Atmadharma magazine - Ank 207
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration). Entry point of HTML version.

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आत्मधर्म
वर्ष १८
सळंग अंक २०७
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001 Apr 2004 First electronic version.

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वर्ष अढारमुं : अंंक ३ जो संपादक : रामजी माणेकचंद दोशी पोष : २४८७
स्व स न्म ख थ
भाई, तारे तारुं हित करवुं छे ने?
हा, मारे मारुं हित करवुं छे.
तारुं हित करवुं छे ते तारामां थाय के बीजामां?
मारुं हित तो मारामां ज थाय, मारुं हित बीजामां केम थाय?
तो पोतामां जे हित करवानुं छे ते पोतानी सामे जोवाथी थाय
के बीजानी सामे जोवाथी?
पोतामां जे हितकार्य करवानुं छे ते तो पोतानी सामे जोवाथी ज थाय,
परनी सामे जोवाथी न थाय. परनी सामे जोवाथी तो पोतानुं
हितकार्य चूकी जवाय.
बस! तो पछी तारुं हित साधवा माटे तुं तारामां ज जो...परथी
तारुं भिन्नपणुं जाणीने स्वसन्मुख था...आ हितनो उपाय छे.
–रात्रिचर्चामांथी.
[२०७]

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: : आत्मधर्म : २०७
मंगल विहारनो कार्यक्रम
पू. गुरुदेवना प्रतापे जामनगर शहेरमां भव्य दि. जिनमंदिरनुं निर्माण थयुं छे अने
तेमां जिनेन्द्र भगवाननी प्रतिष्ठानुं मुहूर्त माह सुद सातमनुं छे ने त्यां पंचकल्याणक प्रतिष्ठा
महोत्सव थवानो छे. ए रीते सावरकुंडलामां पण नुतन दि. जिनमंदिरनुं निर्माण थयुं छे ने
तेमां जिनेन्द्रभगवाननी वेदीप्रतिष्ठानुं मुहूर्त फागण सुद १र नुं छे. आ उपरांत गीरनार
सिद्धिधामनी यात्रा करवानी पण गुरुदेवनी भावना छे. आ रीते जामनगर शहेरमां
पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव, गीरनारजी तीर्थधामनी यात्रा अने सावरकुंडलामां
वेदीप्रतिष्ठा महोत्सव,–एवा मंगल प्रसंगो निमित्त पू. गुरुदेवनो जे मंगलविहार थवानो छे
तेनो कार्यक्रम हाल नीचे मुजब नक्की थयेल छे :–
सोनगढथी राजकोट थईने जामनगर तरफ: (पोष वद १० गुरुवार ता. १२–१–६१)
जामनगर: (पोष वद ११ थी माह सुद ८ सुधी; ता. १३ थी र४ सुधी)
गोंडल: (माह सुद ९, जामनगरथी जुनागढ जतां वच्चे विश्राम)
जुनागढ–गीरनारयात्रा: (माह सुद १० थी १३; ता. र६ थी र९.
यात्राना दिवसो महा सुद ११ तथा १र ता. र७–र८ शुक्र–शनि
पोरबंदर: (माह सुद १४ थी माह वद ६; ता. ३०–१–६० थी ता. ६–र–६१)
जेतपुर: (माह वद ७ ता. ७ मंगळवार; पोरबंदरथी राजकोट जतां वच्चे विश्राम)
राजकोट: (माह वद ८ थी फागण सुद पांचम; ता. ८ थी १९ फेब्रुआरी)
लाठी: (फागण सुद ६ सोमवार; राजकोटथी सावरकुंडला जतां वच्चे विश्राम)
सावरकुंडला: (फागण सुद ७ थी फा. वद १; ता. र१–र–६१ थी ता. ३–३–६१)
दामनगर: (फागण वद बीज)
सोनगढ–प्रवेश: (फागण वद त्रीज ने रविवार ता. प–३–६१)
गी.र.ना.र या.त्रा.
माह सुद १० थी १३ पू. गुरुदेव जुनागढ गीरनारयात्रा निमित्ते पधारवाना छे.
गुरुदेव साथेनी तीर्थयात्राना आ प्रसंगे पोताना तरफथी हर्ष व्यक्त करतां नागनेशवाळा शेठ
शांतिलाल कस्तुरचंद झोबाळियाए माह सुद ११ ना दिवसनुं जमण पोताना तरफथी आपवा
माटे रूा. १रप१ (एक हजार बसो एकावन) गीरनारयात्रा खातामां आपवानुं जाहेर कर्युं
छे–ते बदल तेमने धन्यवाद!

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पोष : २४८७ : :
आत्माने साधवा माटे
परनी चिन्ता छोड!’

हे जीव! तारो आत्मा जगतथी जुदो छे, जगतना पदार्थोनो बोजो तारा उपर नथी.
परंतु अत्यारसुधी निजस्वरूपने भूलीने तें मात्र परनी ज चिंन्ता करी छे. परनी चिन्तामां
रोकायेलो जीव पोताना आत्माने क््यांथी साधी शके? परनी चिंता छोडीने निजस्वरूपमां
वळनार निश्चिंत पुरुषो ज आत्माने साधे छे. माटे परनी व्यर्थ चिंता छोड...ने निजस्वरूपने
संभाळ.
अनादिथी आजसुधीमां कोई जीवे कदी परनुं कांई कर्युं ज नथी, मात्र स्वनुं लक्ष चूकीने
परनी चिन्ता ज करी छे. हे भाई, परना कार्यनो बोजो तारा उपर नथी. जेटली तुं तारा
तत्त्वनी भावना चूकीने पर तत्त्वनी चिन्ता कर तेटली चिन्तानो बोजो तारा उपर छे, ने ते
चिंतानुं तने दुःख छे. पण, तारी ते चिंताने लीधे परनां कोई कार्य थतां नथी ने तारुं स्वकार्य
बगडे छे. हे भाई! अनादिथी तें करेली पर संबंधी सर्वे चिंताओ निष्फळ गई, माटे हवे
प्रज्ञावडे ते चिंताथी भिन्न तारा चैतन्यस्वरूपने जाणीने तेमां एकाग्र था. परनी चिन्ता करवी
ते तारुं स्वरूप नथी; माटे निश्चिंत थई निजस्वरूपना चिंतन वडे तारा स्व–कार्यने साध.
तुं परवस्तुने तारी मानीने तेनी गमे तेटली चिन्ता कर तोपण परवस्तुनुं तो जे
परिणमन थवानुं छे ते ज थशे, तारी चिंताने लीधे तेनामां कांई फेरफार नहि थाय; अने तुं
परवस्तुने भिन्न जाणीने तेनी चिंता (लक्ष) छोडी दे तोपण ते तो स्वयं परिणम्या ज करशे,
तुं चिंता छोडी दईश तेथी कांई तेनुं परिणमन अटकी नहि जाय. –आ रीते, तारी चिंता हो के
न हो–तेनी अपेक्षा परद्रव्यने नथी. माटे हे जीव! तुं परनी व्यर्थ चिंता छोडीने स्वहितमां
तत्पर था.
हे भाई, परवस्तुनी अत्यार सुधी तें जेटली चिंता करी ते बधीये शरूआतथी छेडा
सुधी निष्फळ गई... माटे हवे तो ते छोड.. आत्माने साधवा माटे परनी चिंता छोड अने
निश्चिंत थईने निजस्वरूपने संभाळ!– एना फळमां तने परमशांति अनुभवाशे.
– पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी.

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: : आत्मधर्म : २०७
आत्मा अने बंधने जाुदा करीने मोक्षने साधनारी
भ ग व ती प्र ज्ञा
जेनां अंतरमां भेदज्ञाननी तालावेली थई छे–एवा मोक्षार्थी
शिष्ये पूछ्युं हतुं के प्रभो! प्रज्ञा ज मोक्षनुं साधन छे एम आपे
समजाव्युं, तो ते प्रज्ञावडे खरेखर कई रीते आत्मा अने बंधने
जुदा पाडी शकाय? तेना उत्तरमां आचार्यदेवे भेदज्ञाननी
अलौकिक वात (गाथा २९४मां) समजावी; आत्मानुं लक्षण ज्ञान,
अने बंधनुं लक्षण राग, ए बंनेने स्पष्टपणे जुदा ओळखाव्या.
(तेनुं प्रवचन गतांकमां आवी गयुं छे.) आ रीते, आत्मा अने
बंध बंनेने स्पष्टपणे अत्यंत जुदा पाडनारी भगवती प्रज्ञा ज
मोक्षनुं साधन छे. ए रीते भगवती प्रज्ञाने ज मोक्षना साधन
तरीके वर्णवीने हवे आचार्यदेव तेना उपर अलौकिक कळश चडावे
छे, तेमां तीक्ष्ण प्रज्ञाछीणी कई रीते आत्मा अने बंधने अत्यंत
जुदा करी नांखे छे तेना पुरुषार्थनुं अद्भुत वर्णन कर्युं छे.–
(स्रग्धरा)
प्रज्ञाछेत्री शितेयं कथमपि निपुणैः पातिता सावधानेः
सूक्ष्मेऽन्तःसंधिबंधे निपतति रभसात् आत्मकर्मोभयस्य ।
आत्मानं मग्नमंतःस्थिरविशदलसत् धाग्नि चैतन्यपूरे
बंधं चाज्ञानभावे नियमितमभितः कुर्वती भिन्नभिन्नौ ।। १८१।।

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पोष : २४८७ : :
भेदज्ञानना वर्णननो आ श्लोक घणो सरस छे, ते सौए मोढे करवा जेवो छे.
जुओ, आ भेदज्ञाननी रीत! प्रवीण पुरुषो एटले के विचिक्षण बुद्धिवाळा आत्मार्थी जीवो अत्यंत
सावधानीथी प्रज्ञाछीणीवडे आत्मा अने बंधने भिन्नभिन्न करी नांखे छे. पोताना सर्व प्रयत्नवडे, एटले के
आखा जगत तरफथी पाछो वळीने चैतन्य तरफ वळवाना उद्यमवडे, अत्यंत जागृतीपूर्वक, आत्मा अने
बंधनी संधिनी वच्चे प्रज्ञाछीणी पटकीने मुमुक्षु जीव तेमने जुदा पाडी नांखे छे.–बंनेने जुदा पाडवा माटे
बेनो आश्रय नथी, आश्रय तो एक आत्मानो ज छे; ‘प्रज्ञा’ ज्यां आत्मा तरफ वळीने एकाग्र थई त्यां
बंधथी ते जुदी पडी ज गई; ज्ञान–परिणति अने आत्मानी एकता थई तेमां राग न आव्यो,–तेमां बंधभाव
न आव्यो, ए रीते बंध जुदो ज रही गयो, ने आत्मा बंधनथी छूटी गयो. आ रीते भगवती प्रज्ञा बंधने
छेदीने आत्माने मुक्ति पमाडे छे.
धीमी शांत हलकवाळा आ श्लोकमां आचार्यदेव कहे छे के हे जीव! बंधथी रहित एवा तारा चिदानंद
आत्माने अंतरमां अवलोकवा माटे तुं धीरो था...धीरो थईने एटले के रागनी आकुळताथी जराक जुदो
पडीने अंतरमां वळ. रागथी जुदो पडीने जे अंतरमां वळ्‌यो तेणे आत्मा अने बंध वच्चे प्रज्ञाछीणीने पटकी.
प्रवीण पुरुषो वडे सावधानीथी पटकवामां आवेली आ प्रज्ञाछीणी केवी रीते पडे छे?–शीघ्र पडे छे,–तत्क्षण ज
आत्मा अने बंधनुं भेदज्ञान करती पडे छे; जेवुं ज्ञान अंतरमां वळ्‌युं के तरत ज बंधने छेदीने आत्माथी जुदो
पाडी नांखे छे. जुओ, आ बंधने छेदवानी छीणी! आ प्रज्ञाछीणी ज मोक्षनुं साधन छे.
(१) एक तो, (प्रज्ञाछेत्री शितेयं) प्रज्ञाछीणी तीक्ष्ण छे,
(र) बीजुं, (कथमपि) कोई पण रीते, एटले के सर्व उद्यमने तेमां ज रोकीने ते पटकवामां आवे छे.
(३) त्रीजुं (निपुणैः) निपुण पुरुषो वडे–एटले के मोक्षना उद्यमी मोक्षार्थी पुरुषोवडे ते पटकवामां आवे छे.
(४) चोथुं (पातिता सावधाने) सावधान थईने एटले के मोहने दूर करीने, आत्मस्वरूपनी सन्मुख थईने
ते प्रज्ञाछीणी पटकवामां आवे छे.
(प) अने पांचमुं (निपतति रभसात्) ते प्रज्ञाछीणी शीघ्रपणे पडे छे.
आम पांच विशेषणोथी आचार्यदेवे भेदज्ञाननो अपूर्व पुरुषार्थ दर्शाव्यो छे, आवा पुरुषार्थथी
पटकवामां आवेली प्रज्ञाछीणी आत्मा अने बंधने सर्व तरफथी अत्यंत जुदा करी नांखे छे, बंधना एक
अंशने पण आत्मामां भेळवती नथी. आ रीते बंधने सर्व प्रकारे छेदीने आत्माने मोक्ष पमाडनारी आ
‘प्रज्ञा’ ने आचार्यदेवे ‘भगवती’ कहीने तेनो महिमा कर्यो छे.
पूर्वे र३मां कलशमां कह्युं हतुं के हे भव्य! तुं कोईपण रीते–मरीने पण तत्त्वनो कौतूहली था ने देहथी
भिन्न आत्मानो अनुभव कर. तेम अहीं पण कहे छे के हे मोक्षार्थी! तुं कोईपण रीते, आखा जगतनी दरकार
छोडी दईने पण, आ भगवती प्रज्ञाने अंतरमां पटकीने बंधने छेदी नांख! ‘कोईपण रीते’–एम कहीने कर्म
वगेरे नडशे–ए वात उडाडी दीधी. कोई कहे–कर्म नडे तो?–तो आचार्यदेव कहे छे के अरे जीव! तुं एकवार
प्रज्ञाछीणीने हाथमां तो ले...प्रज्ञाछीणी हाथमां लेतां ज (–एटले के ज्ञानने अंतर्मुख करतां ज) कर्म तो क््यांय
बहार रही जशे ने छेदाई जशे. अहीं तो कहे छे के ‘कर्म नडशे...’ एम याद करे ते खरो मोक्षार्थी नहि, खरो
मोक्षार्थी तो उद्यमपूर्वक प्रज्ञाछीणी वडे भेदज्ञान करीने आत्मा अने बंधने अत्यंत जुदा करी नांखे छे.

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: : आत्मधर्म : २०७
अहा, आत्माने बंधनथी मुक्त करवो ए ज मारुं कर्तव्य छे, शुद्धआत्माने प्राप्त करवो ए ज एक मारुं
कर्तव्य छे–एम जेने तीव्र झंखना जागी होय, ने संतो पासेथी भेदज्ञाननो आवो उपदेश मळे, ते जीव
भेदज्ञाननो पुरुषार्थ कर्या वगर केम रहे?–ने आवो मोक्षार्थीजीव बंधना एक कणियाने पण पोताना
स्वरूपमां केम राखे?–न ज राखे. ने भेदज्ञानना कार्यमां ते प्रमाद पण केम करे?–न ज करे. जेम वीजळीना
झबकारे सोय परोववी होय त्यां प्रमाद केम पालवे? तेम अनंतकाळना संसारभ्रमणमां वीजळीना झबकारा
जेवो आ संसारभ्रमणमां वीजळीना झबकारा जेवो आ मनुष्यअवतार, तेमां चैतन्यमां भेदज्ञानरूपी दोरो
परोववा माटे आत्मानी घणी जागृती जोईए. भाई! अनंतकाळे आ चैतन्य भगवानने ओळखवाना ने
मोक्षने साधवाना टाणां आव्या छे, क्षण क्षण लाखेणी जाय छे, आत्मभान वगर उगरवानो कोई आरो
नथी; माटे सर्व उद्यमथी तारा आत्माने भेदज्ञानमां जोड...शूरवीरताथी प्रज्ञाछीणीवडे तारा आत्माना
बंधभावने छेदी नांख. प्रज्ञाछीणी ते बंधने छेदवानुं अमोघशस्त्र छे. प्रज्ञाछीणीने सावधान थईने पटकतां,
एटले के जगतनी अनुकूळतामां अटक्या वगर ने जगतनी प्रतिकूळताथी डर्या वगर ज्ञानने अंतरमां स्व
तरफ वाळतां बंधन बहार रही जाय छे एटले आत्मा बंधनथी छूटी जाय छे. आ रीते बंधनने छेदीने मोक्ष
पामवानुं साधन भगवती प्रज्ञा ज छे.
(समयसार कलश १८१ ना प्रवचनमांथी)
आ.रा.ध.ना
“सत्संगनुं एटले सत्पुरुषनुं ओळखाण थये पण ते योग निरंतर रहेतो न होय तो,
सत्संगथी प्राप्त थयो छे एवो जे उपदेश ते प्रत्यक्ष सत्पुरुष तुल्य जाणी विचारवो तथा
आराधवो, के जे आराधनाथी जीवने अपूर्व एवुं सम्यक्त्व उत्पन्न थाय छे.” (‘ज्ञानीना
मार्गना आशयने उपदेशनारां वाक््यो’ मांथी)
– श्रीमद् राजचंद्र: वर्ष र८ मुं.
आत्मकल्याणनो निश्चय
‘ज्ञानीना मार्गना आशयने उपदेशनारां वाक््यो’ मां आत्मकल्याणनी तीव्र प्रेरणा
आपतां श्रीमद् राजचंद्रजी केटलुं सरस लखे छे! –
“जीवे मुख्यमां मुख्य अने अवश्यमां अवश्य एवो निश्चय राखवो के जे कांई
मारे करवुं छे ते आत्माने कल्याण रूप थाय ते ज करवुं छे.” (वर्ष र८ मुं)

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पोष : र४८७ : :

– परम शांति दातारी –
अध्यत्म भवन
भगवान श्री पूज्यपादस्वामीरचित ‘समाधि शतक’ उपर पू. गुरुदेवना
अध्यात्म भावना भरपूर वैराग्यप्रेरक प्रवचनोनो सार
वीर सं. र४८र अषाड सुद पांचम गा. ४७ चालु
आ समाधिअधिकार छे एटले के आत्माने समाधि केम थाय, शांति केम थाय तेनी वात चाले छे.
तेमां केवा ग्रहण–त्यागथी समाधि थाय ते कहे छे.
* जेओ चैतन्यस्वभावने जाणीने परिपूर्ण ज्ञान ने आनंदस्वरूप परमात्मा थई गया तेमणे तो
ग्रहवा योग्य एवुं पोतानुं शुद्धस्वरूप ग्रही लीधुं ने त्यागवा योग्य एवा मोह–राग–द्वेष छोडी दीधा, एटले
तेमने हवे कांई ग्रहवानुं के छोडवानुं रह्युं नथी, तेमने तो पूर्ण समाधि ज छे.
* जे अंतरात्मा छे तेणे शरीरादि समस्त पदार्थोथी पोताना चैतन्यस्वरूप आत्माने भिन्न जाण्यो छे
एटले परमां तो कोईनुं ग्रहण के त्याग करवानुं ते मानता नथी; पोताना ज्ञानानंदस्वरूपने ज उपादेय जाण्युं
छे ने परभावोने हेय जाण्या छे, तेथी चैतन्यस्वभावनुं ज ग्रहण करीने (–तेमां लीनता करीने) परभावोने
ते छोडता जाय छे; अने तेमने समाधि थती जाय छे.
* अने मिथ्याद्रष्टि बहिरात्मा तो बाह्य पदार्थो साथे पोताने एकमेक माने छे, परपदार्थोने ईष्ट–
अनीष्ट माने छे, एटले ते अनुकूळ परपदार्थो उपर राग करीने तेने ग्रहवा मांगे छे, ने प्रतिकूळ परपदार्थो
उपर द्वेष करीने तेने छोडवा मांगे छे. आ रीते मिथ्याद्रष्टिजीव राग–द्वेषथी परने ग्रहवा–छोडवानुं माने छे.
आ रीते मिथ्याअभिप्रायने लीधे तेनो त्याग पण द्वेषगर्भित छे; तेने समाधि थती नथी पण असमाधिज
रहे छे.
घर के गूफा, महेल के जंगल ते बधाय आत्माथी भिन्न परद्रव्य छे; छतां अज्ञानी बाह्यद्रष्टिथी एम
माने छे के घर छोडुं अने गूफामां जाउं–तो शांति थाय; पण अरे भाई! गूफामां शांति छे के आत्मामां छे?
मकान तने अनीष्ट छे, के तारो मोह अनीष्ट छे? मोहने तो छोडतो नथी ने मकानने अनीष्ट मानीने

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: ८ : आत्मधर्म : र०७
छोडवा मांगे छे ते अभिप्राय ज जूठो छे, ने मिथ्या अभिप्राय सहितनो त्याग ते तो द्वेषथी भरेलो छे.
चैतन्यगूफामां प्रवेशीने शांतिना वेदनमां लीन थतां बाह्यपदार्थो प्रत्ये राग–द्वेष–मोहनी वृत्ति ज न
थाय तेनुं नाम त्याग छे; ने ज्यां राग–द्वेष–मोह छूट्या त्यां तेना निमित्तो (वस्त्रादि) पण सहेजे छूटी जाय
छे, तेथी तेनो त्याग कर्यो एम निमित्तथी कहेवाय छे. खरेखर बाह्यपदार्थोने ग्रहवा–छोडवानुं ज्ञानी मानता
नथी, तेने ग्रहण ने त्याग तो अंतरमां पोताना भावनुं ज छे. ते अंतरमां स्वभावने ग्रहीने (श्रद्धा–ज्ञान–
अनुभवमां लईने) रागादिने छोडे छे. जेणे रागथी पार चिदानंद स्वभावने जाण्यो ज नथी ते रागादिने
छोडशे कई रीते? अज्ञानीने आत्मानुं तो भान नथी ने बाह्यपदार्थोने ज देखे छे, एटले बाह्य सन्मुख ज
वर्ततो थको राग–द्वेषथी परपदार्थोने ग्रहवा–छोडवानुं ते माने छे; ते ऊंधी मान्यतामां तो तेने स्वभावनो
त्याग थई जाय छे ने रागादि विभावनुं ग्रहण थई जाय छे.–परनुं ग्रहण त्याग तो तेने पण थतुं नथी.
आ गाथमां त्रण वात बतावी छे.
(१) परमात्माने कांई ग्रहण–त्याग करवानुं कह्युं नथी.
(र) अंतरात्माने पोताना अंर्तभावोमां ज ग्रहण–त्याग छे.
(३) बहिरात्मा बहारमां ग्रहण–त्याग करवानुं माने छे.
(१) परमात्मा तो चिदानंदतत्त्वने समस्त परद्रव्योने परभावोथी भिन्न जाणीने, चैतन्यस्वरूपमां
ज स्थिर थई गया छे, एटले तेमणे ग्रहवायोग्य एवा पोताना ज्ञान–आनंदने ग्रही लीधा छे ने छोडवायोग्य
परभावोने सर्वथा छोडी दीधा छे, तेथी तेओ कृतकृत्य छे, हवे कांई ग्रहवानुं के छोडवानुं तेमने बाकी रह्युं
नथी. आ रीते परमात्मा तो ग्रहण–त्यागथी रहित छे.
(र) अंतरात्माए पोताना चिदानंद स्वरूपने समस्त परद्रव्यो अने परभावोथी भिन्न जाण्युं छे;
पण हजी तेमां पूरी लीनता थई नथी ने रागादि सर्वथा छूट्या नथी, एटले ते अंर्तप्रयत्नवडे शुद्ध ज्ञान
आनंदने ग्रहवा मांगे छे तथा रागादिने छोडवा मांगे छे. बाह्यपदार्थोथी तो पोते जुदो ज छे–एम जाण्युं छे
एटले बहारमां तो कांई ग्रहवा–छोडवानुं ते मानता ज नथी. अंतर्मुख थईने ग्रहवायोग्य एवा शुद्ध
आत्माने ग्रहण करीने (–तेमां एकाग्र थईने) रागादि परभावोने त्यागे छे. आ रीते अंतरात्माने पोताना
भावमां ज ग्रहण–त्याग छे.
(३) बहिरात्मा अंतरना चैतन्यतत्त्वने जाणतो नथी ने बाह्यपदार्थोने ज देखे छे, एटले
बाह्यपदार्थोमां ज ते ईष्ट–अनीष्टपणुं मानीने तेने ग्रहवा–छोडवा मांगे छे. ते जेने ईष्ट माने छे तेना उपर
रागनो अभिप्राय छे, अने जेने अनीष्ट माने छे तेना उपर द्वेषनो अभिप्राय छे. आ रीते, वीतरागी
अभिप्रायना अभावमां तेने परभावोनो त्याग तो नथी, पण रागद्वेषना अभिप्रायथी ते बाह्यपदार्थोना
ग्रहण–त्याग करवानुं माने छे.–एटले कदाच बाह्यमां त्यागी दिगंबर साधु थईने वनमां रहे तोपण तेने
असमाधि ज छे. चैतन्यमां अंतर्मुख थईने मिथ्यात्वादि परभावोने छोड्या वगर कदी समाधि थाय ज नहि.
धर्मात्मा कदाच गृहस्थपणामां होय तोपण चैतन्यमां अंतर्मुख थवाथी मिथ्यात्वादि परभावो जेटले अंशे छूटी
गया छे तेटले अंशे तेमने समाधि ज वर्ते छे, खातां–पीतां, बोलतां–चालतां, जागतां–सूतां, सर्व प्रसंगे
तेटली वीतरागी समाधि–शांति तेने वर्त्या ज करे छे.
बहारना ग्रहण–त्याग उपरथी अंतरना माप थाय तेम नथी. अंर्तद्रष्टिने नहि जाणनारा बाह्यद्रष्टि–
मूढ लोको बाह्य त्याग देखीने छेतराय छे, धर्मात्मानी अंर्तदशाने तेओ ओळखता नथी. बाह्यमां कांई त्याग
न होय, राजपाट ने भोगोपभोगना संयोग वच्चे रह्या होय छतां, धर्मात्मा क्षायिक समकिती होय ने
एकभवतारी होय; अने मिथ्याद्रष्टिजीव मोटा राजपाट ने हजारो राणीओ छोडीने, दिगंबर त्यागी साधु
थईने वनमां रहेतो होय...छतां अनंत संसारी होय! बहारथी जोनारा मूढ जीवो कई आंखे आनुं माप
काढशे? कई रीते तेने ओळखशे? ते तो बाह्यद्रष्टिनी मूढताने लीधे, बाह्यत्याग देखीने अनंतसंसारीने पण
मोटो धर्मात्मा मानी लेशे, ने एकावतारी धर्मात्माने ते ओळखशे नहि. अंतरनो अभिप्राय ओळख्या वगर
धर्मी–अधर्मीनी साची ओळखाण थाय नहि. ।। ४७।।

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पोष : र४८७ : :
[र४८र असाड सुद छठ्ठ: समाधिशतक गा. ४८]
अंतरात्मा पोताना ज्ञानने आत्मामां ज जोडीने मन–वचन–काया साथेनुं जोडाण छोडे छे, ए रीते
धर्मीने आत्मा सिवाय क्यांय ग्रहणबुद्धि होती नथी; ने अस्थिरताथी जे मन–वचन–काया तरफ जोडाण थाय
तेने पण छोडीने चैतन्यमां ज एकाग्रता करवा मांगे छे, ते वात बतावे छे–
युञ्जीत मनसाऽऽत्मानं वाकायाभ्यां वियोजयेत् ।
मनसा व्यवहारं तु त्यजेद्वाक्काययोजितम् ।। ४८।।
धर्मी अंतरात्मा पोताना मनने एटले के ज्ञानना उपयोगने आत्मा साथे जोडे छे, ने वचन–कायथी
भिन्न करे छे. वचन–कायानी क्रियाओ साथेना मनना जोडाणने ते छोडे छे, ने चिदानंदस्वभावमां ज ज्ञानने
एकाग्र करीने तेनुं ग्रहण करे छे. आमां परद्रव्यने छोडवानी वात नथी पण परद्रव्य तरफनो उपयोग छोडे छे
ने आत्मामां उपयोग जोडे छे. परथी भिन्नता जाण्या वगर परथी उपयोग छूटे नहि, पर द्रव्यथी भिन्न
स्वद्रव्यने जाण्या वगर उपयोग तेमां जोडाय शी रीते? अने स्वरूपमां उपयोग जोडाया वगर समाधि थाय
शी रीते? आ रीते स्व–परना भेदज्ञान वगर कदी समाधि थती नथी. ज्यां शरीर–वाणी वगेरेनुं कर्तृत्व माने
त्यां ते तरफ ज उपयोग जोडाय, पण त्यांथी जुदो पडीने उपयोग स्वमां आवे नहि, ने स्वमां उपयोग
आव्या वगर शांति पण थाय नहीं.
धर्मीए पोताना आत्माने देहादिथी अत्यंत भिन्न जाण्यो छे, तेथी समाधिनी सिद्धि माटे एटले के
आत्मानी परम शांतिना अनुभवने माटे, पोताना उपयोगने देहादि तरफथी पाछो वाळीने स्वरूपमां जोडे छे.
उपयोगने स्वरूपमां जोडवो ते ज परम शांतिदातार अध्यात्मभावना छे. आ शास्त्रमां फरीफरीने तेनो ज
उपदेश कर्यो छे, ने तेनी ज भावना करी छे.
जेटलुं बहिर्मुख वलण जाय तेटलुं दुःख छे, ने अंतर्मुख चैतन्यवेदनमां ज आनंद छे, एम स्व–
संवेदनथी जाणी लीधुं होवाथी धर्मी पोताना उपयोगमां आत्माने ज ग्रहवा मांगे छे. जगतना कोई पण
बाह्यपदार्थ प्रत्ये उपयोग जाय तो तेमां तेने पोतानुं सुख भासतुं नथी, एक निजस्वरूपमां ज सुख भास्युं छे;
आथी पर तरफना व्यापारने छोडीने स्व–तरफ उपयोगने जोडे छे,–एटले के स्वद्रव्यने ज ज्ञानमां ग्रहण करे
छे.–आ धर्मी जीवना ग्रहणत्यागनी विधि छे. आ सिवाय बहारमां कांई ग्रहवा–छोडवानुं नथी. उपयोगमां
ज्यां स्वद्रव्यनुं ग्रहण थयुं त्यां समस्त परद्रव्यो अने परभावो उपयोगथी बहार जुदा ज रही जाय छे, एटले
स्व तरफ वळेलो उपयोग तेमना त्यागस्वरूप ज छे. आ रीते उपयोगनी निजस्वरूपमां सावधानी ते ज
समाधि छे, ते ज मोक्षमार्ग छे, तेमां ग्रहवायोग्यनुं ग्रहण अने छोडवा योग्यनो त्याग थई जाय छे.
आ रीते अंतरात्मानी ग्रहणत्यागनी विधि समजावी. ।। ४८।।
अंतर्मुख थईने धर्मात्माए निजस्वरूपमां ज सुख छे एम अनुभव्युं छे, तेथी ते तेनो ज विश्वास
करीने तेमां रमे छे, निजस्वरूपथी बाह्य कोईपण पदार्थने तेओ विश्वास्य के रम्य (सुखरूप) मानता नथी.
जेने सुखस्वरूप आत्मानुं भान नथी ने देहने ज आत्मा मानी रह्या छे एवा मूढजीवो ज पर पदार्थमां
सुखनी कल्पना करीने तेने रम्य माने छे अने तेनो विश्वास करे छे.–ए वात हवेनी गाथामां कहे छे:–
जगत्देहात्मद्रष्टिनां विश्वास्यं रम्यमेव च
स्वात्मन्येवात्मद्रष्टिनां क्व विश्वासः क्व वा रतिः ।। ४९।।
ज्यां सुधी देहमां आत्मबुद्धि छे त्यां सुधी ज जगतना पदार्थो विश्वासनीय अने रम्य लागे छे, एटले के
बहिरात्माने ज जगतना पदार्थोमां सुख भासे छे; परंतु ज्यां पोताना आत्मामां ज आत्मबुद्धि थई त्यां बीजा
शेमां विश्वास होय? के बीजे क््यां रति होय? अंतरात्माने पोताथी बाह्य जगतना कोईपण पदार्थमां सुख
भासतुं नथी एटले तेमां विश्वास के रति नथी थती...चैतन्यस्वरूपनो ज विश्वास करीने तेमां ज ते रमे छे.
जुओ, आ धर्मात्मानुं रम्यस्थान! शांतिनुं लीलुंछम स्थान छोडीने धगधगता वेरान प्रदेशमां कोण
रमे? –तेम बाह्यपदार्थो तो आ आत्माना सुखने माटे वेरानप्रदेश जेवा छे, तेमां क््यांय सुख के शांतिनो
छांटोय नथी, उलटुं ते तरफनी वृत्तिथी तो धगधगता तापनी जेम आकुळता थाय छे. ने चैतन्यप्रदेशमां

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: १० : आत्मधर्म : २०७
रमतां परम शांति वेदाय छे. तो पछी आवा शांत रम्य चैतन्यप्रदेशने छोडीने उज्जड वेरान एवा परद्रव्यमां
कोण रमे?–तेने रम्य कोण माने? धर्मी तो न ज माने. जेणे शांतिधाम एवो रम्य आत्मप्रदेश जोयो नथी
एवा मूढ जीवो ज परद्रव्यमां सुख कल्पीने तेने रम्य समजे छे.
‘जगतमां जे पदार्थो दुःखदायक छे ते भले रम्य न हो, परंतु जे सुखदायक छे एवा स्त्री–पुत्र–लक्ष्मी
वगेरेने तो रम्य कहो?–एम कोई अज्ञानीने प्रश्न ऊठे तो तेनुं आ गाथामां समाधान कर्युं छे. अरे मूढ!
बाह्य पदार्थो तने सुखरूप रम्य लागे छे ते तारी बाह्यद्रष्टि अने देहद्रष्टिने लीधे ज लागे छे, खरेखर पोताना
आत्मा सिवाय बीजुं कोई सुखरूप के रम्य नथी.
जेने देहमां आत्मबुद्धि छे तेने संयोगमां सुखबुद्धि छे, ने तेने आखुं जगत विश्वासयोग्य तथा रम्य
लागे छे. ज्ञानी तो पोताना आत्माने जगतथी जुदो जाणीने आत्माने ज विश्वासयोग्य तथा रम्य जाणे छे.
पोताना चैतन्यतत्त्वमां ज जेनी द्रष्टि छे तेने बहारमां कोनो विश्वास? ने कोनो प्रेम? बहारना कोई
पदार्थोमां मारुं सुख छे एवो विश्वास ज्ञानी करता नथी. अज्ञानी परचीजने पोताना सुखनुं कारण मानीने
तेनो विश्वास अने प्रीति करे छे, पण आत्मामां सुख छे तेनो विश्वास के प्रीति ते करतो नथी. ज्ञानीने
चैतन्यना अतीन्द्रिय सुखनुं वेदन थयुं छे, एटले तेनो ज विश्वास अने तेनी ज प्रीति छे. जगतमां क्यांय
परमां मारुं सुख छे ज नहि एवुं भान छे तेथी परमां क्यांय सुखबुद्धिथी आसक्ति थती नथी. आ रीते
आत्मानी ज रति होवाथी ज्ञानी पोताना आत्मज्ञान सिवाय बीजुं कार्य अधिककाळ धारण करता नथी–ए
वात हवेनी गाथामां कहेशे.
विश्वासयोग्य एटले श्रद्धा करवायोग्य, अने रम्य एटले रमवायोग्य–लीन थवा योग्य; ज्ञानी तो आत्मामां
ज सुख जाणीने तेनी ज श्रद्धा अने लीनता करे छे; अज्ञानी परमां सुख मानीने तेनी ज श्रद्धा ने लीनता करे छे,
एटले तेने जगतना बाह्य विषयो सुखकर अने प्रिय लागे छे, आत्मा तेने प्रिय लागतो नथी. ज्ञानीने आत्मा ज
प्रिय लागे छे, आत्मा सिवाय बीजुं कांई तेने प्रिय लागतुं नथी.–‘जगत ईष्ट नहि आत्मथी.’
आत्माना स्वभाव सिवाय बहार लक्ष जईने जे शुभ वृत्ति ऊठे, ते शुभवृत्तिनो जेने प्रेम छे तेने
पण जगतना बाह्य विषयोनो प्रेम छे, आत्माना स्वभावनो प्रेम नथी. द्रव्यलिंगी मुनि थईने जे एम
मानतो होय के अठ्ठावीस मूळगुण वगेरे शुभ विकल्पो मने मोक्षनुं कारण थशे,–तो तेने रागनो ज विश्वास
छे, पण मुक्तिदातार एवो जे पोतानो वीतरागी आत्मा तेनो विश्वास तेने नथी. बाह्यपदार्थोना विश्वासे ते
ठगाई जशे; केमके जे बाह्य पदार्थोना आधारे ते सुख माने छे ते बाह्यपदार्थो तो क्षणमां खसी जशे. माटे
बाह्य विषयोमां जे सुख माने छे ते जरूर ठगाय छे–छेतराय छे. अने ज्ञानी तो चिदानंद स्वभावमां ज सुख
मानीने तेनी ज श्रद्धा अने तेमां रमणता करे छे, ते कदी छेतराता नथी, केमके पोतानो आत्मा कदी दगो देतो
नथी–तेनो कदी वियोग थतो नथी. संयोग तो दगो दईने क्षणमां छूटा पडी जाय छे. तेथी संयोगना विश्वासे
जे सुखी थवा मांगे छे ते जरूर छेतराय छे. आ शरीर ने आ अनुकूळ संयोगो जाणे सदाय आवा ने आवा
रह्या करशे एम तेनो विश्वास करीने अज्ञानी तेमां सुख माने छे, पण ज्यां संयोगो पलटी जाय ने
प्रतिकूळता थई जाय त्यां जाणे के मारुं सुख चाल्युं गयुं! एम ते छेतराय छे. पण अरे भाई! अनुकूळ
संयोग वखते पण तेमां कांई मारुं सुख न हतुं, तुं तेमां सुख मानीने छेतरायो. ज्ञानी तो जाणे छे के
संयोगनो शो विश्वास? तेमां क््यांय सुख देखातुं ज नथी. ज्ञानीनी नजर एक आत्मा उपर ज ठरे छे. बीजे
क््यांय जगतमां तेनी नजर ठरती नथी. राग उपर पण तेनी द्रष्टि ठरती नथी. एक आतमराममांज तेनी
नजर ठरे छे. अहो! मारो आत्मा एक ज मारा सुखनुं धाम छे, ते सिवाय जगतनुं कोई तत्त्व मारा सुखनुं
धाम नथी, तो ते पर द्रव्योनो शो विश्वास? ने तेमां केवी रति? मारो आत्मा ज मारुं आनंदनुं धाम छे–एम
ज्ञानीनी श्रद्धानो विषय पोतानो आत्मा ज छे.
ज्ञानी पोताना आत्मानो विश्वास करे छे.
अज्ञानी बाह्य संयोगनो विश्वास करे छे.

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पोष : २४८६ : ११ :
अज्ञानी बाह्यसंयोगोने सुखना दातार मानीने, ते संयोगमांथी सुख लेवा मांगे छे, पण संयोगो तो
सुख कदी आपता नथी, तेथी अज्ञानी छेतराय छे.
ज्ञानी बाह्यसंयोगोमां स्वप्नेय सुख मानता नथी, ते तो पोताना स्वभावने ज सुखनो सागर
जाणीने तेनो विश्वास अने तेमां एकाग्रता करे छे, ने ए रीते पोताना अतीन्द्रियसुखने भोगवे छे; ते
छेतराता नथी.
माटे हे भव्य! तारा आत्माने ज सुखनुं स्थान जाणीने तेनो ज विश्वास कर ने तेमां ज रमणता कर.
बाह्य पदार्थोमां सुखनी मान्यता छोड.–एम श्री पूज्यपादस्वामीनो उपदेश छे.
‘जगत ईष्ट नहि आत्मथी’–समकितीने पोतानो आत्मा ज ईष्ट छे, आत्मा ज वहालो छे, आत्मा
सिवाय बीजुं कांई जगतमां ईष्ट नथी, सुखरूप लागतुं नथी. समकिती चक्रवर्ती होय ने छखंडनुं राज–हजारो
राणीओ वगेरे होय छतां तेमां क्यांय मारुं सुख छे एम स्वप्नेय विश्वास करता नथी; ते बधा संयोगो तो
माराथी तद्न जुदा ज छे अने ते संयोगो तरफनी लागणीथी पण मने दुःख छे, तेमां क्यांय मारुं सुख नथी
सुख तो मारा चिदानंदस्वभावमां ज छे; आम स्वभावनो विश्वास करीने धर्मी वारंवार तेने ज स्पर्शे छे,–
तेमां वारंवार डुबकी मारीने शांतरसने वेदे छे. चैतन्यना विश्वासे ज्ञानीना वहाण भवसागरथी तरी जाय
छे–ने मोक्षमां पहोंची जाय छे.
।। ४९।।
वैराग्य समाचार
मोरबीना भाईश्री जगजीवन कासीदास महेता मागसर सुद १३ ना रोज
मोरबी मुकामे स्वर्गवास पाम्या छे. पू. गुरुदेव प्रत्ये तेमने घणो भक्तिभाव हतो.
वृद्धावस्था अने आंखोनी पूरी तकलीफ होवा छतां तेओ अवारनवार सोनगढ आवीने
गुरुदेवना प्रवचनोनो लाभ लेता; अने तेमना मनन माटे पू. गुरुदेवे पोताना पावन
हस्ते मंत्र लखी आपेल हतो के “सहज चिदानंद स्वरूप आत्मानुं स्मरण करवुं.” तेओ
प्रसन्नतापूर्वक तेनुं रटण करता. आध्यात्मिक शास्त्रोना स्वाध्याय–श्रवणनो तेमने घणो
प्रेम हतो. तेओ मोरबी मुमुक्षु मंडळना एक वडील तेमज कार्यवाहक कमिटिना सभ्य
हता. आ आत्मधर्मना लेखक ब्र. हरिभाईने परमकृपाळु गुरुदेवनुं चरणसान्निध्य प्राप्त
थवामां प्राप्त थवामां तेमनी प्रेरणा हती. स्वर्गवासना आगला दिवसे मोडी रात सुधी
उत्साहपूर्वक तेमणे तत्त्वश्रवण कर्युं हतुं. तत्त्व समजवानी जिज्ञासामां आगळ वधीने
तेओ पोतानुं कल्याण साधे, अने तेमना कुटुंबीजनो पण तेमना तत्त्वप्रेमनुं अनुकरण
करीने आत्महितना पंथे वळे... ए ज भावना.

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: १२ : आत्मधर्म : २०७
मोक्षने साधवानी कळा
अलौकिक मोक्षमार्गनी प्रसिद्धि करीने संतोए
मुमुक्षु जीवो उपर अलौकिक उपकार कर्यो छे
* स्वाश्रित मोक्षमार्ग *
आ समयसारनी र७रमी गाथामां मोक्षमार्गनो अबाधित नियम बतावीने आचार्यदेवे स्वाश्रयरूप
मोक्षमार्गनी प्रसिद्धि करी छे: हे जीवो! मोक्षनो मार्ग एक शुद्ध चैतन्यस्वभावना आश्रये ज छे; माटे
मोक्षार्थीए एवा स्वाश्रयरूप निश्चय वडे बधोय पराश्रित व्यवहार निषेधवा योग्य छे. अहा! चिदानंद
स्वभाव पण अलौकिक...अने तेना आश्रये थतो मोक्षमार्ग पण अलौकिक...ते अलौकिक मोक्षमार्गने प्रसिद्ध
करीने संतोए मुमुक्षु जीवो उपर महान उपकार कर्यो छे.
* सम्यग्द्रष्टिनी कळा *
मोक्षने साधवा माटेनी सम्यग्द्रष्टिनी कळा आचार्यदेवे आ समयसारमां बतावी छे. सम्यग्द्रष्टिने
स्वाश्रय भावमां मोक्षमार्गनी धारा निर्मळपणे चाली जाय छे. जेटलो पराश्रितभाव छे ते बधोय
सम्यग्द्रष्टिना विषयथी बहार छे. पराश्रये थतो भाव तो बंधनुं कारण होवाथी बाधक छे; ते बाधकभावमां
जे एकपणे वर्ते ते जीव मोक्षनो साधक केम होय? अने जे मोक्षनो साधक होय ते जीव बाधकभावमां
एकपणे केम वर्ते?–माटे मोक्षना साधक ज्ञानीधर्मात्मा पराश्रित भावोथी मुक्त ज छे, भिन्न ज छे, एटले शुद्ध
स्वभावना आश्रये ते पराश्रित एवा सघळाय व्यवहारने छोडीने मुक्ति पामे छे.–आ ज मोक्षने साधवा
माटेनी सम्यग्द्रष्टिनी कळा छे. आवी कळानुं नाम ज अपूर्व विद्या छे, ते ज वीतरागी विज्ञान छे.
* मोक्षने साधवा माटेनो महा सिद्धांत *
* एक तरफ अबंध–ज्ञातास्वभाव, तथा तेना आश्रये थतां सम्यग्दर्शनादि निर्मळ–अबंध परिणाम;
ते बंने अभेदपणे शुद्धनिश्चयमां आव्या.

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पोष : र४८७ : १३ :
* बीजी तरफ समस्त परद्रव्यो, तथा तेमना आश्रये थता रागादि बंध परिणाम; ते पराश्रित
व्यवहारमां गया.
–आ प्रकारे बंनेनुं भेदज्ञान करीने धर्मात्मा पोताना स्वभावना आश्रये निर्मळ परिणामनो ज कर्ता
थाय छे; पराश्रित भावरूप व्यवहारने ते पोताना स्वभावथी जुदो ज राखे छे. आ रीते सम्यग्द्रष्टि मुमुक्षु
व्यवहारनो निषेध करीने शुद्ध स्वभावना आश्रये मोक्षमार्गने साधे छे. अहा, आचार्यदेवे मोक्षने साधवा
माटे महा सिद्धांत बताव्यो छे के, मोक्षार्थीए जेम परमां एकत्वबुद्धिथी थतुं मिथ्यात्व छोडवा योग्य छे तेम परना
आश्रयथी थतो राग पण छोडवा योग्य ज छे. मोक्षने माटे शुद्धआत्मानो एकनो ज आश्रय करवा योग््य छे.
ज्ञानस्वभावी आत्मा अबंधस्वरूप छे, ते पोताना ज्ञान–दर्शन–आनंद साथे त्रिकाळ तद्रूप छे;
आवा आत्मानी द्रष्टि करवी ते सम्यग्दर्शन छे, ते सम्यग्दर्शन पण अबंध–परिणाम छे. आवा अबंधस्वरूप
आत्माने भूलीने, परमां एकत्वबुद्धिथी थतो जे मिथ्या अध्यवसाय ते बंधनुं कारण छे, एटले मोक्षार्थीए
ते छोडवा जेवो छे–एम भगवाननो उपदेश छे. आचार्यदेव कहे छे के, पर साथे एकतारूप अध्यवसाय
भगवाने छोडाव्यो छे ते उपदेशमांथी अमे एवुं तात्पर्य काढीए छीए के परना आश्रये थतो सघळोय
व्यवहारज भगवाने छोडाव्यो छे, केम के ते बंधनुं ज कारण छे. मोक्षनुं कारण तो अबंध स्वभावनो
आश्रय करवो ते ज छे.
* समकिती क््यां छे? *
* तेनी ओळखाण केम थाय? *
समकिती क््यां छे? समकिती परद्रव्यमां छे?–ना; समकिती पराश्रितभावमां छे?–ना, तो समकिती
क््यां छे?–समकिती तो पोताना सम्यक्त्वादि भावोमां ज छे. समकिती परद्रव्योमां नथी, ए ज रीते पर
द्रव्यना आश्रये थतां पराश्रितभावोमां पण समकित नथी. समकिती तो शुद्ध आत्माना आश्रये थता
सम्यक्त्वादि निर्मळभावोमां छे. पर द्रव्यने अने परभावो तो तेणे पोताना स्वभावथी जुदा जाण्या छे तो
तेमां समकिती केम होय? रागना के परना स्वामीपणे समकितीने ओळखे तो तेणे खरेखर समकितीने
ओळख्या ज नथी.
जेम, परद्रव्य छे तो स्वद्रव्य छे–एम नथी तेम, व्यवहार छे तो निश्चय छे–एम पण नथी. व्यवहार
तो परना आश्रये वर्ते छे ने निश्चय तो स्वना आश्रये वर्ते छे.–शुं जीवने परद्रव्यनो आश्रय छे माटे तेने
स्वद्रव्यनो आश्रय छे?–ना; जेम परने कारणे स्व नथी तेम पराश्रयने कारणे स्वाश्रय नथी, एटले
व्यवहारने कारणे निश्चय नथी. समकिती जाणे छे के–जेम परद्रव्यथी मारो आत्मा जुदो छे तेम पराश्रित एवा
रागादि भावोथी पण मारो आत्मा जुदो ज छे.–आ रीते समकिती–धर्मात्मा व्यवहारथी मुक्त छे, छूटो छे.
स्वाश्रये जे साधकभाव थयो छे–निर्मळभाव थयो छे ते तो व्यवहारना पराश्रयभावथी (–बाधकभावथी)
जुदो ज वर्ते छे. स्वाश्रयभावनी धारा निर्मळपणे मोक्षमार्गे चाली जाय छे, ने जेटलो पराश्रित भाव छे ते
बधोय सम्यग्द्रष्टिना विषयथी बहार छे. पराश्रये थतो भाव तो बंधनुं कारण होवाथी बाधक छे. ते
बाधकभावमां जे एकपणे वर्ते ते जीव मोक्षनो साधक केम होय? अने जे मोक्षनो साधक होय ते तेमां (–
बाधकभावमां) एकपणे केम वर्ते?– माटे मोक्षना साधक ज्ञानीधर्मात्मा पराश्रित व्यवहारथी मुक्त ज छे,
एटले शुद्ध स्वभावना आश्रय वडे ते व्यवहारने छोडीने मुक्ति पामे छे. आ ज मोक्षने साधवानी
समकितीनी कळा छे. आवी कळा द्वारा ज समकितीनी खरी ओळखाण थाय छे.

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: १४ : आत्मधर्म : २०७
जुओ, आ मोक्षमार्गनी रीत! अहा, मोक्षने साधता साधता संतोए आ मोक्षने साधवानी कळा
बतावीने जगतना जिज्ञासुओ उपर परम उपकार कर्यो छे.
* मोक्षने साधवानो एक ज कायदो...एक ज नियम *
मोक्षने साधवानो एक ज कायदो छे के जे निश्चयनो आश्रय करे छे ते ज मोक्षने साधे छे. माटे
मोक्षार्थीए निश्चयनो आश्रय करवो ने व्यवहारनो आश्रय छोडवो. सम्यग्द्रष्टि भेदविज्ञाननी आवी कळा वडे
स्वाश्रये मोक्षने साधे छे. आवी भेदज्ञान कळा वगर जीव बीजी गमे तेटली कळा भण्यो होय तोपण ते
मोक्षने साधी शकतो नथी. निश्चय अने व्यवहारनी वहेंचणी (पृथक्करण) करवानी कळा अज्ञानीने आवडती
नथी. अहीं तो निश्चय व्यवहारनुं स्पष्ट पृथक्करण करीने आचार्यदेवे मोक्ष माटेनो अफर नियम बताव्यो छे
के स्वाश्रित एवा निश्चयनुं अवलंबन ते ज मोक्षने साधवानी रीत छे, ने पराश्रित एवा व्यवहारना
अवलंबने कदी पण मोक्षने साधी शकातो नथी.
अभव्य जीव कदीपण सम्यग्दर्शनादि केम पामतो नथी?–कारणके ते कदी पण शुद्धात्मानो आश्रय
करतो नथी अने व्यवहारना आश्रयनो अभिप्राय छोडतो नथी; रागादिरूप व्यवहारनो ज आश्रय करीने
तेने ते मोक्षनुं (धर्मनुं) साधन माने छे, पण मोक्षनुं (धर्मनुं) खरुं साधन जे स्वाश्रय छे तेने ते अंगीकार
करतो नथी तेथी ते सम्यग्दर्शनादि पामतो नथी. आ वात कोने माटे करी? शुं एकला अभव्य जीवोने माटे ज
आ वात छे? –ना; अहीं अभव्यनुं तो द्रष्टांत छे, ते द्रष्टांत उपरथी जगतना बधाय जीवोने माटे आचार्यदेव
एम नियम समजावे छे के जे कोई जीवो शुद्धात्मानो आश्रय करे छे तेओ ज मुक्तिने पामे छे; अने जेओ
व्यवहारनो आश्रय करे छे तेओ बंधाय छे. माटे जे खरेखर मुमुक्षु होय...जेणे मोक्षने साधवो होय तेणे
निश्चयनय वडे शुद्धात्मानो आश्रय करवो ने पराश्रयरूप व्यवहारनो आश्रय छोडवो.–आ ज मोक्षनो पंथ
छे...आज मोक्षने साधवानी रीत अने कळा छे.
* स्वघरमां वसवुं तेनुं नाम वास्तु *
जेम अभव्य जीव मोक्षपरिणाम माटे अलायक छे, तेम परना आश्रये थता रागादि व्यवहारभावो
पण मोक्षपरिणाम माटे अलायक छे,–मोक्षनुं साधन थाय एवी लायकात तेमनामां नथी, एटले तेमना वडे
मोक्ष पमातो नथी. जेम जगतना परद्रव्यो आ आत्माना स्वभावथी जुदा छे तेम पराश्रितभावो पण आ
आत्माना स्वभावथी जुदा ज छे, आत्माना स्वभावमां तेमनो प्रवेश नथी. आत्मानो ज्ञानस्वभाव तो
अबंध छे ने रागादि पराश्रित भावो तो बंधरूप छे,–तेमने एकता नथी, पण भिन्नता छे. मोक्षपंथ एकला
चिदानंदस्वभावना आश्रये ज वर्ते छे.–आवा चिदानंदस्वभावने जाणीने तेना आश्रयमां वसवुं ते ज
स्वघरमां साचुं वास्तु छे.
* संतोनो उपकार *
अहो, चिदानंदस्वभाव अलौकिक...अने तेना आश्रये थतो मोक्षनो मार्ग पण अलौकिक...ते अलौकिक
मोक्षमार्ग प्रसिद्ध करीने संतोए मुमुक्षुओ उपर अलौकिक उपकार कर्यो छे.
(आसो वद ११ ना प्रवचनमांथी)
ङ्क

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पोष : र४८७ : १प :
आत्मानुं अकर्तापणुं क्यारे अने कई रीते?
अर्हंतदेवनो उपासक अने मोक्षनो साधक केवो होय?
[समयसार गाथा र३र थी र४४ ना प्रवचनमांथी: मागसर पूर्णिमा]
आत्मा चैतन्यप्रकाशस्वरूप छे.
ते चैतन्यप्रकाशी–आत्मा पदार्थोने जाणे छे पण करतो नथी.
जेनी द्रष्टिमां आवो चैतन्यप्रकाशी आत्मा आव्यो ते जीव चैतन्यथी बाह्य एवा रागादि परभावोनो
कर्ता के भोक्ता थतो नथी, पण चैतन्यना आनंदने ज अनुभवे छे.
आ रीते, चैतन्यप्रकाशी आत्मा स्वभावथी विकारनो कर्ता–भोक्ता न होवा छतां, ते कांई सर्वथा
अकर्ता ज नथी, कथंचित् कर्ता पण छे;
कथंचित् कर्तापणुं ए रीते छे के–
–ज्ञानभावे ते पोतानी ज्ञान–आनंद दशानो ज कर्ताभोक्ता छे, अने
–अज्ञानदशामां ते पोताना राग के हर्षादिनो कर्ताभोक्ता पोते ज छे.
कोई अज्ञानी जीव पोताना ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थईने निर्मळज्ञानभावरूपे तो परिणमतो नथी,
रागथी जुदो तो पडतो नथी, रागमां तन्मयपणे ज परिणमे छे, अने छतां एम कहे छे के मारो आत्मा
रागनो अकर्ता ज छे, ने कर्म ज राग करावे छे.–तो एवा जीवने आचार्यदेव युक्तिथी वस्तुस्थिति समजावे छे
के :–
हे भाई, तुं निर्मळ ज्ञानभावने पण करतो नथी, अने राग थाय तेनुं कर्तृत्व पण तुं स्वीकारतो नथी,
तो तारा आत्मामां कोई प्रकारे कर्तापणुं रह्युं ज नहीं! सर्वथा अकर्तापणानी तारी मान्यता थई,–तो तो
अनेकान्तमयश्रुतिनो (–जिनवाणीनो) तारा उपर कोप थयो, अर्थात् तारी मान्यता जिनवाणीथी विरुद्ध
थई, –एटले श्रुतिनी तारा उपर प्रसन्नता न थई, तारुं श्रुतज्ञान सम्यक् न थयुं पण कुश्रुत थयुं.
भाई, तुं एम समज के आत्मा कोई पर्यायने तो जरूर करे. हवे जे जीव ज्ञानपर्यायने न करे ते
अज्ञानभावे रागादिने करे.
जे जीव ज्ञानपर्यायने करे ते रागादिनो अकर्ता थाय. अमे जे अकर्तापणुं उपदेश्युं ते तो ज्ञान
स्वभावनी सन्मुख थई, रागथी भेदज्ञान करी, वीतरागी–विशुद्ध ज्ञानभाव प्रगट करवा माटे ज उपदेश्युं हतुं.
आत्मा रागनो अकर्ता, ज्ञान–

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: १६ : आत्मधर्म : २०७
स्वरूप छे एम समजनार जीव ज्ञानसन्मुख थई, रागथी जुदो पडी पर्यायमां पण रागनो अकर्ता थाय छे.
पण जे जीव ज्ञानसन्मुख थतो नथी, रागमां ज तन्मय रहे छे. ते कांई रागनो अकर्ता नथी, ते तो
अज्ञानभावथी रागनो कर्ता ज छे. रागमां तन्मय पण रहे, अने कहे के रागनो कर्ता मारो आत्मा नथी पण
कर्म तेनो कर्ता छे–तो ते जीव श्रुतिने समज्यो ज नथी, जिनवाणीनी तेने खबर नथी. जिनवाणी तो कहे छे
के आत्मा कथंचित् कर्ता छे.
अहीं शिष्य दलील करे छे के प्रभो! जिनवाणी आत्माने कथंचित् कर्ता कहे छे ते अमने मान्य छे, कई
रीते? के आत्मा पोते पोताने करे छे. ने रागने करतो नथी; राग तो पुद्गलनुं कार्य छे.
तो आचार्यदेव तेने कहे छे के अरे मूढ! तारो आत्मा कया आत्माने करे छे? शुं त्रिकाळी आत्माने
करे छे? त्रिकाळी नित्य आत्मा तो कांई नवो थतो नथी, के जेनो कोई कर्ता होय! वळी आत्माना
असंख्यप्रदेशो पण त्रिकाळ एवा ने एवा शाश्वत छे, ते प्रदेशोमां पण कांई करवापणुं नथी. हवे त्रिकाळी
ज्ञानादि गुणोरूप जे भाव छे तेमां पण कांई करवापणुं नथी; हवे बाकी रही वर्तमानपर्याय. सामान्यमां
करवापणुं होय नहि, करवापणुं विशेषमां (–पर्यायमां) होय; हवे पर्यायमां मिथ्यात्वादि भावो होवा
छतां तुं तेनुं कर्तापणुं तो मानतो नथी, ने कर्म ज तेनुं कर्ता छे–एम तुं कहे छे, तो तारा आत्मामां कोई
प्रकारनुं कर्तापणुं रह्युं ज नहीं; कर्तापणा वगर आत्मा ज न रह्यो; एटले हे मूढ! कर्म मने मिथ्यात्वादि
करावे छे’ एवी तारी मान्यतामां तो तुं आत्मघाती थयो, तारा आत्मानो ज तें घात कर्यो, आत्महिंसा
ए ज जीवहिंसानुं मोटुं पाप छे.
–तो शुं करवुं? के हे भाई! अज्ञानदशामां जे मिथ्यात्वादिभावो छे तेनो कर्ता अज्ञानभावे तारो
आत्मा ज छे, एम तुं समज; पण विशुद्धज्ञानस्वभावमां तेनुं कर्तृत्व नथी एम समजीने ते स्वभावनी
सन्मुख था, एटले पर्यायमां पण मिथ्यात्वादिनुं अकर्तापणुं थई जशे–मिथ्यात्व रहेशे ज नही सम्यग्दर्शनादि
निर्मळभावो प्रगट थतां तेमां रागनुं पण अकर्तापणुं थशे.
भाई! रागमां तन्मय रहीने रागनुं अकर्तापणुं केम थाय?–न ज थाय. रागथी जुदो पडीने
ज्ञानधाममां आव...तो रागनो अकर्ता था.
जे जीव आ रीते ज्ञानधाममां आव्यो ने रागनो अकर्ता थयो, ते वीतराग अर्हत्देवनो खरो
अनुयायी थयो अने ते जीव पोते रागनो अकर्ता रहीने बीजा अज्ञानी जीवोमां रागनुं कर्तृत्व छे तेने जाणे
छे, पण जडकर्म रागादि करावे छे एम मानता नथी.
आ रीते
* ज्ञानदशामां शुद्धज्ञानभावनो कर्ता,
विकारनो अकर्ता;
* अज्ञानदशामां विकारनो कर्ता
ने परनो तो अकर्ता
* ज्ञानभावे के अज्ञानभावे पण आत्मा परनो तो अकर्ता ज छे अने पर–जडकर्म पण
जीवना भावनुं अकर्ता ज छे.
– आवो अर्हंतदेवनो मत जे जीव जाणे छे ते जीव परथी पृथकपणुं जाणी, विभावथी पण विमुख
थई, ज्ञानस्वधाममां आवीने सम्यग्दर्शनादि निर्मळपर्यायने ज करतो थको, मिथ्यात्वादिनो अकर्ता ज रहे छे.–
ते ज खरो अर्हंतनो उपासक अने मोक्षनो साधक छे.
*

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पोष : र४८७ : १७ :
क््यो जीव मोक्षने साधे छे?
प्रश्न :– अज्ञानी जीवने धर्मनी श्रद्धा छे के नहीं?
उत्तर :– रागथी धर्म माननारो अज्ञानी जीव मोक्षना हेतुरूप धर्मने श्रद्धतो नथी; केमके शुद्धज्ञान–
चेतनामय आत्माने ते श्रद्धतो नथी; अने मोक्षना हेतुरूप धर्म तो शुद्धज्ञानचेतनामय आत्माना ज
आश्रये छे; तेथी शुद्धज्ञानमय आत्माना आश्रय वगर मोक्षना कारणरूप धर्मनी खरी श्रद्धा थती नथी.
प्रश्न :– तो अज्ञानी जीवनी श्रद्धा केवी छे?
उत्तर :– अज्ञानीजीव भोगना हेतुरूप रागने ज धर्म माने छे एटले ते भोगना हेतुरूप धर्मने ज श्रद्धे
छे. उपयोगने रागमां एकाकार करीने, जाणे के आ ज मने मोक्षनुं कारण थशे–एम अज्ञानी माने छे,
एटले ज्ञानमात्र भूतार्थधर्म (–के जे कर्मथी छूटवानुं निमित्त छे) तेने ते अज्ञानी श्रद्धतो नथी, पण
जे कर्मबंधनुं–अने संसारना भोगनी प्राप्तिनुं कारण छे एवा अभूतार्थधर्मने (–रागने) ज ते श्रद्धे
छे.–आ रीते मोक्षना कारणरूप भूतार्थधर्मनी श्रद्धाना अभावने लीधे अज्ञानीने साची श्रद्धानो
अभाव छे, एटले के तेनी श्रद्धा खोटी छे. जेम शुद्धज्ञानमय आत्माना ज्ञानना अभावने लीधे तेने
सम्यग्ज्ञाननो अभाव छे, तेम शुद्धज्ञानमय भूतार्थधर्मनी श्रद्धाना अभावने लीधे तेने सम्यक्श्रद्धानो
पण अभाव छे. अने ज्यां सम्यक् ज्ञान–श्रद्धान न होय त्यां सम्यक् चारित्र तो क््यांथी होय?–न ज
होय, एटले ते अज्ञानीने सम्यक् चारित्रनो पण अभाव छे.–आ रीते, जेओ शुद्धज्ञानमय निश्चयनो
आश्रय नथी करता ने व्यवहारनो ज आश्रय करे छे तेओने सम्यग्दर्शन–ज्ञान– चारित्ररूप
मोक्षमार्गनो अभाव छे, व्यवहारना आश्रये वर्तनार ते अज्ञानीओ बंधमार्गमां ज प्रवर्ते छे. जेओ
निश्चयनो आश्रय करे छे तेओ ज मोक्षमार्गने पामे छे.
आ रीते निश्चयनो आश्रय ते ज मोक्षमार्ग होवानो नियम बतावीने आचार्यदेव कहे छे के–
आम होवाथी मोक्षार्थी जीवोए निश्चयनयवडे व्यवहारनो निषेध करवो–ते योग्य ज छे.
प्रश्न :– मोक्षमार्गी–सम्यग्द्रष्टि केवो छे?
उत्तर :– सम्यग्द्रष्टि रागथी छूटो छे, पोताना उपयोगने ते रागथी छूटो ज राखे छे, रागमां एकमेक करतो नथी.
राग अने शुद्धात्मा–ए बंनेनुं भेदज्ञान करीने, शुद्धात्माना आश्रये ते सम्यग्द्रष्टि जीव मोक्षमार्गरूपे परिणमे छे.
प्रश्न :– बंधमार्गी–मिथ्याद्रष्टि केवो छे?
उत्तर :– जे बंधमार्गमां प्रवर्ती रह्यो छे एवा मिथ्याद्रष्टिनुं चित्त रागथी रंगायेलुं छे, ते पोताना
उपयोगने राग साथे एकमेक मानीने अनुभवे छे; रागनी अने उपयोगस्वरूप आत्मानी भिन्नताने
ते ओळखतो नथी; तेथी भेदज्ञानना अभावने लीधे, शुद्धात्मानो आश्रय नहि करतो थको अने
रागनो ज आश्रय करीने परिणमतो थको ते अज्ञानी जीव कर्मोथी बंधाय छे ने संसारमां रखडे छे.
प्रश्न :– अज्ञानीजीव मोक्षहेतुधर्मने नथी श्रद्धतो ने भोगहेतुधर्मने श्रद्धे ज छे–एम कया हेतुथी
आचार्यदेवे कह्युं छे?
उत्तर :– आ अध्यात्मग्रंथमां अनुभवप्रधान हेतु आपीने आचार्यदेव कहे छे के, ते अज्ञानीने
शुद्धात्माना अनुभवनो असद्भाव होवाथी एम नक्की थाय छे के ते जीव रागना ज अनुभवमां
अटकेलो छे एटले तेने भोगहेतुधर्मनुं ज (–रागनुं ज) सेवन छे, मोक्षहेतुधर्मनुं (–शुद्धात्माना
आश्रयनुं) सेवन नथी. जीवने कां तो शुद्धात्मानुं सेवन होय, अने कां तो रागनुं सेवन होय. तेमां
एकनो अभाव ते बीजानो सद्भाव सूचवे छे. जेने शुद्धात्मानुं सेवन (श्रद्धा–ज्ञान–अनुभवन) नथी
तेने रागनुं सेवन जरूर छे. एकसाथे रागमां तेमज शुद्धात्मामां ए बंनेमां एकत्वबुद्धि रही शके नहि.
प्रश्न :– क््यो जीव मोक्षने साधे छे?
उत्तर :– शुद्धात्मामां एकत्वबुद्धि करीने तेनो ज जे आश्रय करे छे ते तो मोक्षने साधे छे, तेने रागमां
एकत्वबुद्धि रहेती नथी. अने जेने रागमां एकत्वबुद्धि छे ते रागना आश्रये बंधाय ज छे, तेने चैतन्यनो
आश्रय नहि होवाथी ते सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग पामतो नथी. आ रीते व्यवहारना पक्षनो आशय जीवने
संसार परिभ्रमण करावे छे...माटे आचार्यदेव करुणाथी कहे छे के हे मोक्षार्थीजीवो! संसारपरिभ्रमणथी
छूटवा माटे तमे व्यवहारना पक्षनी बुद्धि छोडो ने मोक्षने माटे शुद्धनयनुं अवलंबन करो.
(समयसार गा. र७प उपरना प्रवचनमांथी.)

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: १८ : आत्मधर्म : २०७
बा...ल...वि...भा...ग
गया अंकना त्रण प्रश्नोना जवाब
(१) ‘आत्मसिद्धि’ नी १०८मी गाथाने घणी मळती आवे एवी ३८ मी गाथा छे; ते बंने गाथाओ नीचे
मुजब छे–
कषायनी उपशांतता मात्र मोक्ष अभिलाष, कषायनी उपशांतता मात्र मोक्ष अभिलाष,
भवे खेद अंतर दया, ते कहिये जिज्ञास. (१०८) भवे खेद प्राणी दया, त्यां आत्मार्थ निवास. (३८)
(र) मनःपर्ययज्ञान, सम्यग्दर्शन भेदज्ञान अने मुनिदशा–आ चार वस्तुओमांथी मनःपर्ययज्ञानमां बाकीनी
त्रणे वस्तुओ चोक्कस आवी जाय छे. केमके मनःपर्ययज्ञान मुनिदशामां ज थाय छे, ने मुनिदशा
सम्यग्दर्शन अने भेदज्ञानवाळा जीवने ज होय छे. आ रीते ज्यां मनःपर्ययज्ञान होय त्यां मुनिदशा,
सम्यग्दर्शन अने भेदज्ञान ए त्रणे वस्तुओ जरूर होय ज छे. मनःपर्ययज्ञान मुनिदशा वगर होतुं
नथी, ने मुनिदशा सम्यग्दर्शन के भेदज्ञान वगर होती नथी. घणा बाळकोए आ प्रश्नना जवाबमां
“मुनिदशा” लखेल छे, परंतु ते जवाब बराबर नथी केमके घणीवार मुनिदशा होवा छतां
मनःपर्ययज्ञान नथी होतुं. मनःपर्ययज्ञान कोईक ज मुनिओने होय छे. कांई बधाय मुनिओने नथी होतुं.
(३) त्रीजा प्रश्ननो जवाब छे–“अकलंक”:: श्री अकलंकस्वामी महावीर भगवान पछी लगभग १२०० वर्ष
बाद थई गया. तेमना नामनो बीजो अने चोथो अक्षर सरखा छे, पहेलो अने त्रीजो अक्षर सरखा
नथी; छेल्ला त्रण अक्षर ‘क लं क’ छे, सिद्धभगवानमां कलंक नथी अने छेल्ला बे अक्षर ‘लंक’ छे ते
लंकामां छे. बाळको, आ अकलंकस्वामीनी जीवनकथा तमने बहुज गमे तेवी छे. कोईवार आपणे
बालविभागमां ते आपशुं.
त्र...ण...प्र...श्नो
(१) बे भाई एवा..
के साथे साथे रमता,
साम सामे लड्या
ने अंते मोक्ष पाम्या...
–ए बे भाई कोण?
(र) नीचेनी वस्तुओमांथी जीवमां कई कई वस्तु
होय,ने अजीवमां कई कई वस्तु होय ते
जुदी पाडो–
राग, सुख, धर्म, वीतरागता,
दुःख, ज्ञान, अज्ञान, संसार.
(३) कोई जीव पासे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान ने
सम्यक् चारित्र एवा त्रण महान रत्नो छे;
हवे धारो के तेनी पासेथी पहेलुं रत्न
खोवाई जाय तो बाकी कयाकया रत्नो तेनी
पासे रहेशे?
(बाळको, आ वखते तमारा जवाबो वेलासर
मोकली आपशो, पुनम सुधीमां मोकली देशो.)
सरनामुं: आत्मधर्म–“बाल विभाग”
स्वाध्यायमंदिर–सोनगढ (सौराष्ट्र)
एनुं जीवन धन्य छे... एनां चरण वंद्य छे.
आकाश जेनुं छत्र छे...धरती एनुं सिंहासन छे.
गूफा जेनो महेल छे...वायु एनां वस्त्र छे.
समकित जेनो मुगट छे...चारित्र एनो हार छे.
ज्ञान जेनो रथ छे...अनुभव एनो ध्वज छे.
आनंद जेनो आहार छे...शांतरस एनुं पीणुं छे.
ध्यान जेनुं शस्त्र छे...वैराग्य एनुं बख्तर छे.
रत्नत्रय जेनुं धन छे...वन एनुं घर छे.
अनंतगुण जेनुं कुटुंब छे...कर्मना ए घातक छे.
धर्म जेनुं जीवन छे...चैतन्य एनुं ध्येय छे.
भवथी जे भयभीत छे...मोक्षना ए साधक छे.
एनुं जीवन धन्य छे एनां चरण वंद्य छे.

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पोष : र४८७ : १९ :
धर्मप्रेमी बाल बंधुओ! जेम तमने अमारो “बालविभाग” गम्यो तेम अमने तमारा जवाबो गम्या.
तमे सौ होंसपूर्वक बालविभागमां भाग लई रह्या छो–ते बदल सौने धन्यवाद! तमारा जवाब साचा पडे के
भूल पडे तो पण उत्साहथी भाग लेजो,–केमके ‘आत्मधर्म’ वांचीने जवाबो शोधवानो तमे प्रयत्न करो छो ते ज
तमारे माटे प्रशंसनीय छे. जवाबो साथे घणा बाळकोना उत्साहभर्या पत्रो आव्या छे, कोईके वार्ता मोकली छे,
तो कोईके नवा कोयडा के काव्यो लखी मोकल्या छे, कोईके चित्रो चीतरीने मोकल्या छे, तेमना उमंग बदल
धन्यवाद! परंतु बाळको! आपणो बाळविभाग हजी नानकडो छे...एटले तमारुं बधायनुं लखाण तेमां क्यांथी
लई शकाय? जवाबो लखती वखते तमारा नामनी साथे “जैन” लखशो तो मने गमशे. आवता अंकना प्रश्नो
“जैन बाळपोथी” मांथी पूछाशे माटे अत्यारथी तेनो अभ्यास करजो. आ वखते १३४ बाळकोए जवाब लखी
मोकल्या छे, तेमांथी ९० बाळकोना जवाबो संपूर्ण साचा छे, जग्या ओछी होवाथी तमारा नामो टूंकामां ज
आप्या छे (जेनामां नाम कौंसमां लखेल छे तेमना जवाबमां जरा जरा भूल छे.) –जय जिनेन्द्र
मुंबई : रोहितकुमार म.जैन,दिपक जैन,निरंजन जैन.,
मंजुलाबेन, रमीलाबेन, (दिपक एच.) शांताक्रुझ:
हंसाबेन निरजकुमार,
राजकोट: किरीटकुमार, दिलिपकुमार, अतूल जैन,
जतीन जैन, प्रज्ञाबेन, प्रवीणकुमार, महेन्द्र, हरिश,
नयनाबेन,(नीलाबेन, दिलीपकुमार के., सुरेखाबेन,
दीपक जैन, धनराज, रोहितकुमार)
जामनगर: वासंतीबेन, रविन्द्रकुमार, (चंदना जैन,
मंजुलाबेन.)
कलकत्ता: जसवंतकुमार जैन,
वढवाण शहेर: पाठशाळानी बाळाओ, रंजनबेन,
रमेशचन्द्र जैन, बिपिनचन्द्र जैन, चुनीलाल,
जितेन्द्र जैन, नलिनीबेन, त्रंबकलाल रमीलाबेन,
नलिनीबेन एन. हसमुखलाल, चमनलाल.
(भरतकुमार, मंजुलाबेन, कान्ताबेन)
घोड नदी: रीखवदास जैन, फूलचंद जैन,
[गीरधरलाल]
वींछीया:वसुमतीबेन,रमेशजैन,किशोर जैन, नयनाबेन,
जयेन्द्रकुमार, महेन्द्रकुमार, शशिकान्त, करणकुमार जैन,
मीनाक्षीबेन, वीरागबेन, मीनाक्षीबेन एच. किरण जैन,
कांतिलाल जैन, जयंतबाळा, कोकिलाबेन, प्रमोद,
रमीलाबेन, महेश जैन, चन्द्रकान्त, (रमेशचंद्र)
मोरबी: सुधाबेन, भरतकुमार जैन, भानुबेन,
गिजेन्द्रबाळा, जयश्रीबाळा, महेशचन्द्र जैन, मधुकर
जैन.(अरविंद कुमार जैन,भूपेन्द्र जैन,नरेन्द्र जैन.)
लींबडी: नरेशकुमार जैन, सुरेश जैन, हसमुख जैन,
नलिनकुमार, अमृतलाल जैन, लीलाधरकुमार,
रसिलाबेन, सुधाबेन, नरेन्द्रकुमार, फूलचंद जैन.
सुरेन्द्रनगर: अरूणाबेन, (नीलाबेन),
वांकानेर: वर्षाबेन, सुधाबेन, जितेन्द्र जैन,
सुभाषचंद्र जैन, (पारूल, व्योमेशचंद्र, रजनीकान्त,
ज्योतिबाळा, मनहरलाल)
गोंडल:वनमाळीदास,(देवराजकुमार,लीलावतीबेन)
भावनगर: नीरूपमा जैन.
सुरत: (प्रफूल्लकुमार, निरंजनाबेन,)
अमदावाद: भरतकुमार जैन, रजनीकान्त जैन,
नवनीतकुमार जैन, सुलोचनाबेन, विनोदकुमार
जैन, (किरिटकुमार, नीलाबेन,
पोरबंदर: क्रिष्नाबेन,
महेसाणा: (हसितकुमार, नीलाबेन, प्रियवदन)
पालेज: (अरूणाबेन)
बोटाद: (मीरांबेन जैन)
ध्रांगध्रा: धीमंतकुमार जैन
गढडा:(सतीश,प्रफुल,सुशीलाबेन,हर्षदकुमार,महेन्द्र,
सुरेशकुमार, जितेन्द्र, चीमनलाल, सरोजबाळा)
नवा: जयंतिलाल जैन
दहेगाम: (मुकेश जैन, अनिता,)
हाटम: नरेश जैन
सोनगढ: प्रदीप जैन, ज्योतिबाळा, जिनमति,
जिनबाळ, जितेन्द्र, प्रवीणसिंह, पवनकुमार, अरूण,
रेणुकाबेन, ज्योतिन्द्र सी, दीनेश जैन, किरीट बी.
शैलेश, हेमंत, किरिट सी. भरतकुमार एच.,
निरंजन एच, भरतकुमार के., नटवर जैन,
पूर्णाबेन, सुरेश ए. सोभागचंद्र, धरमचंद,
विणाबेन, हर्षद जैन, प्रवीण जैन, आशिष जैन.
लाठी: प्रफूल्लाबेन, लत्ताबेन, शांतिलाल जैन,
गीरीशचंद्र जैन.
मलकापुर: (चंदनकुमारी)
बडी सादडी (राजस्थान) : (सुजानमल जैन)
अलीगंज: दिनेशचंद्र जैन
खंडवा: शीलाबेन जैन, वीणाबेन जैन
दिल्ही: अतरसेन जैन [हरिशचन्द्र जैन]
गामना नाम वगरना: ललितकुमार सुरेन्द्र जैन,
(सज्जनलाल बन्डी;)