Atmadharma magazine - Ank 205
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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कारतक : २४८७ : १७ :
तेमनुं बहुमान करे छे ते व्यवहारस्तुति छे. मुनिओ क्षणक्षणमां निर्विकल्प थईने चिदानंदगोळाने छुटो
अनुभवे छे,–आवा अनुभवमां झूलता मुनिओने पण छठ्ठे गुणस्थाने विकल्प उठतां सर्वज्ञ परमात्मा प्रत्ये
भक्तिनो उल्लास आवे छे. मोटा मोटा आचार्योए पण सिद्धभक्ति वगेरेनी रचना करी छे. पोताना चैतन्य
परमेश्वरने अंतरना श्रद्धाज्ञानमां साथे ने साथे राखीने आ स्तुति थाय छे.
हे भगवान सर्वज्ञ परमात्मा! रत्न मणिओनी प्रभाथी चित्र–विचित्र एवा दिव्य सिंहासन उपर
अद्धर बिराजमान आपने जे देखे छे ते धन्य छे. अंतरमां तो सर्वज्ञस्वभावी पोताना आत्माने देखे छे अने
बहारमां सर्वज्ञ परमात्माने देखे छे ते धन्य छे. आहा! आवो चैतन्य स्वभाव! आवो ज्ञायकबिंब स्वभाव!
एम चिदानंदस्वभावना बहुमान पूर्वक भगवानने जे देखे छे तेने धन्य छे. साक्षात् ज्ञानमूर्ति भगवानने जे
देखे छे, स्तवे छे, जपे छे ने ध्यावे छे ते धन्य छे.
जगतना मोही जीवो स्त्रीना रूप वगेरेने देखे छे, तेनी प्रशंसा करे छे, तेने जपे छे ने तेने ध्यावे छे–
तेमां तो पापनुं बंधन छे, कडकडतुं दुःख छे; परंतु रागरहित एवा हे वीतरागी परमात्मा! आपने देखतां,
स्तवतां, जपतां अने ध्यावतां चैतन्यस्वभावनो महिमा जागे छे, तेमां शांति मळे छे, तेथी जे जीव आपने
देखे छे–ध्यावे छे ते धन्य छे. जुओ, आमां भगवाननुं स्वरूप लक्षमां लईने, एटले के भगवान जेवा
आत्माना स्वभावने लक्षमां लईने तेनी स्तुति थाय छे. जगतना मोटा मोटा ईन्द्रो–चक्रवर्तीओ पण अंतरमां
चैतन्यभगवानने देखे छे–ध्यावे छे ने बहारमां सर्वज्ञ परमात्माने देखे छे–ध्यावे छे.
कुंदकुंद आचार्य अने अमृतचंद्र आचार्य जेवा महा संतो पण भक्तिथी अर्हंतो अने सिद्धोने पोताने
आंगणे बोलावे छे के हे भगवंतो! सम्यक् श्रद्धा–ज्ञानपूर्वक वीतरागी उपशमभावने हुं अंगीकार करुं छुं,
मोक्षलक्ष्मीना स्वयंवर समान जे आ वीतरागी शांत उपशमभावरूप चारित्रनो अवसर छे तेमां हे भगवंतो
हुं आपने परमभक्तिथी याद करीने आमंत्रुं छुं, नाथ! मारा आंगणे पधारो.
संतोने आ संसारमां भगवान सर्वज्ञपरमात्मा ज प्रियतम छे, बीजुं कांई प्रिय नथी. (‘प्रितम’ ए
प्रियतमनो अपभ्रंश छे.) संत धर्मात्माने प्रियतम कांई होय तो, अंतरमां तो पोतानो चिदानंदस्वभाव छे
अने बहारमां सर्वज्ञपरमात्मा तेमने प्रियतम छे. तेमने रागनी प्रीति नथी, पुण्यनी के पुण्यना फळनी प्रीति
नथी. भगवाननी भक्तिमां भले पुण्य बंधाय छे परंतु धर्मीने ते पुण्यनी के तेना फळनी प्रीति नथी; प्रीति
तो एक चिदानंदस्वभावनी अने ते स्वभावना प्रतिबिंबस्वरूप परमात्मानी ज छे, ए ज एमनी सौथी प्रिय
वस्तु छे; एटले एवा परमात्मा प्रत्ये भक्तिनो भाव उल्लसी जाय छे.
हे परमात्मा! जे जीव भक्तिथी पुष्पवडे आपने पूजे छे ते जीव तेना फळमां स्वर्गमां ईन्द्राणीना
नेत्ररूपी पुष्पवडे पुजाय छे. जुओ, आमां एम न कह्युं के जे पुण्यने पूजे छे ते ईन्द्राणीवडे पूजाय छे, परंतु
एम कह्युं के जे भगवानने पूजे छे ते ईन्द्राणीवडे पूजाय छे; भगवानने पूजनारो पुण्यनो आदर न करे. जे
पुण्यनो आदर करे छे ते ईन्द्राणीवडे नथी पुजातो परंतु ते तो मिथ्यात्वथी घेराईने संसारमां रखडे छे. हे
तरणतारण जिननाथ! अंतरमां चैतन्यना उल्लासपूर्वक आपना प्रत्ये जेने भक्तिनो भाव उल्लसे छे तेने
एवा सातिशय पुण्य बंधाई जाय छे के तीर्थंकरपद गणधरपद वगेरे पामीने ते जीव ईन्द्रो वडे पण पुजाय छे.
आराधक धर्मात्माना पुण्य पण लोकोत्तर होय छे. तेनां वचनमां जाणे के अमृत झरतुं होय! लोको