Atmadharma magazine - Ank 205
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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कारतक : २४८७ : १९ :
भारत की आध्यात्मिक विभूति
पूज्य श्री कानजी स्वामी के पुनीत कर–कमलों
में
सादर–समर्पित
अभिनन्दन – पत्र
दक्षिण–तीर्थयात्रा निमित्ते विचरतां विचरतां पू. गुरुदेव ज्यारे कोटा शहेर पधार्या त्यारे
एक सुंदर विद्वत्ताभरेलुं अभिनंदन–पत्र अर्पण थयेल. अभिनंदन–समारोह वखते अनेक
विद्वानोए भावभीनां भाषण कर्या हता. कोटा दि. जैनसमाजना मुमुक्षुओए गुरुदेवने आपेलुं
आ प्रशंसनीय अभिनन्दन–पत्र नूतनवर्षना प्रारंभे अहीं प्रगट करतां आनंद थाय छे.
हे सन्त!
निशा के निविड़ तम को निश्शेष करता हुआ प्राची के क्षितिज पर जैसे
शुभ्रस्वर्णाभ अरुणोदय होता है और वीणा का सात्विक साम–गान और पक्षियों काक
लख उसका स्वागत करता है; निदाध के प्रचंड ताप से दग्ध शीर्णधरा पर जैसे पावस
के सझल मेघ का प्रमोदकारी रिमझिम होता है। और मधूर अपनी सम्पूर्ण पांखे पसार
कर उसका अभिनन्दन करता हैं, चर्मण्यती–तटवर्तिनी इस कोटा नगरी की धरा पर
ऐसे ही आपके शुभागमन से पृथुल–प्रतीक्षा में पलकें बिछाये हमारे मानस पुलकित
और प्रफुल्लित हुए है। अतः चातक को स्वाति बिंदु–संयोग के सद्रश इस अनमोल
अवसर पर समस्त भद्र मुमुक्षुओं सहित हे प्रशांतात्मन्! हम आपका हृदय से स्वागत–
अभिनन्दन करते है।
हे ब्रह्मचारिन्!
जीवन के उन क्षणों मे जब मानव यौवन के क्षणिक उन्माद में विलासिता को
ही अपने जीवन की सहचरी बना लेता है, अपने स्वरूप की चिंतन धारा अविच्छिन्न
रखने के लिये उस भर–यौवन में ब्रह्मचर्य अंगीकार करके भौतिक–भोग–विलास को
एक कठोर चुनौती दी। अतः आज के स्वरूप–भ्रांत मानव के लिये आपका यह आदर्श
विधेय और उपादेय है।
हे सत्य–गवेपी!
पंथ के पथ और लोकेषणा के व्यामोह में जहां मानव का विवेक–चक्षु मुंद
जाता है; प्रकांड पंडितो का परिगृहीत ज्ञान–कोष जहां अपनी प्रतिभा के अहं में
प्रतिबद्ध हो जाता है, वहां आपने रत्न–प्रासाद और–स्वर्ण–पिंजर से सवेग उङ जाने
वाले शुक की भांति चरम स्वाधीनता की उपलब्धि के लिये पंथ के पथ का परित्याग
करके सत्य की शोध की और सत्य की शरणमें अपना सम्पूर्ण–समर्पण कर दिया युग
युग के मतवालों को आपके जीवन के वे क्षण युग युग तक ज्योति–स्तंभ के समान
दिशा देते रहेंगे।