Atmadharma magazine - Ank 210
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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चैत्र : २४८७ : :
निश्चय – व्यवहार मीमांसा
( त्त् . )
(मूळ पुस्तक पृ. १९७ त्रीजी लीटीथी अनुवाद चालु)
२३. मूळ नय बे छे:–निश्चयनय अने व्यवहारनय ए बन्ने नयो मूळ नय छे. तेनो उल्लेख नयचक्रनी
गाथा १८३ मां आ शब्दोमां करेल छे. “सर्व नयोना निश्चयनय अने व्यवहारनय ए बे मूळ भेद छे. तथा
द्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिकनयने निश्चयनयनी सिद्धिना हेतु जाणो” समयसारमां ए नयोना स्वरूपनुं वर्णन
गा. ११ मां नीचे मुजब कर्युं छे. अर्थ– “आगममां (शास्त्रमां) व्यवहारनयने अभूतार्थ अने निश्चयनयने
भूतार्थ कहेल छे तेमांथी भूतार्थनो आश्रय करवावाळा जीव नियमथी सम्यग्द्रष्टि छे.” आ गाथानी टीका
करतां अमृतचंद्राचार्य कहे छे के–“व्यवहारनय नियमथी सघळोय अभूतार्थ होवाथी अभूत अर्थने प्रगट करे
छे तथा शुद्धनय एक मात्र भूतार्थ होवाथी भूत (सत्य) अर्थने प्रगट करे छे.”
२४. आगळ ए ज टीकामां श्री अमृतचंद्र आचार्ये ‘भूतार्थ अने अभूतार्थ” शब्दोना अर्थनुं
स्पष्टीकरण करता थका जे बताव्युं छे, तेनो भाव ए छे के जेम कीचड सहित जळ जळनो स्वभाव नथी, तेथी
कादव सहित जळने जळनो स्वभाव मानवो अभूतार्थ छे अने जे जळ निर्मळी द्वारा कादवथी जुदुं करवामां
आवे छे ते मात्र जळ होवाथी भूतार्थ छे तेम कर्म सहित अवस्था आत्मानो स्वभाव न होवाथी अभूतार्थ
छे अने शुद्धद्रष्टि द्वारा कर्म सहित अवस्थाथी ज्ञायक स्वभाव आत्माने जुदो करीने तेने ज आत्मा मानवो
भूतार्थ छे. आ रीते भूतार्थ अने अभूतार्थ शब्दोनुं स्पष्टीकरण करीने अन्तमां तेओ कहे छे के व्यवहारनय
अभूतार्थग्राही छे तेथी अनुसरण करवा योग्य नथी.
२प. अहीं एटलुं विशेष समजवुं जोईए के आ प्रकरणमां श्री अमृतचंद्राचार्ये भूतार्थ अने
अभूतार्थनो जे अर्थ कर्यो छे ते पोतामां मौलिक (मूळभूत) होवा छतां अहीं भूतार्थनुं वाच्य शुं छे अने
अभूतार्थ शब्दमां केटला अर्थ गर्भित छे तेनो आपणे अन्य प्रमाणोना प्रकाशमां विस्तारथी विचार करवो
पडशे. तेमां पण अमे सर्व प्रथम भूतार्थना विषयमां विचार करीने अंतमां अभूतार्थना सम्बन्धमां कथन
करशुं. समयसारमां शुद्ध आत्मानुं वर्णन करतां गा. ६ मां कह्युं छे के :–
“जे ज्ञायकभाव छे ते अप्रमत्त पण नथी अने प्रमत्त पण नथी. ए रीते तेने शुद्ध कहे छे; वळी जे
ज्ञायकपणे जणायो ते तो ते ज छे.” ६.
२६. आ गाथामां श्री कुंदकुंदाचार्ये शुद्ध आत्मानी व्याख्या करी छे. शुद्धआत्मा शुं छे एवो प्रश्न थतां
तेओ कहे छे के जे ज्ञायकभाव छे ते प्रमत्त पण नथी अने अप्रमत्त पण नथी. प्रमत्त–अप्रमत्त ए जीवनी
अवस्था विशेष छे. एने लक्ष्यमां लेवाथी ए अवस्थाओ ज लक्ष्यमां आवे छे, पण त्रिकाळी ध्रुवस्वभाव
आत्मानी