Atmadharma magazine - Ank 204
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARMA Reg. No. B. 4787
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ताको वंदना हमारी है.....
(कवित)
दशा है हमारी एक चेतना बिराजमान, आन पर भावनसों तिहुं काल न्यारी है.
अपनो स्वरूप शुद्ध अनुभवे आठों जाम, आनंदको धाम गुणग्राम विसतारी है;
परम प्रभाव परिपूरन अखंड ज्ञान, सुखको निधान लखि आन रीति डारी है,
ऐसी अवगाढ गाढ आई परतीति जाके, कहे दीपचंद ताको वंदना हमारी है.
।। ।।
भावार्थ:– अमारी दशा एक चैतन्यस्वरूपे बिराजमान छे अने अन्य परभावोथी त्रणेकाळ
जुदी छे” एम जे पोताना स्वरूपने आठे पहोर (दिनरात) शुद्ध अनुभवे छे. आनंदना धाम
गुणसमूहनो जेणे विस्तार कर्यो छे, परम प्रभावरूप परिपूर्ण अखंड ज्ञान अने सुखना निधानने
देखीने जेणे बीजी रीत छोडी दीधी छे–आवी अवगाढ द्रढ प्रतीति थई छे तेने अमारी वंदना छे.
आत्मिकरुचि है अनंतसुखसाधिनी
परम अखंड ब्रहमंड विधि लखै न्यारी, करम विहंड ठरे महा भवबाधिनी,
अमल अरूपी अज चेतन चमत्कार, समैसार साधे अति अलख अरधिनी;
गुणको निधान अमलान भगवान जाको प्रत्यक्ष दिखावे जाकी महिमा अबाधिनी,
एक चिदरूपको अरूप अनुसरे ऐसी आतमिक रुचि है अनंत सुख साधिनी.ा ६ा
भावार्थ:–
आत्मिक रुचि अनंत सुखने साधनारी छे: केवी छे ते रुचि? परम अखंड
चैतन्यब्रह्मने ते कर्मथी भिन्न देखे छे. कर्मने खंडखंड करी नाखे छे. भवभ्रमणनी अत्यंत बाधक छे
अर्थात् भवभ्रमणने रोकनारी छे. निर्मळ अरूपी चैतन्यचमत्कारने देखनारी छे, शुद्ध आत्मरूप
समयसारने अत्यंतपणे साधनारी छे. ने अलख–अतीन्द्रिय चैतन्यने आराधनारी छे, गुणनो निधान
अने संकोचरहित एवो जे भगवान आत्मा तेने ते प्रत्यक्ष देखाडनारी छे. ते आत्मरुचिनो महिमा
अबाध्य छे, कोईथी ते बाधित थतो नथी, अने ते रुचि एक चैतन्यस्वरूपने ज अनुसरनारी छे.–
आवी आत्मरुचि अनंत सुखने साधनारी छे.
संतनकी मति महामोक्ष अनुसारिणी
अचल अखंड पद रुचिकी धरैया भ्रम–भावकी हरैया एक ज्ञानगुनधारिनी,
सकित अनंत को विचार करे, बारबार, परम अनुप निज रूपको उधारिनी;
सुखको समुद्र चिदानंद देखे घटमांहि, मिटे भव बाधा मोक्षपंथकी विहारिनी,
दीप जिनराज सो सरूप अवलोके ऐसी, संतनकी मति महामोक्ष अनुसारिनी.ा ७ा
भावार्थ:– संतोनी मति महामोक्षने अनुसरनारी छे; केवी छे संतोनी मति? पोताना अचल
अखंडपदनी रुचिने धरनारी छे. भ्रमभावने हरनारी छे, एक ज्ञानगुणने धरनारी छे. पोतानी
अनंतशक्तिनुं वारंवार चिंतन करनारी छे. परम अनुरूप एवा निजरूपने प्रगट करनारी छे. सुखना
समुद्र एवा चिदानंदस्वरूपने पोताना अंतरमां ज देखनारी छे. भवबाधा मटाडनारी छे ने मोक्षपंथमां
विहार करनारी छे, तथा जिनराज जेवा निजस्वरूपने अवलोकनारी छे.–आवी संतोनी मति
महामोक्षने अनुसरनारी छे. “ज्ञानदर्पण मांथी
श्री दिगंबर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्टवती मुद्रक अने प्रकाशक: हरिलाल देवचंद शेठ: आनंद प्रि. प्रेस. भावनगर