Atmadharma magazine - Ank 204
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म: २०४
प्रयोजन साधवुं होय ते मनुष्य राजाने राजी करवा माटे वच्चे बीजा पासे अटकतो नथी. सीधो राजानी
समीपता करे छे, ने तेने सर्व प्रकारे रीझवीने समुद्धि पामे छे...आम राजानी समीपता ते मनुष्यने
सुखसमृद्धिनुं कारण छे, पण ते माटे राजाने राजी करतां आवडवुं जोईए.–तेम चैतन्यराजा पासेथी
जेने पोताना हितरूप प्रयोजन साधवुं छे ते मोक्षार्थी जीव, जगतनी अनुकूळता के प्रतिकूळता सामे न
जोतां सीधो चैतन्यराजानी समीपता करे छे ने सर्व प्रकारे तेनी सेवा–आराधना करे छे...बीजे क््यांय
अटक्या वगर सर्व प्रकारना प्रयत्नथी चैतन्यराजाने रीझवीने ते जीव मोक्षमार्गने प्राप्त करे छे. आ
रीते चैतन्यराजानी समीपता ते जीवने मोक्ष सुखनुं कारण छे. पण ते माटे चैतन्यराजाने रीझवतां
आवडवुं जोईए.
जेने चैतन्यने साधवानो उत्साह छे तेने चैतन्यना साधक धर्मात्माने देखतां पण उत्साह अने
उमळको आवे छे; अहा! आ धर्मात्मा चैतन्यने साधी रह्या छे–! एम तेने प्रमोद आवे छे, अने हुं
पण आ रीते चैतन्यने साधुं–एम तेने उत्साह जागे छे. चैतन्यने साधवामां हेतुभूत एवा संत–
गुरुओने पण ते आत्मार्थी जीव सर्व प्रकारनी सेवाथी राजानी जेम रीझवे छे ने संतगुरुओ तेना उपर
प्रसन्न थईने तेने आत्मप्राप्ति करावे छे. मोक्षार्थी जीवना अंतरमां एक ज पुरुषार्थ माटे घोलन छे के
कई रीते हुं मारा आत्माने साधुं?–कई रीते मारा आत्माना–श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रने प्रगट करुं?
आत्मामां सतत आवी धून वर्तती होवाथी ज्यां संतगुरुए तेना श्रद्धा–ज्ञानादिनो उपाय बताव्यो के
तरत ज तेना आत्मामां ते प्रणमी जाय छे. जेम धननो अर्थी मनुष्य राजाने देखतां ज प्रसन्न थाय छे
अने तेने विश्वास आवे छे के हवे मने धन मळशे ने मारी दरिद्रता टळशे; तेम आत्मानो अर्थी मुमुक्षु
जीव आत्मप्राप्तिनो उपाय दर्शावनारा संतोने देखतां ज परमप्रसन्न थाय छे.....तेनो आत्मा उल्लसी
जाय छे के अहा, मने मारा आत्मानी प्राप्ति करावनार संत मळ्‌या...हवे मारा संसारदुःख टळशे.....ने
मने मोक्षसुख मळशे. आवो उल्लास अने विश्वास लावीने, पछी संतधर्मात्मा जे रीते चैतन्यने
साधवानुं कहे छे ते रीते समजीने पोते सर्व उद्यमथी चैतन्यने जरूर साधे छे.
जुओ, आ कोनी वात छे?–आत्मार्थी होय तेनी वात छे. देवपदनो अर्थी नहि, राजपदनो अर्थी
नहि, झवेरातनो अर्थी नहि, माननो अर्थी नहि, रागनो अर्थी नहि, पण आत्मानो ज अर्थी,
आत्मानी मुक्ति केम थाय तेनो ज अर्थी–एवा जीवने माटे आ वात छे. भाई, पहेलां तुं साचो
आत्मार्थी था! देहनुं–रागनुं–माननुं के जगतनी बीजी कोई वस्तुनुं मारे प्रयोजन नथी, मारे तो एक
मारा आत्मानुं ज प्रयोजन छे, कई रीते हुं मारा आत्मानो आनंद अनुभवुं–ए ज एक मारे जोईए
छे,–एम खरेखरी जिज्ञासा प्रगट करीने जे जीव आत्मार्थी थयो तेने आत्मानो अनुभव थाय ज....
तेनो उद्यम आत्मा तरफ वळे ज.–परंतु जेना हृदयमां आत्मा सिवाय बीजुं कोई पण शल्य होय ते
जीव क््यांकने क््यांक (–देहमां, रागमां, पुण्यमां, मानमां के छेवट शास्त्रना जाणपणामां) अटकी जाय
छे, एटले आत्माने साधवा माटेनो उद्यम ते करी शकतो नथी.. जे जीव आत्मानो अर्थी थाय ते
आत्मज्ञपुरुषोनो सत्समागम करीने वारंवार परिचयपूर्वक तेमनी पासेथी आत्मानुं स्वरूप जाणीने
तेनो निर्णय करे,–अंर्तअनुभवपूर्वक तेनी श्रद्धा करे.....आ ज आत्मार्थ साधवानी एटले के
सम्यग्दर्शन प्रगट करवानी रीत छे.
आत्माना आवा ज्ञान–श्रद्धान कोण करी शके? आचार्यभगवान कहे छे के बधाय करी शके;
आबालगोपाळ सौ करी शके; जे कोई आत्मार्थी थईने करवा मांगे ते सौ करी शके. एक शर्त के
आत्मानो ज अर्थी होवो जोईए, बीजा शेनोय नहीं. आत्मानो अर्थी थईने तेने साधवा मांगे ते जरूर
साधी शके. पोताना ज घरनी वस्तुने (अरे, पोते ज) पोते केम न साधी शके? अंतरमां रुचि करीने
पोताना तरफ वळे ते जरूर साधी शके. आत्मानुं ज्ञान–श्रध्धान करीने तेमां

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आसो: २४८६ : १७ :
ठरवुं –ते एक ज तेने साधवानी रीत छे, बीजुं कोई साधन के बीजी कोई रीत नथी.
आत्माने जाणीने तेनो निर्णय करवो जोईए; आत्माना स्वरूपनो निर्णय न करे ने तेमां शंका
रह्या करे तो आत्माने साधवानो पुरुषार्थ उपडे ज नही, ने निःशंकपणे स्वरूपमां ठरी शके नहि. जे जीव
आत्मस्वरूपने बराबर जाणे छे, ‘आ चैतन्यस्वरूपे अनुभवमां आवे छे ते ज हुं छुं’–एम जाणीने
बराबर निर्णय (श्रद्धा) करे ते जीव निःशंकपणे तेमां ठरीने आत्माने साधे छे आ ज आत्माने
साधवानी रीत छे, बीजी कोई रीते आत्माने सधातो नथी.
जेम राजानुं शरण ल्ये अने दरिद्रता न टळे एम बने नहि, तेम चिदानंद राजाने ओळखीने
तेनुं जेणे शरण लीधुं ते जीव संसारसमुद्रने जरूर तरी जाय छे, तेना दुःख दरिद्रता टळी जाय छे ने ते
परम चैतन्यसुखने पामे छे. माटे आत्मार्थी जीवोए सर्व प्रयत्नथी आ चैतन्यराजाने ओळखीने तेनी
ज सेवा–आराधना करवा योग्य छे.
अंतरमां स्वादना भेदथी भेदज्ञान करवानु्रं छे; ‘आ जे चैतन्य–स्वाद आवे छे ते तो मारा
आत्मानो छे, अने जे आकुळतारूप स्वाद हतो ते मारा आत्मानो स्वाद न हतो पण रागनो स्वाद
हतो; जेटलो चैतन्यस्वाद आवे तेटलो हुं छुं’–आ प्रमाणे अंतरना वेदनथी रागने अने आत्माने जुदा
जाणवा. ज्यां आ प्रमाणे भेदज्ञान कर्युं त्यां ज जीवने एम श्रद्धान् पण थाय छे के आ जे चैतन्यपणे
अनुभवमां आव्यो ते हुं छुं, आ चैतन्यस्वरूप ज मारे सेववा योग्य छे, ते ज मारे ठरवानुं स्थान छे–
आम जाणवुं–श्रद्धवुं ने ठरवुं ते मोक्षनो उपाय छे.
*
आ सूचना जरा लक्षमां लीजिए
आ अंकनी साथे “आत्मधर्म” मासिकनुं १७मुं वर्ष
समाप्त थाय छे.....आवता अंकथी नवुं वर्ष शरू थशे.
आपनुं नवा वर्षनुं लवाजम रूा. ४–०० वहेलासर भरी
आपवा विनंति छे....जेथी आपनो अंक टाईमसर रवाना
थई शके. वी. पी. करवामां घणी मुश्केली पडे छे तेमज
खर्च पण वधारे थाय छे. आ मुश्केली अने खर्च बंनेथी
बचवा आपनुं लवाजम जेम बने तेम वेलासर मोकलीने
व्यवस्थामां सहकार आपशो.
आ उपरांत दरेक गामना मुमुक्षुमंडळने पण खास
सूचना आपवानी के, आपना गामना सर्वे ग्राहकोनुं
लवाजम भेगुं करीने तेनी सूचना सोनगढ जेम बने तेम
वेलासर मोकली आपशो.
लवाजम मोकलवानुं सरनामुं–
श्री दि
जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट
सोनगढ: सौराष्ट्र

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: १८ : आत्मधर्म: २०४
तुं स्थाप निजने मोक्ष पंथे.....
जे जीव मोक्षार्थी छे, मोक्षनो ईच्छुक छे एवा सुपात्र भव्य जीवने
संबोधीने आचार्यदेव आदेश करे छे के हे भव्य! तुं तारा
आत्माने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र स्वरूप मोक्षमार्गमां स्थाप!
आसो सुद पांचमना रोज आफ्रीकावाळा शेठश्री भगवानजीभाईना
मकानना वास्तुप्रसंगे पू. गुरुदेवना भावभीनां प्रवचनमांथी.
(समयसार गाथा: ४१२)
तुं स्थाप निजने मोक्षपंथे,
ध्या, अनुभव तेहने,
तेमां ज नित्य विहार कर,
नहि विहर परद्रव्यो विषे.
हे भव्य! तुं मोक्षमार्गमां तारा आत्माने स्थाप, तेनुं ज ध्यान कर, तेने ज चेत–अनुभव अने
तेमां ज निरंतर विहार कर; अन्य द्रव्योमां न विहर,
जुओ, आचार्यदेव सुपात्र मोक्षार्थी जीवने आज्ञा करीने मोक्षमार्गमां प्रेरे छे. मोक्षार्थीजीवे शुं
करवुं? के देहादिनुं अने रागादिनुं ममत्व छोडीने मोक्षमार्गमां पोताना आत्माने स्थापवो. हे जीव!
अनादिथी बंधमार्गमां आत्माने स्थाप्यो छे. त्यांथी पाछो वाळीने तारा आत्माने हवे मोक्षमार्गमां
स्थाप.
आचार्य भगवाने पोताना आत्माने तो मोक्षमार्गमां स्थाप्यो छे, पोते सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्ररूपे परिणमीने ते मोक्षमार्गमां आत्माने स्थाप्यो छे, ने बीजा मोक्षार्थीने संबोधीने कहे छे के
भव्य! तुं तारा आत्माने मोक्षमार्गमां स्थाप. ‘अनादिकाळथी पोताना अज्ञान–दोषने विकारमां ज
स्थित रह्यो छे तो हवे मोक्षमार्गमां स्थित केम थाय?–एम कोईने संदेह थाय तो आचार्यदेव कहे छे के
हे भव्य! तुं मुंझा मा! पोतानी प्रज्ञाना दोषने कारणे अनादिथी विकारमां स्थिर होवा छतां हवे
भेदज्ञानवडे तेनाथी आत्माने पाछो वाळीने मोक्षमार्गमां स्थिर करी शकाय छे. माटे अमे कहीए छीए
के हे भव्य! तारी प्रज्ञाना गुणवडे एटले के भेदज्ञानना बळवडे तारा आत्माने तुं विकारथी पाछो वाळ
ने मोक्षमार्गमां स्थाप.
आचार्यदेव घणा घणा प्रकारे जीव–अजीवनुं भेदज्ञान समजावीने २८मा कळशमां कहे छे के
अहा, आवुं स्पष्ट जीव–अजीवनुं भिन्नपणुं अमे बताव्युं, तो हवे क््यां जीवने तत्क्षण ज भेदज्ञान न
थाय? हवे तो जरूर भेदज्ञान थाय ज! माटे हे भव्य! हवे

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आवा भेदज्ञानना बळवडे तारा आत्माने
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षपंथमां तुं
परिणमाव.
जुओ, अहीं “दर्शन–ज्ञान–चारित्रना
परिणामने तुं आत्मा तरफ वाळ”–एम कहेवाने
बदले, “तारा आत्माने दर्शन–ज्ञान–चारित्रमां
स्थाप”–एम कह्युं, एटले रत्नत्रयरूप
मोक्षमार्गरूप तारा आत्माने परिणमावीने तेमां
ज आत्माने स्थाप. पहेलां बीजी गाथामां,
‘दर्शन–ज्ञान–चारित्रमां जे स्थित छे ते स्वसमय
छे’ एम कह्युं हतुं के तेनो ज आ उपदेश छे.
हे भाई! तुं अत्यारसुधी परमां वळ्‌यो–हवे तुं
स्वमां वळ! परमां पण तुं तारा अपराधथी ज
वळ्‌यो हतो, ने हवे स्वमां पण तुं तारा गुणथी ज
(–भेद ज्ञानना बळथी ज) वळ.
“जे स्वरूप समज्या विना, पाम्यो दुःख
अनंत”
–जुओ, आ स्वरूपनी अणसमजणने ते
बंधपंथ छे. अने–
“समजाव्युं ते पद नमुं श्री सदगुरु भगवंत”
गुरुउपदेश अनुसार पोते पोतानुं स्वरूप
समज्यो ते मोक्षपंथ छे. संसारमां रखडयो ते
पोताना दोषथी; दोष केटलो?–के परद्रव्यने पोतानुं
मान्युं तेटलो स्वपरना भेदज्ञानरूप प्रज्ञागुणवडे
जीव पोते ज पोताने बंधमार्गथी पाछो वाळीने
मोक्षपंथमां स्थापे छे. अनादिथी बंधमार्गमां रह्यो
होवा छतां तेनाथी जीव पाछो वळी शके छे, ने
कदी नहि अनुभवेला एवा मोक्षमार्गमां पोताने
स्थापी शके छे. माटे हे भाई! एक वार तो
जगतथी जुदो थईने आत्मामां आव! एकवार
तो जगतनो पाडोशी थईने अंतरमां आत्माने
देख! तने कोई अपूर्व आनंदनो अनुभव थशे.
हवे भव्य! एकवार अंतरमां वळी जा....ने
दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप! स्वघरमां ज तारा
आत्माने वसाव! तारा आत्माने निरंतर
रत्नत्रयरूप मोक्षमार्गमां ज स्थाप. बीजी बधी
चिंताने दूर करीने तारा चिदानंदस्वरूपने एकने ज
ध्येय– बनावीने तेने ज ध्याव. जगत आखाथी
उदास थई जा ने एक आत्माना मोक्षमार्गमां ज
उत्साहित थईने तेमां ज आत्माने स्थाप, तेनुं ज
ध्यान कर......
तारा आत्माने स्वतंत्रपणे ज तुं मोक्षमार्गमां
स्थाप...बीजा कोईनो तेमां सहारो नथी. रागने
एकमेक करीने तारा आत्माने न ध्याव, पण
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप निर्मळपर्यायोमां
एकमेक करीने तारा आत्माने ध्याव. आ रीते
निर्मळपर्यायनी साथे आत्माने अभेद करीने कह्युं छे.
अहा! आचार्यदेव कहे छे के हे भव्य! में मारा
आत्माने मोक्षमार्गमां परिणमाव्यो छे ने तुं पण
तारा आत्माने मोक्षमार्गमां परिणमाव! पांचमी
गाथामां पण कह्युं हतुं के, हुं मारा समस्त
निजवैभवथी–आत्मवैभवथी शुद्धआत्मानुं स्वरूप
दर्शावुं छुं अने तेम तमारा स्वानुभवप्रमाणथी
जाणीने ते प्रणाम करजो.–सामा शिष्यनी एटली
लायकात जोईने आचार्यदेवे आ वात करी छे.
अहीं तो सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रने ज स्वद्रव्य
कह्युं छे, ने तेमां जे स्थिर छे तेने ‘स्वसमय’ कह्यो
छे. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते ज्ञानचेतना छे, ते
ज्ञान चेतनारूप थईने तुं मोक्षमार्गने चेत, तेनो
अनुभव कर...ने रागनो अनुभव न कर. आत्माना
स्वभावनो आश्रय करतां जे निर्मळपरिणाम थाय
छे ते निर्मळपरिणाममां ज तुं विहर, परद्रव्याश्रित
थता एवा रागादि परिणाममां तुं जरापण न
विहर...आ ज मोक्षनो पंथ छे.
आ रीते आचार्यभगवाने भव्य जीवोने माटे
आ मोक्षमार्ग बतावीने तेनी प्रेरणा करी.
ज्ञानीनो निश्चय
छेदाव, वा भेदाव, को लई जाव, नष्ट बनो भले,
वा अन्य को रीत जाव,पण परिग्रह नथी मारो खरे.
(समयसार गा. २०९)
परद्रव्य छेदावो, अथवा भेदावो, अथवा कोई
तेने लई जाओ, अथवा नष्ट थई जाओ, अथवा
गमे ते रीते जाओ, तोपण हुं परद्रव्यने नहि ग्रहुं,
कारण के ‘परद्रव्य मारुं स्व नथी, हुं परद्रव्यनो
स्वामी नथी, परद्रव्य ज परद्रव्यनुं स्व छे,–परद्रव्य
ज परद्रव्यनो स्वामी छे, हुं ज मारुं स्व छुं,–हुं ज
मारो स्वामी छुं’–एम हुं जाणुं छुं
–आ प्रमाणे ज्ञानीनो निश्चय छे.

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: २० : आत्मधर्म: २०४
* उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म *
* भादरवा सुद १४ अनंतचतुर्दशीना रोज अपायेलुं प्रवचन (वीर सं. २४८६) *
दसलक्षण धर्ममां आजे छेल्लो दिवस उत्तम ब्रह्मचर्य धर्मनो छे. आ धर्मो सम्यग्दर्शन वगर
होता नथी. धर्मनुं मूळीयुं ज सम्यग्दर्शन छे. अहीं उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म कोने होय छे ते आचार्यदेव कहे
छे–सुकृति एटले सम्यग्द्रष्टि–धर्मात्मा, तेने ब्रह्मानंदस्वरूप आत्मानुं भान थयुं छे अने तेनी सन्मुख
परिणतिनी लीनता थई छे त्यां स्त्री वगेरेने जोतां तेने दुर्भावोनी उत्पत्ति थती नथी,–आवी निर्मळ
परिणतिनुं नाम ब्रह्मचर्यधर्म छे. जे पवित्र आत्मा एटले सम्यग्द्रष्टि आत्मा, चैतन्यना अतीन्द्रिय
आनंदना स्वाद पासे जेणे जगतना विषयोने तूच्छ जाण्या छे एवो धर्मात्मा, स्त्री वगेरेना अंगो
जोतां पण विकृति पामतो नथी तेने दुर्द्धर एवो ब्रह्मचर्यधर्म होय छे. जेने चैतन्यनुं भान न होय ने
परविषयोमां सुख मानतो होय ते कदाच शुभरागवडे ब्रह्मचर्य पाळतो होय–तोपण तेना ब्रह्मचर्यने
धर्म कहेता नथी. तेनी तो द्रष्टि ज मेली छे, ते रागथी धर्म माने छे तेथी तेनामां पवित्रता नथी, अने
जे आत्माने पवित्रता नथी तेने ब्रह्मचर्यादि कोई धर्म होतो नथी. तेथी अहीं ‘पवित्र आत्मा’ एम
कह्युं छे. जेनामां पवित्रता छे, जेना श्रद्धा–ज्ञान चोकखा थया छे एवा धर्मात्माने ज ब्रह्मचर्यादि
वीतरागीधर्मोनी आराधना होय छे. सम्यग्दर्शन वगर आराधना कोनी करशे? जेनी आराधना करवी
छे तेने प्रथम श्रद्धा–ज्ञानमां ल्ये, पछी तेमां स्थिरता करीने तेनी आराधना करे. आवी आराधनामां ज
उत्तम क्षमा ब्रह्मचर्य वगेरे धर्मो होय छे.
साहित्यनी प्रभावना माटे योजना
श्री दिगंबर जिनमंदिरो तथा स्वाध्याय मंदिरोने, श्री दिगंबर जैन
स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ, तरफथी प्रसिद्ध थयेल सत्साहित्य एक उदार
सद्गृहस्थ तरफथी योग्य लागे ते मुजब भेट अगर अर्ध मुल्यथी आपवामां
आवशे.
जेमने आवश्यकता होय तेओ ते ते शहेरना दिगंबर जैन समाजना बे
अग्रगण्य सभ्योनी सही साथे नीचेना सरनामे पत्रव्यवहार करे. साहित्य
विना मूल्ये जोईए छे के अर्धा मूल्ये–ते पण जणावे.
उपरोक्त योजना सं. २०१७ना कारतक सुद पुनम सुधी अमलमां रहेशे
तो ते दरम्यान जे जे साहित्यनी आवश्यकता होय ते मंगावी लेवुं. अहींथी
प्रसिद्ध थयेल सत्साहित्यनी नामावलिनी जरूर होय तेमणे अहींथी पोस्ट द्वारा
मंगावी लेवी.
श्री दि. जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट,
सोनगढ (सौराष्ट्र)

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श्री वीतरागाय नमः
परम आदरणीय, सद्धर्म प्रचारक, भारतना सुप्रसिद्ध आध्यात्मिक संत.
श्रीमत् माननीय पूज्य श्री कानजी स्वामी
ना पुनित करकमलोमां सादरसमर्पित
अभिनंदन पत्र
पूज्यवर,
आज महासौभाग्य अने गौरवनी वात छे के अमो आजनी
धन्यपळे आपने संघसहित अमारा गाममां बिराजीत नीरखीए
छीए, पण क््यां आपनुं सोनगढ, अने क््यां नानकडुं रखीयाल
स्टेशन! छतां आनंदनुं कारण छे के आप बाहुबलीजी तीर्थधामोनी
यात्रा करीने पाछा फरतां अमारा गामे पधार्या छो अने अमोने
दिव्यामृतपान कराव्युं छे. ते बदले अमो आपना अत्यंत ऋणी छीए.
अध्यात्मयोगी,
लोकोने अनादिथी व्यवहारनो पक्ष छे, शास्त्रोमां पण ठामठाम
व्यवहारनो उपदेश विशेष छे, अध्यात्मनो उपदेश तो क््यांय क््यांय
अने कवचित विरलज छे; तेथी अमारा जेवा मंद बुद्धि जीवो उपर
असीम करुणा करी अध्यात्मज्ञान सुधा वहेवडावी अमोने
अध्यात्ममार्गे लगाव्या छे.
आत्मार्थी,
आपे आपना आत्माने जगाडयो एटलुं ज नहि पण
अनादिनी अविद्यामां सूतेली दुनियाने भेदज्ञाननी भेरीथी जगाडी
आत्मार्थ भणी लगाव्या छे, अने घणा जीवोने नवजीवन अर्प्युं छे.
वीरशासन प्रभावक,
अंतमां अमो अंतःकरणपूर्वक आपनुं तथा आपना संघनुं
स्वागत करीए छीए; आपश्री प्रति अमाराथी कांई पण अजाणे
क्षति थई होई तो क्षमा याचीए छीए; अने अंतरना ऊमळकापूर्वक
आ पुष्पमाळ आपने अभिनंदनपत्ररूपे समर्पित करीए छीए, एटलुं
ज नहि परंतु श्रीवीरप्रभु प्रति प्रार्थना करीए छीए के आप दीर्धायुं
थई वीरशासननो धर्मध्वज अणनम फरकावो......जयवीर!
ता. १२–प–१९प९ ली. विनयवंत
रखीयाल स्टेशन, (जिल्लो–अमदावाद) श्री रखीयाल स्टेशन मुमुक्षु मंडळ

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: २२ : आत्मधर्म: २०४
वै रा ग्य स मा चा र
(१) अमरेलीवाळा प्रेमचंदभाई खारा वगेरेनां बहेन मणिबेन खारा भादरवा सुद ११ ना रोज
आकस्मिक सर्पदंशथी सोनगढमां स्वर्गवास पामी गया. तेमनी उमर लगभग ७३ वर्षनी हती. लगभग ३०
वर्षथी तेओ पू. गुरुदेवना सत्समागममां आवेला. गुरुदेव प्रत्ये तेमने घणो भक्तिभाव हतो. लगभग २प
वर्ष पहेलां ज्यारे केटलाक बहेनोने एक खास फाळो कर्यो त्यारे तेमणे उदारताथी रूा. १प००) लखाव्या हता.
भादरवा सुद दसमनी बपोरे तो गुरुदेवना प्रवचनमां आवेला....ने रात्रे पथारीमां ज तेमने सर्पदंश थयो......
पू. गुरुदेवनुं अने बेनश्रीबेननुं तेओ रटण करता हता....पू. श्री शांताबेने रात्रे त्रणचार कलाक तेमनी पासे
बेसीने धार्मिकवचनो संभळाव्या हता, गुरुदेवनुं नाम सांभळीने तेओ प्रमोद बतावता हता, अने पोतानी
बधी मुडी शुभखातामां वपराय एवी ईच्छा तेमणे करी हती.....आथी तेमना भाईओए तेमना लगभग
रूा. ७००) जिनमंदिरमां तेमज बीजा शुभखाताओमां आपेल छे. संसारना क्षण भंगुरताना आवा दाखला
रोज रोज बन्यां ज करे छे...आवा असार अने क्षणभंगुर संसारमां देव–गुरु–धर्म ज शरणरूप छे. स्व.
मणिबेननो आत्मा श्री देव–गुरु–धर्मना शरणे सम्यक्त्वादिनी आराधना वडे, अनादिना मिथ्यात्वादिनुं झेर
उतारीने अमृतमयसिद्धपदने पामे.....एम भावना भावीए छीए.
(२) धांग्रधांना भाईश्री छोटालाल डामरदासना सौथी नाना सुपुत्र धीरेन्द्रकुमार
(–ब्र.कंचनबेन वगेरेना भाई) भादरवा वद बीजना रोज जामनगर मुकामे आकस्मिक स्वर्गवास
पामी गया छे. तेमनी उमर मात्र १९ वर्षनी हती अने भावनगर कोलेजमां ईन्टर–कोमर्सनो अभ्यास
करता हता भावनगरनी वोलीबोल टीममां तेओ जामनगर रमवा गयेला, त्यां रणजीतसागर तळाव
जोवा गयेल, ते वखते अकस्माते पग लपसी जतां तेओ तळावमां पडी गया ने तेमनो स्वर्गवास थई
गयो. सोनगढमां आ समाचार आवतां वैराग्यनुं घेरुं वातावरण छवाय गयुं......अने एमना
कुटुंबीजनो उपर तो जाणे कपरी परीक्षा आवी पडी. परंतु संतज्ञानीओनी समीपताना प्रतापे तेमना
बधा कुटुंबीओए धैर्य राखीने वैराग्यना मार्गे पोताना परिणाम वाळ्‌या छे. खरेखर, ज्ञानीओनी
अमृत छांयडी जगतना गमे तेवा प्रतिकूळ–अनुकूळ प्रसंगमां पण आत्मार्थी जीवने केवी शरणभूत
थाय छे–ते आवा प्रसंगे विशेष देखाई आवे छे. ज्ञानीओ खरुं ज कहे छे के भाई! आ तो तारी
परीक्षाना प्रसंगो छे; आवा प्रसंग उपरथी तो आत्मार्थी जीवे आत्माने चानक चडावीने झटझट
आत्मार्थ साधवा माटे तत्पर थवा जेवुं छे. अरे आत्मा! संसारनी आवी क्षणभंगुर स्थिति जाणीने तुं
तेनाथी पाछो वळ....ने तारा परिणामने आत्महितमां जोड.
भाई धीरेन्द्रनो स्वभाव घणो सरल, शांत अने भद्रिक हतो. पू. गुरुदेव प्रत्ये तेने घणो भक्तिभाव
हतो अने गुरुदेवनी चरणसेवा माटे तेने एटलो प्रेम हतो के ते माटे दर शनि–रविनी रजामां ते सोनगढ
आवतो, ने गुरुदेवनी सेवानो लाभ लेतो. कोलेजना अभ्यासमां तेमज रमतगमतमां पण ते प्रथम कक्षानो
विद्यार्थी हतो, एटलुं ज नहि, कोलेजना प्रोफेसरो अने विद्यार्थीओमां ते खूब प्रिय हतो....तेना स्वर्गवासनी
वात सांभळतां अनेक कोलेजो तरफथी शोक प्रस्ताव थया हता. बे वर्ष पहेला सोनगढमां “बलीदान अने
प्रभावना” नामनुं अकलंक–निकलंकनुं एक सुंदर नाटक थयेल तेमां अकलंकनुं मुख्य पात्र धीरेन्द्रकुमारे घणुं
ज सुंदर भजव्युं हतुं. तेमनुं आखुं कुटुंब धर्मप्रेमी छे, तेमनी चारेय बहेनो बालब्रह्मचारी छे अने
सोनगढमां ज रहीने संतोनी सेवामां आत्महितनी भावना पूर्वक पोतानुं जीवन वीतावे छे; भाई धीरेन्द्रनी
पण पोतानी बहेनोने अनुसरवानी भावना हती. जामनगर जतां पहेलांना पत्रमां तो ते लखे छे के मारी
जामनगर जवानी ईच्छा न हती मारी तो सोनगढ गुरुदेव पासे आववानी ईच्छा हती, परंतु टीमनी साथे
जवुं पडे छे: पाछा फरतां वद त्रीजे सोनगढमां उतरीश–परंतु कुदरतमां तेनी आ भावना पूरी थवानुं
लखायुं न हतुं....त्रीजने दिवसे सोनगढमां हजी तो तेनी आववानी राह जोवाती हती–तेने बदले बीजा ज–
न सांभळी शकाय एवा समाचार आव्या, ने मात्र मंडळमां ज नहि परंतु आखा सोनगढमां शोकनी
लागणी प्रसरी गई...गुरुदेव तो घणा दिवस सुधी वैराग्यनी धूनमां रह्या; तेओ धीरेन्द्रनो करुण वैराग्य
प्रसंग याद करीने वारंवार वैराग्य भरेला उद्गारो, सज्झायो, श्रीकृष्ण वगेरेनां द्रष्टांतो कहेता; धीरेन्द्रना
कुटुंबीजनोने गुरुदेवे घणी वैराग्य भरेली शिखामणद्वारा आश्वासन आप्युं हतुं अने कह्युं हतुं के

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संसार तो आवो छे....माटे तेनाथी उदास था ने आत्मामां आव! ज्ञातापणे रहेवुं ए ज
समाधाननो उपाय छे...ज्यां आयुष्य पूरुं थयुं त्यां शो उपाय?–अने ज्यां निरूपायता छे त्यां
समाधान (–सहनशीलता) ए ज उपाय छे.
आ उपरांत श्री कृष्णना मृत्यु प्रसंगनुं द्रष्टांत आपीने संसारनी अशरणता समजावी हती.
वैराग्यरसथी नीतरता गुरुदेवनां वचनो संतप्त हृदयोने घणी शांति आपता हता.
पू. बेनश्री बेन पण आखो दिवस अवारनवार आश्रममां जईने, मातानी जेम परम वात्सल्य
पूर्वक धीरेन्द्रना कुटुंबीजनोनी संभाळ लईने वैराग्योपदेशनुंं सींचन करी जता.....जेम सुकाता मोलने
जलवृष्टि नवपल्लवित करे तेम शोकना आघातथी घेरायेला जीवोने तेओश्रीनी अमीभरीवृष्टि
शांतरसनुं सींचन करीने नवपल्लवित करती हती खरेखर, आ जगतमां ज्ञानी–संतोनी बलिहारी छे के
जेमना सान्निध्यमात्रथी संसारना भयंकर दुःखो भूलाईने जीवना परिणाम वैराग्य तरफ वळी जाय छे.
गुरुदेवे जे परम मार्ग बताव्यो छे ते मार्ग महा कल्याणकारी छे, सर्व प्रसंगे ते ज एक
शरणभूत छे, अने सर्व उद्यमथी जीवे एक ज मार्ग आराधवा जेवो छे. तेमांय जीवननी आवी
क्षणभंगुरता देखीने तो, क्षणनाय विलंब विना वेगपूर्वक ए हितमार्गे वळवा जेवुं छे.
भाई धीरेन्द्रना स्मरणार्थे पुस्तीका छपाववा माटे तेमज जिनमंदिर वगेरे शुभखातामां तेमना
पिताजी तरफथी लगभग एक हजार रूा. जाहेर करवामां आव्या हता. भाई धीरेन्द्रनो आत्मा देव–
गुरु–धर्मनी उपासनामां आगळ वधीने आत्महित साधे, अने ‘अकलंक’ तरीकेनुं जे पात्र तेणे भजव्युं
हतुं तेवो साक्षात् भाव प्रगट करीने ते साक्षात् ‘अ–कलंक’ एवा सिद्धपदने पामे–एवी भावना
भावीए छीए. धीरेन्द्रनो आ प्रसंग जोईने आपणो आत्मा पण वेगपूर्वक वैराग्य तरफ वळे ने
संतोनी चरण छायामां हवे जलदी आत्महितने साधीए.....ए ज भावना.
(३) उपरोक्त प्रसंगना बीजे ज दिवसे, एटले के भादरवा वद त्रीजनी रात्रे अजमेरना
सुप्रसिद्ध शेठ अने भारतना दि. जैन समाजना एक अग्रगण्य नेता सर भागचंदजी सोनीना सौथी
मोटा सुपुत्र कुंवर प्रभाचंद्रजी (केप्टन,
B. A.) मात्र ३१ वर्षनी युवान वये कलकत्तामां अकस्मात
हृदय बंध पडी जवाथी स्वर्गवास पामी गया. आ समाचारथी भारतना अनेक शहेरोना जैन समाजने
घणो आघात लाग्यो ने ठेर ठेर शोक सभाओ भराणी. तेओ शांत, धर्मप्रेमी, उत्साही, अने
वेपारक्षेत्रमां पण बाहोश सज्जन हता, अध्यात्मिक शास्त्रोना अभ्यासनो तेमने प्रेम हतो. सोनगढनुं
आध्यात्म साहित्य पण तेओ प्रेमपूर्वक वांचता अने तत्त्वचर्चामां रस लेता. ईंदोरना सर हुकमीचंदजी
शेठना तेओ दोहित्र (पुत्रीना पुत्र) थाय. आवा नवयुवान पुत्रना स्वर्गवासथी सर भागचंदजी शेठने
अने तेमना कुंटुंब परिवारने घणो ज आघात थाय–ए सहज छे....परंतु जन्म–मरणथी भरेला आ
संसारनी स्थिति ज एवी छे...एमां एक वैराग्य ज शरण छे एम समजीने तेओ पोताना आत्माने
जैनधर्मना तत्त्वोना विचारमां जोडे.....अने वीतरागी देव–गुरु–धर्मना शरणे आत्महितना पंथे
पोताना आत्माने वाळे.....एम भावना भावीए छीए. कुंवर प्रभाचन्द्रजीनो आत्मा पण पोताना
अध्यात्मप्रेममां आगळ वधीने, जिनेन्द्रधर्मना प्रतापे आ असार–संसारना जन्म–मरणोथी छूटीने
सिद्धपदने पामे–एम जिनेन्द्रदेवने प्रार्थना करीए छीए.
(४) राजकोटना डो. बोघाणीना मातुश्री दयाबेन प४ वर्षनी वये ता. ६–९–६० ना रोज
स्वर्गवास पाम्या छे. ता ४–९–६० ना रोज राजकोटमां जिनेन्द्रभगवाननी रथयात्रामां त्रण कलाक
सुधी भक्तिपूर्वक तेमणे भाग लीधो हतो. त्यारबाद एकाएक बिमारी आवतां पू. गुरुदेवना
स्मरणपूर्वक तेओ स्वर्गवास पामी गया. तेओ अवारनवार सोनगढ आवीने लाभ लेता तेमनो
आत्मा धर्मप्रेममां आगळ वधीने जन्ममरण रहित थाय......ए ज भावना

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ताको वंदना हमारी है.....
(कवित)
दशा है हमारी एक चेतना बिराजमान, आन पर भावनसों तिहुं काल न्यारी है.
अपनो स्वरूप शुद्ध अनुभवे आठों जाम, आनंदको धाम गुणग्राम विसतारी है;
परम प्रभाव परिपूरन अखंड ज्ञान, सुखको निधान लखि आन रीति डारी है,
ऐसी अवगाढ गाढ आई परतीति जाके, कहे दीपचंद ताको वंदना हमारी है.
।। ।।
भावार्थ:– अमारी दशा एक चैतन्यस्वरूपे बिराजमान छे अने अन्य परभावोथी त्रणेकाळ
जुदी छे” एम जे पोताना स्वरूपने आठे पहोर (दिनरात) शुद्ध अनुभवे छे. आनंदना धाम
गुणसमूहनो जेणे विस्तार कर्यो छे, परम प्रभावरूप परिपूर्ण अखंड ज्ञान अने सुखना निधानने
देखीने जेणे बीजी रीत छोडी दीधी छे–आवी अवगाढ द्रढ प्रतीति थई छे तेने अमारी वंदना छे.
आत्मिकरुचि है अनंतसुखसाधिनी
परम अखंड ब्रहमंड विधि लखै न्यारी, करम विहंड ठरे महा भवबाधिनी,
अमल अरूपी अज चेतन चमत्कार, समैसार साधे अति अलख अरधिनी;
गुणको निधान अमलान भगवान जाको प्रत्यक्ष दिखावे जाकी महिमा अबाधिनी,
एक चिदरूपको अरूप अनुसरे ऐसी आतमिक रुचि है अनंत सुख साधिनी.ा ६ा
भावार्थ:–
आत्मिक रुचि अनंत सुखने साधनारी छे: केवी छे ते रुचि? परम अखंड
चैतन्यब्रह्मने ते कर्मथी भिन्न देखे छे. कर्मने खंडखंड करी नाखे छे. भवभ्रमणनी अत्यंत बाधक छे
अर्थात् भवभ्रमणने रोकनारी छे. निर्मळ अरूपी चैतन्यचमत्कारने देखनारी छे, शुद्ध आत्मरूप
समयसारने अत्यंतपणे साधनारी छे. ने अलख–अतीन्द्रिय चैतन्यने आराधनारी छे, गुणनो निधान
अने संकोचरहित एवो जे भगवान आत्मा तेने ते प्रत्यक्ष देखाडनारी छे. ते आत्मरुचिनो महिमा
अबाध्य छे, कोईथी ते बाधित थतो नथी, अने ते रुचि एक चैतन्यस्वरूपने ज अनुसरनारी छे.–
आवी आत्मरुचि अनंत सुखने साधनारी छे.
संतनकी मति महामोक्ष अनुसारिणी
अचल अखंड पद रुचिकी धरैया भ्रम–भावकी हरैया एक ज्ञानगुनधारिनी,
सकित अनंत को विचार करे, बारबार, परम अनुप निज रूपको उधारिनी;
सुखको समुद्र चिदानंद देखे घटमांहि, मिटे भव बाधा मोक्षपंथकी विहारिनी,
दीप जिनराज सो सरूप अवलोके ऐसी, संतनकी मति महामोक्ष अनुसारिनी.ा ७ा
भावार्थ:– संतोनी मति महामोक्षने अनुसरनारी छे; केवी छे संतोनी मति? पोताना अचल
अखंडपदनी रुचिने धरनारी छे. भ्रमभावने हरनारी छे, एक ज्ञानगुणने धरनारी छे. पोतानी
अनंतशक्तिनुं वारंवार चिंतन करनारी छे. परम अनुरूप एवा निजरूपने प्रगट करनारी छे. सुखना
समुद्र एवा चिदानंदस्वरूपने पोताना अंतरमां ज देखनारी छे. भवबाधा मटाडनारी छे ने मोक्षपंथमां
विहार करनारी छे, तथा जिनराज जेवा निजस्वरूपने अवलोकनारी छे.–आवी संतोनी मति
महामोक्षने अनुसरनारी छे. “ज्ञानदर्पण मांथी
श्री दिगंबर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्टवती मुद्रक अने प्रकाशक: हरिलाल देवचंद शेठ: आनंद प्रि. प्रेस. भावनगर