वृद्धि थाय छे. * अने जे पर्याय (सिद्ध पर्याय) वर्तमानमां छे नहि, तेनो आश्रय लई शकातो नथी, केमके जे
वर्तमानमां छे ज नहि तेनुं आलंबन लेवुं केम संभवे? परंतु आ जीवने संसारनो अंत करीने मुक्त अवस्था
अवश्य प्राप्त करवी छे, केमके ए तेनुं चरम (उत्तम) ध्येय छे.
लेवाथी आ जीवने मुक्तिनी प्राप्ति थई जशे, केमके तेओ पर छे. माटे एक तो परनो आश्रय लई शकातो
नथी अने कदाचित् व्यवहारथी निमित्त–नैमित्तिकभावने लक्ष्यमां राखीने एम मानी पण लेवामां आवे तो
शुं ए संभव छे के निमित्त उपर द्रष्टि राखवाथी आ जीवने ते द्वारा मुक्ति प्राप्त थई जाशे? अर्थात् नहि
थाय, केमके जे पर छे तेना उपर द्रष्टि राखवाथी पर निरपेक्ष पर्यायनी प्राप्ति थई जाय एवो त्रण काळमां
पण संभव नथी.
अने ज्यां सुधी विकल्पज्ञाननी प्रवृत्ति रोकाशे नहि त्यांसुधी अभेद रत्नत्रयस्वरूप मोक्षनी प्राप्ति थवी
संभवती नथी.
आश्रय लेवामां आवे ते न तो काल्पनिक होवुं जोईए अने न गुण–पर्यायना भेदरूप होवुं जोईए; ते
आश्रयभूत पदार्थ तेनाथी सर्वथा भिन्न होई शके नहि, केमके ज्यां कथंचित् भेद विवक्षा पण अहीं
प्रयोजनवान नथी त्यां सर्वथा भेदरूप पदार्थनो आश्रय लेवाथी ईष्टकार्यनी सिद्धि केम थई शके? अर्थात् न
थई शके. साथे ज एक बीजी वात छे ते ए के मोक्षने माटे जे पदार्थनो आश्रय लेवामां आवे ते पोतानाथी
अभिन्न होवा छतां पण स्वयं अविकारी तो होवो ज जोईए. साथे ज नित्य पण होवो जोईए, केमके जे
विकारी हशे तेनो आश्रय लेवाथी निरन्तर विकारनी ज सृष्टि थशे अने जे अनित्य हशे तेनो सर्वदा आश्रय
करवो बनी शके नहि.
होई शके छे; ज्ञायकभाव के त्रिकाळी ध्रुवभाव पण तेने ज कहे छे.
स्वयं निरूपाधि होय छे ते विकार रहित तो होय ज छे ए पण स्पष्ट छे अने जे स्वयं विकार रहित होय छे,
ते नित्य पण होय छे ए पण स्पष्ट छे. एवो नित्य अने निरूपाधि स्वभावभूत जे ज्ञायकभाव छे
सिवाय जेटलो पण भेद व्यवहार छे तेने अभूतार्थ कह्यो छे.
* जो के एवा जीवना अस्तित्वादि गुणनी शुद्धपर्यायो थाय छे तो पण भेदरूप होवाथी तथा तेना आश्रये पण राग उत्पन्न