द्रष्टिगोचर थाय छे ते न थवा जोईए अने जो आ भेद व्यवहारने परमार्थभूत मानवामां आवे छे तो तेनो
निषेध करीने ज्ञायकभावना मात्र त्रिकाळ ध्रुव स्वभावने भूतार्थ बतावीने मात्र तेने ज आश्रय करवा योग्य
न बताववो जोईए. आ तो सुस्पष्ट छे के जैन दर्शनमां न तो केवळ सामान्यरूप पदार्थनो स्वीकार करवामां
आव्यो छे अने न केवळ विशेषरूप स्वीकार करवामां आव्यो छे पण तेमां पदार्थने सामान्य विशेषात्मक
मानीने ज वस्तु व्यवस्था करवामां आवी छे. आवी अवस्थामां ज्ञायकभावना त्रिकाळी ध्रुवस्वभावने भूतार्थ
बतावीने मोक्षमार्गमां तेने ज आश्रय करवा योग्य बताववो क््यां सुधी उचित छे ते विचारवा योग्य थई
जाय छे. केमके ज्यारे ज्ञायकभावनो केवळ त्रिकाळी ध्रुवस्वभाव सर्वथा कोई स्वतंत्र पदार्थ ज नथी एवी
हालतमां मात्र तेने ज आश्रय करवा योग्य केम मानी शकाय? उपर कहेला कथननुं तात्पर्य आ छे के
यथार्थमां कां तो एम मानो के सामान्य–विशेषस्वरूप कोई पदार्थ न होवाथी
विशेषात्मक मानवामां आवे छे तो केवळ तेना सामान्य अंशने भूतार्थ कहीने तेना विशेष अंशने अभूतार्थ
बताववा थका तेनो निषेध न करो. त्यारे एम ज मानो के जे जीव द्रव्यने सामान्य–विशेषात्मकरूपथी भूतार्थ
जाणीने उभयरूप तेने लक्ष्यमां ले छे ते सम्यग्द्रष्टि छे.
छे ते अयथार्थ नथी.
समयसार गा. १३–१४नी टीकामां जीव द्रव्यनी ए सर्व अवस्थाओने भूतार्थरूपे स्वीकार करेल छे माटे कोई
जीव द्रव्यने के अन्य द्रव्योने सामान्य–विशेषरूपथी जाणे छे तो ए अयथार्थ जाणे छे ए प्रश्न ज ऊठतो नथी.
एक द्रव्यना आश्रये व्यवहारनयनो जेटलो पण विषय छे ते सघळोय भूतार्थ छे एमां संदेह नथी. तोपण
अहीं जे व्यवहारनयना विषयने अभूतार्थ अने निश्चयनयना विषयने भूतार्थ कहेवामां आवेल छे तेनुं
कारण जुदुं छे.
ते तेनी प्राप्तिमां खुशी थाय छे अने तेने नाशनी सन्मुख थतां वियोगनी कल्पनाथी दुःखी थाय छे. पर्यायोनुं
उत्पन्न थवुं के नष्ट थवुं ए तेनो पोतानो स्वभाव छे तेने भूलीने ते तेना उत्पाद अने व्ययने पोतानो ज
उत्पाद अने नाश मानतो आवे छे. आ पर्यायोमां वर्तवावाळो हुं तो त्रिकाळी ध्रुव स्वभाव छुं तेनुं तेने
भान ज रह्युं नथी. आ जीवने अनादि काळथी संसारमां परिभ्रमण करवानुं मूळ कारण आ ज छे.