पण अविवक्षित रहे छे. आ विषय उपर स्वयं आचार्य महाराजे समयसारमां प्रकाश पाडेल छे. तेओ गा. ७
मां कहे छे के:–
छे.”
धर्मवाळा एक धर्मीने समजवामां परिपक्व नथी (अप्रवीण छे) तेने तेनो उपदेश करतां आचार्योनो धर्म
धर्मीमां स्वभावथी अभेद होवा छतां संज्ञाथी भेद उत्पन्न करी व्यवहार मात्रथी ज ज्ञानीने दर्शन छे, ज्ञान छे
अने चारित्र छे एवो उपदेश छे. परमार्थथी तो अनंत पर्यायोने एक द्रव्य पी गयुं होवाथी किंचित् मळेला
स्वादरूप अभेद एक स्वभाववाळा एक द्रव्यनो अनुभव करवावाळाने दर्शन नथी, ज्ञान नथी अने चारित्र
नथी, ते एक शुद्ध ज्ञायक ज छे’ एवा ज्ञायकभावनी उपासना करतां थका (पोताने श्रद्धा, ज्ञान, अने
चारित्रनो आश्रय बनावता थका) ते ‘शुद्ध’ एम कहेवामां आवे छे. आ सत्यने प्रकाशमां लाववाना
अभिप्रायथी आचार्य अमृतचंद्रजी समयसार गा. ६ नी टीकामां पण कहे छे के:–
ते संसार अवस्थामां बंध पर्यायना कथननी द्रष्टिथी दूध–पाणी समान (एक क्षेत्रावगाहीने) कर्मपुद्गलो
साथे एकरूप थवा छतां पण द्रव्य स्वभावना निरूपणनी द्रष्टिथी दुरंत (जेनुं मटवुं कठण छे एवा) कषाय
चक्रना उदयनी विचित्रता वश पुण्य–पापने उत्पन्न करवावाळा अने अनेकरूपताने पामेला जे प्रवर्तमान
शुभाशुभ भावो छे तेना स्वभावरूपे परिणमतो नथी माटे प्रमत्त पण नथी अने अप्रमत्त पण नथी. आ
प्रकारे जे ज्ञायकभाव प्रमत्त अने अप्रमत्तदशाथी भिन्न थईने अवस्थित (टकेलो) छे ते ज समस्त अन्य
द्रव्यो सम्बन्धी भावोथी भिन्न रूपथी उपासनाने प्राप्त थयो थको (श्रद्धा, ज्ञान अने चारित्रनो आश्रय थयो
थको) ‘शुद्ध’ एम कहेवामां आवे छे.”
असद्भूत व्यवहार आश्रित होवाथी छोडवा योग्य छे, तो पण ते सद्भावरूप छे. तेथी स्पष्ट छे के आचार्य
महाराजे तेने (–ज्ञायकभावने) आदि–अंतथी रहित, स्वतःसिद्ध कह्यो छे; आथी स्पष्ट छे के संपूर्ण विशेषोने
(गुण पर्यायना भेदने) अन्तर्लीन करीने स्थित जे ज्ञायक जीवनो त्रिकाळी ध्रुव स्वभाव छे ते ज अहीं
‘ज्ञायक’ शब्द द्वारा संबोधित करीने भूतार्थरूपथी कहेवामां आव्यो छे.
शुं सर्वथा अभूतार्थ मानवो? अने जो गुणभेद अने