महा : र४८७ : ३ :
य धर्मात्माना हृदयमां स्फुरती सहज आत्मसंपदा य
धर्मात्मा ज्यारे पोताना चिदानंदस्वरूपमां एकाग्र थाय छे त्यारे ते उत्तम
आत्माना हृदयमां समतानी साथे साथे आत्मसंपदा स्फुरायमान् थाय छे...अतीन्द्रिय
आनंदना झरणां वहे छे. जुओ, आनुं नाम समाधि छे. पहेलां चोथा गुणस्थाने पण
आ जातनी सम्यकत्त्वसमाधि थाय छे. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान ने सम्यक्चारित्र ए
त्रणेय समाधि छे, त्रणेयमां आत्मसंपदानुं स्फुरण थाय छे. सम्यक्त्वनी स्फुरणा थतां
धर्मात्माना हृदयमां जाणे सिद्ध भगवान पधार्या! एम ते पोतानी आत्मसंपदाने
अनुभवे छे. अहीं मुनिराज कहे छे के अहा! अतीन्द्रिय आनंदथी भरेली आ सहज
आत्मसंपदा ते अमारा जेवाओनो विषय छे,–छतां अमे पण ज्यांसुधी अंर्तमुख
थईने समाधिरूप परिणमता नथी त्यांसुधी अमे ते आत्मसंपदाने अनुभवता नथी.
शुभवृत्तिनुं उत्थान पण अमारी चैतन्य संपदामां संपदाना अनुभवने रोकनार छे.
स्वाश्रयवडे ज्ञायक स्वरूपमां लीनता ते समाधि छे, आ वीतरागी समाधिमांथी
आनंदना झरणां झरे छे, ने ते समस्त कर्मकलंकने धोई नांखे छे. जुओ, आ समाधि!
चैतन्यने भूलेला अज्ञानी जीवो बाह्य विषयोमां लीनताथी मूढ थईने अनंतकाळथी
असमाधिपणे मरे छे, जीवतां पण तेने असमाधि छे, ने मरतां पण ते असमाधिपणे
मरे छे;–भले कदाच भगवाननुं नाम बोलतां बोलतां प्राण छोडे तो पण चैतन्यना लक्ष
वगर तेने असमाधि ज छे. चिदानंद तत्त्वनुं भान थतां तेना आश्रये धर्मात्माने
वीतरागी समाधिमां अवर्णनीय आनंद स्फुरे छे. सम्यग्दर्शन थतां पण अंतरमां एवो
आनंद धर्मात्माने स्फूरे छे के अज्ञानीने कल्पनामांय न आवे. तो चैतन्यमां लीन
मुनिवरोना आनंदनी शी वात!! आवा परम आनंदनी स्फूरणा ते समतानी सखी छे,
एटले के उत्तमपुरुषोने समाधिवखते हृदयमां समतानी साथे आवा आनंदनी स्फूरणा
थाय छे. संत–धर्मात्माओ सिवाय बीजानो आ विषय नथी.
“समाधि वरं उत्तमं दिंतु” एम भगवान पासे प्रार्थना करे छे तेमां आ
समाधिनी मागणी छे. समाधि शुं तेनी ओळखाण पण जेने नथी, ते तो, भगवान
पासे शुं मांगे छे तेनी पण खबर नथी, तेने समाधि क्यांथी होय? समाधि तो
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रमां छे, ने ते चैतन्यना आश्रये ज थाय छे. ते समाधिमां
धर्मात्माने समतानी साथे साथे सहज आनंदना वेदनरूप आत्मसंपदा स्फूरे छे.
जुओ, आ धर्मात्मानी संपदा! धर्मात्मा उत्तम आत्मा चैतन्यनी आनंद संपदाने
ज पोतानी संपदा माने छे, चैतन्यना आनंदनी संपदा पासे आखा जगतनी संपदाने
ते तूच्छ समजे छे. चैतन्यना आनंदने चूकीने बाह्यविषयोमां जे सुख माने छे ते तूच्छ
बुद्धिवाळो छे. सहज आत्मसंपदा तेनो विषय नथी अर्थात् ते तूच्छ बुद्धिवाळा जीवने
चैतन्यसंपदानो अनुभव थतो नथी. धर्मात्माओ ज चिदानंदस्वभावनी संपदाने उत्तम
जाणता थका समाधि वडे अंतरमां तेने अनुभवे छे.
सम्यग्दर्शन ते पण आवा अनुभवथी ज प्रगटे छे. सम्यग्दर्शन थतां धर्मात्माना
हृदयमां सहज आनंदनी स्फूरणा थाय छे...ने मोक्षनो मार्ग खुली जाय छे.
आसो वद चोथ; नियमसार कलश २०० उपरना प्रवचनमांथी