुं अवलंबन तोडी नाख्युं छे एटले जडजीवनने उडाडी दीधुं ने चैतन्यनुं आनंदमय
जीवन प्राप्त कर्युं छे.
दुनियाना जीवो सुखनी झंखना करे छे......कोई रीते सुख मळे?–क््यांयथी सुख मळे? एम
बधाय जीवो ईच्छे छे. आचार्यप्रभु कहे छे के हे जीवो! तमारा आत्मामां ज सुखशक्ति भरेली छे, तेनी
सन्मुख थवाथी तेमांथी ज सुख मळशे.....ए सिवाय बीजी कोई रीते जगतमां बीजे क््यांयथी सुख
मळी शके तेम नथी. सुख शुं आत्मामां नथी ने बहारथी आववानुं छे? ना; पोतानुं सुख बहारमां
शोधवुं पडे तो तो पराधीनता थई.....पराधीनतामां तो दुःख होय, सुख न होय. पोताना स्वभावमां
ज सुख छे, ने ते स्वभावमां सन्मुख थतां ज स्व–आधीनताथी सुख प्रगटे छे, ते सुखमां जगतना
बीजा कोई पदार्थनी अपेक्षा नथी, आत्माना स्वभावथी ज ते सुख स्वयंसिध्ध छे. जेम तेमां बहारना
पदार्थोनी अपेक्षा के मदद नथी तेम तेमां कोई वडे बाधा के विघ्न पण थई शकतुं नथी. ए रीते ते सुख
स्वाधीन छे.
आत्मा विशुद्ध–ज्ञानस्वरूप छे; ते परद्रव्योमांथी कांई लाभ ल्ये, के परने कांई लाभ आपे–एवुं
तेना स्वरूपमां नथी. एटले परमां कांई पण सुख छे ए मान्यता भ्रमभरेली छे; अने परतरफना
झूकावथी जे रागद्वेषनी वृत्तिओ थाय छे ते पण आकुळतामय छे, तेमां पण सुख नथी.–सुख छे क््यां?
भाई, अंतरतत्त्वना निधानमां ज तारो आनंद भर्यो छे.–तेमां सन्मुख थतां आत्मा पोते सुखरूपे
परिणमी जाय छे, पोते स्वयमेव छ कारकरूप थईने सुखपणे परिणमी जाय छे, बीजा कोईनी तेने
अपेक्षा नथी, भाई, अंतरमां डोकियुं करीने तारा आत्मानुं मंथन तो कर; तारो सुखस्वभाव अंतरमां
छे तेनुं शोधन तो कर. तेमां तने कोई अपूर्व सुख ने अपूर्व आनंद अनुभवाशे. आवो आनंदनो
अनुभव थाय तेने जिनेश्वरभगवान जैनधर्म कहे छे.
भगवान कहे छे: अरे जीव! अमे तने तारी किंमत करावीए छीए. तारी किंमत केटली बेहद छे
तेनी तने खबर नथी, पण तारामां एवुं बेहद अचिंत्य सामर्थ्य छे के एक क्षणमां आखाय विश्वने
ज्ञानमां ज्ञेयपणे पी जाय.....ने आखा जगतथी निरपेक्ष रहीने पोते पोताना परम आनंदने अनुभवे.
जे आनंदना एक कणिया पासे त्रण जगतनो वैभव पण तूच्छ भासे.–आवी तारा आत्मानी किंमत
एटले के महिमा छे. पण तुं तारी किंमत भूलीने, तने नमालो मानीने, रागथी ने देहनी क्रियाथी तारी
किंमत के महिमा माने छे, तारी ए मान्यता ज तने संसारमां रखडावे छे. अमे तने कहीए छीए के
सर्वज्ञतानी ने पूर्णानंदनी शक्ति तारामां भरी छे, अर्हंतोमां जेटली ताकात व्यक्त थई तेटली बधीय
ताकात तारामां पण भरी ज छे. अर्हंतो अने सिध्धो करतां तारा आत्मानी किंमत जराय ओछी नथी.
अर्हंतोमां अने आ आत्माना स्वभावमां जे किंचित् फेर माने ते मिथ्याद्रष्टि–आत्मघातकी छे. जेनी
किंमत होय तेटली बराबर आंके तो तेनुं बराबर ज्ञान अने बहुमान कर्युं कहेवाय. करोडपति माणसने
गरीब–हजार रूा. नी मुडीवाळो ज माने

PDF/HTML Page 18 of 29
single page version

background image
आसो: २४८६ : १३ :
तो तेणे खरेखर करोडपति ओळख्यो नथी, तेनुं बहुमान कर्युं नथी पण अपमान कर्युं छे. तेम
कैवल्यपति सर्वज्ञस्वभावी आनंदनिधानथी भरपूर आत्मा छे, तेने जे अल्पज्ञस्वरूप माने, रागी
माने, तेनुं सुख परमां माने, ते खरेखर आत्माने ओळखतो नथी, ते आत्मानुं बहुमान नथी करतो
पण अपमान करे छे. मोटा राजाने भीखारी माने तो तेमां राजानुं घोर अपमान छे ने तेनी शिक्षा
जेल छे, तेम महामहिमावंत चैतन्यराजाने परमांथी सुखनी भीख मांगनार मानवो तेमां चैतन्य
महाराजनुं घोर अपमान छे ने तेनी शिक्षा संसाररूपी जेल छे. भाई, तारे आ संसाररूपी जेलमांथी
छूटवुं होय तो तारा चैतन्यराजाने बराबर ओळखीने तेनुं बहुमान कर. संतो पोकारी–पोकारीने तने
तारी प्रभुता बतावे छे, तेने ओळख; तारी प्रभुतानी ओळखाणथी तुं प्रभु थईश.
जे जीव रागथी लाभ माने छे ते चैतन्य करतां रागने महत्ता आपे छे, एटले पोताना
चैतन्यनी प्रभुताने पाटु मारीने पामरताने सेवे छे, एटले पामरपणे परिभ्रमण करे छे. अहीं संतो
तेने करुणाथी समजावे छे के अरे जीव! तारुं चैतन्यतत्त्व स्वतंत्रपणे शोभी ऊठे एवी तारी प्रभुता
छे. अखंड शक्तिथी भरपूर तारी अखंड प्रभुता छे. तेमां ज तारुं समकित ने शांति छे; बीजे क््यांय
शोध्ये ते मळे तेम नथी. तारा सम्यकत्वनी, केवळज्ञाननी ने परमआनंदनी रचना स्वतंत्रपणे करे एवुं
तारुं प्रभुतानुं सामर्थ्य छे.–आवा प्रभुत्वने तुं जो.
“धर्मनुं मूळ सर्वज्ञ छे”–आत्मानो सर्वज्ञ स्वभाव छे, तेनी प्रतीत करीने निर्विकल्पधाराथी
केवळज्ञान प्रगट करीने जेओ सर्वज्ञ थया, तेमनी वाणीमां धर्मनुं स्वरूप उपदेश्युं–ए रीते भगवान
सर्वज्ञदेव धर्मना प्रणेता छे. जेने आवा सर्वज्ञनो निर्णय कर्यो नथी तेने धर्म थतो नथी. सर्वज्ञनो
निर्णय करनारने पोताना आत्मामां भरेली सर्वज्ञशक्तिनो अनुभव थई जाय छे.
निज आत्मामां सर्वज्ञ शक्तिनो आ काळे ने आ क्षेत्रे पण अनुभव थई शके छे. आ क्षेत्रे अने
आ काळे परिणमेला सर्वज्ञनो विरह छे, परंतु सर्वज्ञत्वशक्ति तो अत्यारे पण आत्मामां पडी ज छे.
अने आत्मानी सर्वज्ञशक्तिनी जे प्रतीत करे तेने व्यक्त सर्वज्ञ परमात्मानी प्रतीत पण थाय ज.
कोई नास्तिक एम कहे के ‘सर्वज्ञ नथी’ तो आचार्य तेने पूछे छे के हे भाई! सर्वज्ञ क््यां
नथी? आ काळे ने आ क्षेत्रे ज सर्वज्ञ नथी? के सर्व काळे ने सर्व क्षेत्रे सर्वज्ञ नथी?
जो तुं एम कहे के ‘आ काळे आ क्षेत्रे ज सर्वज्ञ नथी,’–तो तेना अर्थमां एम आवी ज गयुं के
आ सिवाय बीजा काळे ने बीजा क्षेत्रे सर्वज्ञ छे.
अने जो तुं एम कहे के सर्वकाळे अने सर्व क्षेत्रे सर्वज्ञनो अभाव छे–तो अमे तने पूछीए
छीए’ के शुं तें सर्वकाळ अने सर्वक्षेत्रने जाण्या छे?–जो जाण्या छे तो तो तुं ज सर्वज्ञ थयो! (एटले
‘सर्वज्ञ नथी’ एवुं तारुं वचन ‘मारी माता वंध्या छे’–एना जेवुं स्ववचन बाधित थयुं) अने जो तुं
कहे के ‘सर्व क्षेत्र अने सर्व काळने जाण्या वगर हुं सर्वज्ञनो निषेध करुं छुं’–तो ते पण योग्य नथी केमके
एवा बीजा क्षेत्रो (विदेहक्षेत्र) छे ज्यां सर्वज्ञ भगवंतो सदाय बिराजे छे, तेने जाण्या वगर सर्वज्ञनो
निषेध ताराथी केम थई शके? तें न जाण्या होय एवा क्षेत्रमां सर्वज्ञ भगवंतो बिराजे छे. वळी हे मूढ!
जो सर्वज्ञ न होय तो सूक्ष्मदूरवर्ती अने अतीन्द्रिय पदार्थोने कोण जाणे? सर्वज्ञनो अभाव मानतां
अतीन्द्रिय पदार्थोनो पण अभाव थई जशे. राग घटतां घटता तेनो तद्न अभाव पण थई शके छे,
ज्ञान वधतां वधतां ते पूर्णताने पामी शके छे धर्मात्माने स्वसंवेदनथी पोताना श्रद्धा–ज्ञानमां
सर्वज्ञस्वभावनो निर्णय थई गयो छे. स्वसंवेदनथी निज आत्मामां सर्वज्ञशक्तिनो अनुभव आ काळे
ने आ क्षेत्रे पण थई शके छे.–अने जेणे एवो अनुभव कर्यो ते ज्ञानमां सर्वज्ञनो सद्भाव थयो, ने
धर्मनी शरूआत थई. आ रीते अंतरमां सर्वज्ञस्वभाव ते धर्मनुं मूळ छे.

PDF/HTML Page 19 of 29
single page version

background image
: १४ : आत्मधर्म: २०४
आत्माने साधवा माटे मोक्षार्थीए शुं करवुं?
(वीर सं. २४८प
वैशाख सुद पांचम)
दक्षिणना तीर्थधामनी उमंगभरी यात्रा करीने पाछा
फरतां वच्चे देहगाम मुकामे पू. गुरुदेव पधार्या....त्यारे
देहगामना जैनसमाजे उत्साहथी स्वागत करीने, मोटी
संख्यामां पू. गुरुदेवना प्रवचननो लाभ लीधो हतो. ते
प्रवचननो सार अहीं आपवामां आव्यो छे. आत्मस्वरूपने
समजवानी खास प्रेरणा पू. गुरुदेवना प्रवचनमां तरी आवे
छे......आत्मस्वरूपने कई रीते साधवुं–ते वात आचार्य
भगवंतोए समयसार गाथा १७–१८ मां बहु सरस रीते
समजावी छे तेना उपरनुं आ प्रवचन छे. आत्मार्थीताना रसथी
झरतुं आ प्रवचन दरेक जिज्ञासुने जरूर आनंदित करशे.
देहथी भिन्न आत्मतत्त्व शुं चीज छे ते जाण्या विना जीव अनादिथी संसारमां परिभ्रमण करी
रह्यो छे. ते परिभ्रमण केम टळे तेनी आ वात छे. आचार्यदेव कहे छे के बीजी चिंताथी तो बस थाओ,
परंतु आत्मामां भेदना विकल्पोरूप चिंताथी पण साध्यआत्मानी सिद्धि नथी एटले के आत्मानो
अनुभव थतो नथी. साध्यआत्मानी सिद्धि तो सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रथी ज थाय छे, बीजी रीते थती
नथी. माटे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र वडे शुद्धआत्माने सेववो (आराधवो, अनुभववो) ते ज
मोक्षार्थीजीवनुं प्रयोजन छे. मोक्षार्थीए पोतानुं आवुं प्रयोजन सिद्ध करवा माटे शुं करवुं ते वात
आचार्यदेव द्रष्टांत आपीने समजावे छे.–(समयसार गाथा १७–१८)
जयम पुरुष कोई नृपतिने जाणे,
पछी श्रद्धा करे,
पछी यत्नथी धन–अर्थी ए
अनुचरण नृपतिनुं करे.
जीवराज एमज जाणवो,
वळी श्रद्धवो पण ए रीते,
एनुं ज करवुं अनुचरण
पछी यत्नथी मोक्षार्थीए.
जेम धननो अर्थी पुरुष धनने माटे राजानी सेवा करे छे तेम मोक्षना अभिलाषी मोक्षार्थी जीवे
मोक्षने माटे चैतन्यराजानुं सेवन करवुं.–कई रीते सेवन करवुं? ते बतावे छे:

PDF/HTML Page 20 of 29
single page version

background image
आसो: २४८६ : १प :
निश्चयथी जेम धननो अर्थी पुरूष बहु उद्यमथी प्रथम तो राजाने जाणे के ‘आ राजा छे’ ....
तेम मोक्षार्थी पुरुषे प्रथम तो बहु उद्यमथी आत्माने जाणवो के “आ चैतन्यपणे जे अनुभवाय छे ते ज
हुं छुं.” पछी, जेम ते पुरुष राजाने जाणीने तेनुं श्रद्धान करे छे के आ अवश्य राजा ज छे ने तेना
सेवनथी मने जरूर धननी प्राप्ति थशे....तेम मोक्षार्थी पुरुषे पण चैतन्यस्वरूप आत्माने जाणीने तेनुं
श्रद्धान करवुं के आवो चैतन्यस्वरूप आत्मा ज हुं छुं....तेनुं ज सेवन करवाथी परम आनंदरूप मोक्षनी
प्राप्ति थशे. आवा ज्ञान–श्रद्धान करीने पछी, जेम ते पुरुष राजाने सर्वप्रकारे अनुसरीने तेनी सेवाथी
तेने प्रसन्न करे छे तेम मोक्षार्थी जीवे सर्व प्रकारना उद्यमपूर्वक चैतन्यस्वभावनुं ज अनुचरण करवुं
एटले के तेना ज अनुभवमां लीन थवुं.–आम करवाथी साध्य आत्मानी सिध्धि थाय छे. बीजी रीते
थती नथी.
देहथी भिन्न चैतन्यमूर्ति आत्मा स्वतंत्र वस्तु छे; ते आत्मा कदी नवो उत्पन्न थयो नथी ने कदी
पण तेनो नाश थतो नथी; पोताना ज्ञानस्वरूपे ते त्रिकाळ टकी रहे छे. अत्यार सुधी तेणे शुं कर्युं? के
पोताना वास्तविक स्वरूपने भूलीने ८४ लाख योनीमां अनंत अवतार कर्या, स्वर्गमां पण अनंतवार
गयो ने नरकमां पण अनंतवार गयो, तिर्यंच पण अनंतवार थयो ने मनुष्य पण अनंतवार थयो.–
ओळखाण करीने तेमां ठरे तो चार गतिनुं परिभ्रमण टळे.
भाई, तारुं सुख पण परमां नथी ने तारुं दुःख पण परमां नथी. तारो मोक्ष अने संसार बंने
तारामां ज छे. ‘मोक्ष कह्यो निज शुद्धता’–चैतन्यस्वरूपना श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रवडे पूर्ण शुद्धता प्रगटे ते
ज मोक्ष छे; अने राग–द्वेष–मोहरूप जे अशुद्धता छे ते ज संसार छे. जीवनो संसार बीजा पदार्थोमां
नथी, तेमज जीवनो मोक्षमार्ग पण बीजा पदार्थोमां नथी. ‘अपने को आप भूलके हैरान हो गया....’
अंतरमां चैतन्यतत्त्वने ओळखीने तेनी सेवा करवी–आराधना करवी–ते ज चारगतिनी हेरानगतीथी
छूटवानो उपाय छे.
आ चैतन्यमूर्ति आत्माने जन्म धारण करवो पडे, देह धारण करवो पडे ते शरम छे. ते
शरमजनक जन्मो केम टळे तेनी आ वात छे.
ध्यान वडे अभ्यंतरे देखे जे अशरीर,
शरमजनक जन्मो टळे, पीए न जननी क्षीर. ६०
पहेलां अंतरमां आत्मानी धगश लागवी जोईए......अरे, हुं चैतन्यमूर्ति सिद्धभगवान जेवो
आत्मा, मारो आनंद मारामां, ने मारे आवा अवतार करवा पडे–ए शरम छे! मारां चैतन्यनिधान
मारामां छे–ते खोलीने हुं शरमजनक जन्मोनो अंत करुं–आम अंतरमां मोक्षार्थी थईने आत्मानी खरी
जिज्ञासा जागे, ते जीव प्रयत्नपूर्वक–सर्व उद्यमथी पोताना आत्माने जाणे छे, श्रद्धे छे ने तेने ज
अनुसरे छे. भाई, आवा आत्माना अनुभव विना बीजुं बधुं ते अनंतवार कर्युं.–
मुनिव्रतधार अनंतवार ग्रीवक उपजायो,
पै निज आतमज्ञान बिन सुख लेश न पायो.
आत्माना ज्ञान वगर त्यागी थईने अनंतवार तें मुनिव्रत पाळ्‌या, ने १६ स्वर्गथी पण उपर
नवमी ग्रैवेयक सुधी अनंतवार गयो, पण तेथी शुं मळ्‌युं? आत्मानुं सुख तो किचिंत् पण न मळ्‌युं. जो ते
व्रतादिना शुभरागथी तुं तारूं कल्याण मानतो हो तो तुं छेतराय छे; ऊंधी मान्यताथी तारा आत्माने तुं ज
छेतरी रह्यो छे. संतो पोताना अनुभवनी वात करीने तने समजावे छे के अरे जीव! तुं तो चैतन्य छो,
तारो अनुभव तो चैतन्यरूप छे, तारो स्वाद तो चैतन्यमय छे. “चैतन्यस्वादपणे जे अनुभवाय ते ज हुं
छु”–एम स्वसंवेदनथी श्रद्धा–ज्ञान कर, ने पछी तेमां ठर....ए ज मुक्तिने उपाय छे.
मोक्षार्थी जीवे मोक्षने साधवा माटे शुं करवुं? ते वात आचार्यदेवे आ गाथामां राजानो दाखलो
आपीने बहु सरस रीते समजावी छे. जेने राजा पासेथी पोतानुं