असद्भूत अने अनुपचरित असद्भूत बन्ने प्रकारना व्यवहारनो निषेध करवामां आव्यो छे. तात्पर्य ए छे
के जे संसारी जीव पोताना त्रिकाळी ध्रुवस्वभाव सन्मुख थईने तेनी श्रद्धा करे छे. रुचि करे छे अने प्रतीति
करे छे तेने उपर कहेल बेउ प्रकारनी अवस्थाओथी मुक्त एक मात्र निर्विकल्प आत्मा ज अनुभवमां आवे
छे. तेथी आ गाथामां ते निर्विकल्प आत्मानुं ज्ञान कराववा माटे अन्तमां ‘जे ज्ञायकरूपथी जणायो ते ते ज
छे’ एम कह्युं छे.
तो भिन्न ज छे, परंतु पोता समान बीजा चेतन पदार्थोथी पण भिन्न छे. पण अहीं मोक्षमार्गमां आरूढ थवा
माटे एटलुं जाणी लेवुं ज पूरतुं नथी, केमके ज्यां सुधी आ जीवने अध्यात्मशास्त्रोमां कहेल विधिथी जीवादि
नव पदार्थोनी यथार्थ प्रतीति थती नथी त्यां सुधी ते सम्यग्दर्शननो पण अधिकारी थई शकतो नथी.
अने कायना भेदथी छ प्रकारना छे तो एटलुं जाणी लेवा मात्रथी आपणने शुं लाभ मळ्यो? मात्र संपूर्ण
शास्त्रोना ज्ञाता थवुं ज मोक्षमार्गमां कार्यकारी नथी. मोक्षमार्गमां आरूढ थवा माटे उपयोगी थवावाळी जीवादि
नव पदार्थोना विभाग करी तेने जाणवानी शैलि ज भिन्न प्रकारनी छे. ज्यां सुधी ते शैलि (पद्धति) अनुसार
जीवादि नव पदार्थोनो यथार्थ बोध थईने स्वरूपरुचि जीव उत्पन्न करतो नथी त्यां सुधी ते सम्यग्द्रष्टि थई
शकतो नथी. ए उपर कहेला कथननुं तात्पर्य छे. आ सत्यने स्पष्ट करतां श्री कुंदकुंदाचार्य समयसार गा. १३
मां कहे छे के:–
अनादि बंध पर्यायने लक्ष्यमां लईने एकत्वनो अनुभव करवाथी तेओ भूतार्थ छे एम ख्यालमां आवे छे
अने अन्तद्रष्टिथी ज्ञायकभाव जीव छे तथा तेना विकारनो हेतु (–विशेषकार्यने निमित्त)–अजीव छे, तेथी
एकला जीवना विकार–पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्ष ठरे छे अने जीवना विकारना हेतु
पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्षरूप पुद्गल कर्म ठरे छे. आम आ द्रष्टिथी जोतां नव
पदार्थ भूतार्थ छे एम ख्यालमां आवे छे; माटे अहीं ए प्रश्न थाय छे के आ गाथामां आचार्य महाराजने
‘भूतार्थ’ शब्दनो शुं आ ज अर्थ मान्य छे के एनो कोई बीजो अर्थ अहीं लेवामां आव्यो छे? जो के आ
प्रश्ननुं समाधान स्वयं आचार्य महाराजे ‘भूतार्थ’ शब्दनो अर्थ करीने गाथा ११ मां ज करी दीधेल छे.
पर्याय सहित आत्मा पण थाय छे, तेथी शुद्ध शब्दथी ए अर्थ अहीं केम लेवामां आवतो नथी तो तेनुं