फागण : २४८७ : ३ :
वर्ष अढारमुं : अंंक प मो संपादक : रामजी माणेकचंद दोशी फागण : २४८७
ज्ञान
आत्मा ज्ञानस्वरूप छे; जगतना कोई पण प्रसंगने के कोई पण
पदार्थने जाणती वखते, तेने जाणनारुं पोतानुं ज्ञान त्यां वर्ती ज रह्युं छे;
परंतु त्यां ‘आ ज्ञान छे ते हुं छुं’–एवा ज्ञानस्वरूपनो स्वीकार न करतां,
एकला ज्ञेयोनोज स्वीकार करे छे ते जीव अज्ञानभावने लीधे, परद्रव्य
साथे एकता बुद्धिरूप मोहथी, आत्माने साधी शकतो नथी. सर्व प्रसंगे
मारूं ज्ञान सर्व परज्ञेयोथी पृथक्पणे वर्ती रह्युं छे, ने ए ज्ञानस्वरूप हुं छुं,
–परने जाणतां हुं पररूप थई जतो नथी, –आम ज्ञानस्वरूपे पोताना
आत्माने अनुभवतां भगवान आत्मानी प्रसिद्धि थाय छे.
ज्ञेयोने जाणतां, अज्ञानीने एकलुं परज्ञेय ज देखाय छे; पण ते
ज्ञेयोने जाणनारुं पोतानुं ज्ञान त्यां वर्ती रह्युं छे ते तेने देखातुं नथी,
एटले ज्ञानस्वरूप आत्माने ते साधी शकतो नथी, देखी शकतो नथी.
ज्ञेयोने जाणती वखते पण आमां जे जाणनार छे ते ज हुं छुं अर्थात्
ज्ञानस्वरूप ज हुं छुं– एम जाणतो थको धर्मीजीव निःशंकपणे सदा पोताने
ज्ञानस्वरूपे ज अनुभवे छे. एटले ज्ञानस्वरूप आत्मानी तेने सिद्ध थाय छे.
माटे आत्माने सदा ज्ञानस्वरूपे सेववो.
अनादिथी आत्माने रागरूपे मानीने रागनुं ज सेवन कर्युं छे, पण
रागथी भिन्न ज्ञानस्वरूपे आत्माने ओळखीने तेनुं सेवन पूर्वे कदी क्षणमात्र
पण कर्युं नथी. जो आत्माने ज्ञानस्वरूपे ओळखीने एकक्षण पण तेनुं सेवन
(श्रद्धा–ज्ञान–रमणता) कहे तो तेना सेवनथी जीव अवश्य मुक्ति पामे छे.
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