Atmadharma magazine - Ank 210
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 6 of 29

background image
चैत्र : २४८७ : :
कहेवुं बराबर नथी, केमके शुद्धनयमां जेवी रीते गुणभेद अविवक्षित (गौण) रहे छे तेवी ज रीते पर्याय भेद
पण अविवक्षित रहे छे. आ विषय उपर स्वयं आचार्य महाराजे समयसारमां प्रकाश पाडेल छे. तेओ गा. ७
मां कहे छे के:–
“ज्ञानीने चारित्र, ज्ञान अने दर्शन ए व्यवहार नयथी उपदेशेल छे. निश्चयनयथी ज्ञान पण नथी,
चारित्र पण नथी अने दर्शन पण नथी, ज्ञानी (आत्मा) तो मात्र शुद्ध (गुण पर्यायभेद निरपेक्ष) ज्ञायक ज
छे.”
३१. आ गाथानी टीका करतां श्री अमृतचंद्राचार्य कहे छे:– ‘ज्ञायक जीवने बंधना निमित्तथी अशुद्धता
प्राप्त थाय छे ए वात तो दूर रहो पण खरेखर तेने दर्शन, ज्ञान अने चारित्र ज नथी, केमके जे शिष्य अनंत
धर्मवाळा एक धर्मीने समजवामां परिपक्व नथी (अप्रवीण छे) तेने तेनो उपदेश करतां आचार्योनो धर्म
धर्मीमां स्वभावथी अभेद होवा छतां संज्ञाथी भेद उत्पन्न करी व्यवहार मात्रथी ज ज्ञानीने दर्शन छे, ज्ञान छे
अने चारित्र छे एवो उपदेश छे. परमार्थथी तो अनंत पर्यायोने एक द्रव्य पी गयुं होवाथी किंचित् मळेला
स्वादरूप अभेद एक स्वभाववाळा एक द्रव्यनो अनुभव करवावाळाने दर्शन नथी, ज्ञान नथी अने चारित्र
नथी, ते एक शुद्ध ज्ञायक ज छे’ एवा ज्ञायकभावनी उपासना करतां थका (पोताने श्रद्धा, ज्ञान, अने
चारित्रनो आश्रय बनावता थका) ते ‘शुद्ध’ एम कहेवामां आवे छे. आ सत्यने प्रकाशमां लाववाना
अभिप्रायथी आचार्य अमृतचंद्रजी समयसार गा. ६ नी टीकामां पण कहे छे के:–
“जे एक ज्ञायकभाव स्वत्: सिद्ध होवाथी अनादि छे (कोईथी उत्पन्न थयो नथी), अनंत छे (कोईथी
अथवा स्वयं ज कदीपण विनाशने पामतो नथी), निरन्तर उद्योत रूप छे अने विशद–स्पष्ट ज्योतिवान छे,
ते संसार अवस्थामां बंध पर्यायना कथननी द्रष्टिथी दूध–पाणी समान (एक क्षेत्रावगाहीने) कर्मपुद्गलो
साथे एकरूप थवा छतां पण द्रव्य स्वभावना निरूपणनी द्रष्टिथी दुरंत (जेनुं मटवुं कठण छे एवा) कषाय
चक्रना उदयनी विचित्रता वश पुण्य–पापने उत्पन्न करवावाळा अने अनेकरूपताने पामेला जे प्रवर्तमान
शुभाशुभ भावो छे तेना स्वभावरूपे परिणमतो नथी माटे प्रमत्त पण नथी अने अप्रमत्त पण नथी. आ
प्रकारे जे ज्ञायकभाव प्रमत्त अने अप्रमत्तदशाथी भिन्न थईने अवस्थित (टकेलो) छे ते ज समस्त अन्य
द्रव्यो सम्बन्धी भावोथी भिन्न रूपथी उपासनाने प्राप्त थयो थको (श्रद्धा, ज्ञान अने चारित्रनो आश्रय थयो
थको) ‘शुद्ध’ एम कहेवामां आवे छे.”
३२. अहीं श्री अमृतचंद्राचार्ये जे ज्ञायकभावने शुद्ध कह्यो छे तेनाथी न तो शुद्ध–अशुद्ध पर्यायोनुं ज
ग्रहण थाय छे अने न तो ज्ञान, दर्शन तथा चारित्रगुणनुं ज, केमके आ बन्ने प्रकारनुं कथन सद्भूत अने
असद्भूत व्यवहार आश्रित होवाथी छोडवा योग्य छे, तो पण ते सद्भावरूप छे. तेथी स्पष्ट छे के आचार्य
महाराजे तेने (–ज्ञायकभावने) आदि–अंतथी रहित, स्वतःसिद्ध कह्यो छे; आथी स्पष्ट छे के संपूर्ण विशेषोने
(गुण पर्यायना भेदने) अन्तर्लीन करीने स्थित जे ज्ञायक जीवनो त्रिकाळी ध्रुव स्वभाव छे ते ज अहीं
‘ज्ञायक’ शब्द द्वारा संबोधित करीने भूतार्थरूपथी कहेवामां आव्यो छे.
३३. समयसार गा. ९–१० मां श्रुतकेवळीनी जे निश्चय आश्रये व्याख्या करी छे अने गाथा. १४ मां
जे शुद्धनयनुं स्वरूप बताव्युं छे तेनाथी पण कहेला अर्थनुं ज समर्थन थाय छे.
३४. अहीं शंका थाय छे के ज्यारे भूतार्थ शब्दथी अहीं ज्ञायकभावनो संपूर्ण भेदनिरपेक्ष त्रिकाळी ध्रुव
स्वभाव लेवामां आव्यो छे एवी अवस्थामां जीव द्रव्यमां जे गुणभेद अने पर्यायभेदनो ख्याल आवे छे तेने
शुं सर्वथा अभूतार्थ मानवो? अने जो गुणभेद अने