: १८ : आत्मधर्म : २०प
आवीने तेने कहे के आप कांईक बोलो! कांईक स्तुति बोलो, कांईक चर्चा वार्ता संभळावो! आ रीते, हे भगवान!
जेणे आपनी आराधना करी छे ते जीव बीजाओ वडे आराधाय छे, एटले के आपने ओळखीने जे आपना
दर्शन–स्तवन ध्यान करे छे ते पण आपना जेवो ज थई जाय छे, ने बीजा जीवो तेने भक्ति वडे आराधे छे.
त्रीजा श्लोकमां कहे छे के हे नाथ! अंतरना निर्विकल्प अनुभवना आनंदनी तो शी वात!! परंतु
विकल्प दशामां आपने आंख वडे देखतां पण अमने एवो भारे हर्ष थाय छे के त्रण लोकमां ते हर्ष समातो
नथी. अंतरमां लीन थईने ज्यारे अमे सर्वज्ञ थईशुं त्यारे तो अमारुं ज्ञान त्रण लोकमां फेलाई जशे–त्रण
लोकने जाणी लेशे; अने अत्यारे आ आंखथी सर्वज्ञने देखतां अमारो हर्ष त्रण लोकमां समातो नथी. प्रभो!
उपयोगने अंतरमां वाळीने चैतन्यचक्षुथी ज्यारे चिदानंद परमात्माने देखशुं ते वखतना परम अतीन्द्रिय
आनंदनी शी वात!!
जुओ, आमां सविकल्प अने निर्विकल्प बंने भक्तिनी वात करी ने बंनेनुं जुदुंजुदुं फळ पण बताव्युं.
परमात्मा प्रत्येनी सविकल्प भक्तिना फळमां तो भारे हर्ष कह्यो, अने निर्विकल्प भक्तिमां वचनातीत
अतीन्द्रिय आनंदनी प्राप्ति थवानुं कह्युं, स्वरूपमां ठरीने केवळज्ञान पामशुं त्यारे अनंत अपरिमित आनंदने
पामशुं,–एम कहीने तेमां भक्तिनो विकल्प तोडीने स्वरूपमां ठरवानी भावना पण करी.
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आत्मधर्म अंक २०४ मां अनेक अशुद्धीओ रही गई छे, तेमांथी नीचे मुजब अशुद्धीओ सुधारी लेवा
विनंति छे–
* पानुं ७ बीजी कोलममां–‘आवा आचार्य परमेष्ठीनुं स्वरूप” एटलुं लखेल छे तेने बदले आ मुजब
वांचवुं– “आ रीते आचार्य परमेष्ठीनुं स्वरूप वर्णव्युं; ते आचार्य भगवंतोने अमारा नमस्कार हो.”
* पानुं–८ शरूआतनी बे लाईनमां–
“परंतु ओळखाणपूर्वकनुं जेवुं परम बहुमान ज्ञानीने आवशे तेवुं अज्ञानीने ज होय छे”
आ प्रमाणे भूलवाळुं छपायेल छे, तेने बदले आ प्रमाणे वांचवुं–“परंतु ओळखाणपूर्वकनुं जेवुं
परम बहुमान ज्ञानीने आवशे तेवुं अज्ञानीने नहीं आवे. एटले पंचपरमेष्ठीनी भक्तिमां
खरेखर कुशळता ज्ञानीने ज होय छे.”
* पानुं १४ हेडींग नीचेना लखाणमां– “आत्मार्थीनां रसथी झरतुं” तेने बदले “आत्मार्थीताना
रसथी झरतुं”–एम वांचवुं.
* पानुं १६ बीजी कोलम २०मी लाईनमां आत्मपुरुषोनो सत्समागम” तेने बदले आत्मज्ञ
पुरुषोनो सत्समागम” एम वांचवुं.
* पानुं १९ बीजी कोलम, १४–१प लाईनमां “में मारा–मोक्षमार्गमां” एम छे तेने बदले “मे मारा
आत्माने मोक्षमार्गमां” एम वांचवुं.
ध्यान वडे अभ्यंतरे देखे जे अशरीर,
शरमजनक जन्मो टळे, पीए न जननी क्षीर. ६०
आत्मधर्मना छेल्ला २०४ नंबरना अंकमां १पमा पाने योगसारनो
एक दोहरो अपूर्ण अने अशुद्ध छपायेल छे, तेने बदले उपर लखेल दोहरो
वांचवो.