Atmadharma magazine - Ank 210
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: : आत्मधर्म : २१०
पर्यायभेद ने सर्वथा अभूतार्थ मानवामां आवे छे तो जीव द्रव्यना संसारी अने मुक्तरूप जे अनेकभेद
द्रष्टिगोचर थाय छे ते न थवा जोईए अने जो आ भेद व्यवहारने परमार्थभूत मानवामां आवे छे तो तेनो
निषेध करीने ज्ञायकभावना मात्र त्रिकाळ ध्रुव स्वभावने भूतार्थ बतावीने मात्र तेने ज आश्रय करवा योग्य
न बताववो जोईए. आ तो सुस्पष्ट छे के जैन दर्शनमां न तो केवळ सामान्यरूप पदार्थनो स्वीकार करवामां
आव्यो छे अने न केवळ विशेषरूप स्वीकार करवामां आव्यो छे पण तेमां पदार्थने सामान्य विशेषात्मक
मानीने ज वस्तु व्यवस्था करवामां आवी छे. आवी अवस्थामां ज्ञायकभावना त्रिकाळी ध्रुवस्वभावने भूतार्थ
बतावीने मोक्षमार्गमां तेने ज आश्रय करवा योग्य बताववो क््यां सुधी उचित छे ते विचारवा योग्य थई
जाय छे. केमके ज्यारे ज्ञायकभावनो केवळ त्रिकाळी ध्रुवस्वभाव सर्वथा कोई स्वतंत्र पदार्थ ज नथी एवी
हालतमां मात्र तेने ज आश्रय करवा योग्य केम मानी शकाय? उपर कहेला कथननुं तात्पर्य आ छे के
यथार्थमां कां तो एम मानो के सामान्य–विशेषस्वरूप कोई पदार्थ न होवाथी
सामान्य स्वरूप ज पदार्थ छे
माटे मोक्षमार्गमां मात्र तेने ज आश्रय करवा योग्य बताववामां आवेल छे अने जो पदार्थने सामान्य–
विशेषात्मक मानवामां आवे छे तो केवळ तेना सामान्य अंशने भूतार्थ कहीने तेना विशेष अंशने अभूतार्थ
बताववा थका तेनो निषेध न करो. त्यारे एम ज मानो के जे जीव द्रव्यने सामान्य–विशेषात्मकरूपथी भूतार्थ
जाणीने उभयरूप तेने लक्ष्यमां ले छे ते सम्यग्द्रष्टि छे.
३प. आ एक मूळ प्रश्न छे के जेना उपर अहीं सांगोपांग विचार करवो छे. आ तो साची वात छे के
आगममां एक जीव द्रव्य ज शुं दरेक द्रव्यने जे सामान्य–विशेषात्मक के गुण–पर्यायवान बताववामां आवेल
छे ते अयथार्थ नथी.
३६. संसारी जीव ज्ञानावरणादि कर्मोथी संयुक्त थईने विविध प्रकारनी नर नरकादि पर्यायोने धारण
करी रह्यो छे तेने कोईए अपरमार्थरूप कह्युं होय एवुं अमारा जोवामां आव्युं नथी. स्वयं अमृतचंद्र आचार्ये
समयसार गा. १३–१४नी टीकामां जीव द्रव्यनी ए सर्व अवस्थाओने भूतार्थरूपे स्वीकार करेल छे माटे कोई
जीव द्रव्यने के अन्य द्रव्योने सामान्य–विशेषरूपथी जाणे छे तो ए अयथार्थ जाणे छे ए प्रश्न ज ऊठतो नथी.
एक द्रव्यना आश्रये व्यवहारनयनो जेटलो पण विषय छे ते सघळोय भूतार्थ छे एमां संदेह नथी. तोपण
अहीं जे व्यवहारनयना विषयने अभूतार्थ अने निश्चयनयना विषयने भूतार्थ कहेवामां आवेल छे तेनुं
कारण जुदुं छे.
३७. हकीकत ए छे के संसारी जीव अनादिकाळथी परना निमित्तथी पोतपोताना स्वकाळमां ज्यारे जे
पर्याय उत्पन्न थाय छे तेने ज स्वात्मा मानतो आव्यो छे. फळस्वरूप कोई खास पर्याय उत्पन्न थता रागवश
ते तेनी प्राप्तिमां खुशी थाय छे अने तेने नाशनी सन्मुख थतां वियोगनी कल्पनाथी दुःखी थाय छे. पर्यायोनुं
उत्पन्न थवुं के नष्ट थवुं ए तेनो पोतानो स्वभाव छे तेने भूलीने ते तेना उत्पाद अने व्ययने पोतानो ज
उत्पाद अने नाश मानतो आवे छे. आ पर्यायोमां वर्तवावाळो हुं तो त्रिकाळी ध्रुव स्वभाव छुं तेनुं तेने
भान ज रह्युं नथी. आ जीवने अनादि काळथी संसारमां परिभ्रमण करवानुं मूळ कारण आ ज छे.
३८. ए तो स्पष्ट छे के आ जीवनी संसारस्वरूप जेटली पण पर्यायो थाय छे ते सघळीय त्यागवा
योग्य छे अने ए पण स्पष्ट छे के सिद्ध पर्याय उपादेय होवा छतां पण तेने वर्तमानमां प्राप्त नथी.
३९. हवे विचार करो के जे पर्यायो त्यागवा योग्य छे.
१. गुण–पर्यायरूप विशेष–भेद विनानुं–मात्र सर्वथा नित्य अभेद ज.