Atmadharma magazine - Ank 204
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 5 of 29

background image
: ४ : आत्मधर्म: २०४
तो ज्ञानस्वभावथी ज छे. ज्ञानस्वभाववडे अधिक एवा आत्माने जाण तो तारो
भवनो छेद थाय. भाई, आवो मनुष्य अवतार मळ्‌यो तेमां जो तें भवना छेदनो उपाय
न कर्यो तो तें शुं कर्युं? आ भव, भवना छेद माटे ज मळेलो छे. चार गतिना भवनो
अभाव करवा माटे ज आ अवतार छे; परम आनंदनी प्राप्तिनो पिपासु थईने तुं
भवछेदनो उपाय कर.
ज्ञानी, अथवा तो परमानंदनो पिपासु जीव एम जाणे छे के मारा विशुद्ध
चैतन्य स्वभावमां शुभ के अशुभ नथी, मारा अतीन्द्रिय आनंद स्वभावमां
ईंद्रियविषयनो अभाव छे.–आम ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थईने जेणे द्रव्येन्द्रियो
भावेन्द्रियो तथा ते ईंद्रियना विषयो–ए बधाथी भिन्न पोताना ज्ञानस्वभावने
अनुभव्यो ते जीव जीतेन्द्रिय छे, ते जिनेन्द्रदेवनो खरो भक्त छे, ते जीव आत्माना
परम आनंदने अनुभवनार छे.
अमृतझरणी.....
शांतिदातारी.......
भव तारणहारी......
गुरुदेवनी मंगल वाणीनो
(आ मंगल–प्रवचन पछी पू. बेनश्रीबेने
हर्षोल्लासपूर्वक भक्ति करावी हती.)
आत्मधर्मना ग्राहक बनो
अने
लवाजम तुरत मोकलावो