Atmadharma magazine - Ank 210
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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चैत्र : र४८७ : :
तेनो आश्रय लेवाथी तो सिद्ध पर्यायनी प्राप्ति थई शकती नथी, कारणके तेनो आश्रय लेवाथी संसारनी ज
वृद्धि थाय छे. * अने जे पर्याय (सिद्ध पर्याय) वर्तमानमां छे नहि, तेनो आश्रय लई शकातो नथी, केमके जे
वर्तमानमां छे ज नहि तेनुं आलंबन लेवुं केम संभवे? परंतु आ जीवने संसारनो अंत करीने मुक्त अवस्था
अवश्य प्राप्त करवी छे, केमके ए तेनुं चरम (उत्तम) ध्येय छे.
४०. त्यारे प्रश्न थाय छे के ते कोनो आश्रय लईने आगळ वधे अने मुक्ति केवी रीते प्राप्त करे? तेना
समाधानरूपे ए कहेवुं तो बनतुं नथी के जे साधक जीव संसारनो अंत करीने मुक्त थई गया छे तेनो आश्रय
लेवाथी आ जीवने मुक्तिनी प्राप्ति थई जशे, केमके तेओ पर छे. माटे एक तो परनो आश्रय लई शकातो
नथी अने कदाचित् व्यवहारथी निमित्त–नैमित्तिकभावने लक्ष्यमां राखीने एम मानी पण लेवामां आवे तो
शुं ए संभव छे के निमित्त उपर द्रष्टि राखवाथी आ जीवने ते द्वारा मुक्ति प्राप्त थई जाशे? अर्थात् नहि
थाय, केमके जे पर छे तेना उपर द्रष्टि राखवाथी पर निरपेक्ष पर्यायनी प्राप्ति थई जाय एवो त्रण काळमां
पण संभव नथी.
४१. जो कहेवामां आवे के जे आ जीवने ज्ञानादि गुण छे तेना उपर द्रष्टि राखवाथी मुक्तिनी प्राप्ति
थई जशे तो एम कहेवुं पण बराबर नथी. केमके एम करवाथी पण विकल्पज्ञाननी प्रवृत्ति रोकी शकाती नथी
अने ज्यां सुधी विकल्पज्ञाननी प्रवृत्ति रोकाशे नहि त्यांसुधी अभेद रत्नत्रयस्वरूप मोक्षनी प्राप्ति थवी
संभवती नथी.
४र. त्यारे आ फरी प्रश्न थाय छे के आ जीव कोनो आश्रय लईने मोक्षने माटे उद्यम करे? केम के आ
जीव कोईनो आश्रय लीधा विना मुक्तिने प्राप्त करी ले ए तो संभव नथी, साथे ए पण हकीकत छे के जेनो
आश्रय लेवामां आवे ते न तो काल्पनिक होवुं जोईए अने न गुण–पर्यायना भेदरूप होवुं जोईए; ते
आश्रयभूत पदार्थ तेनाथी सर्वथा भिन्न होई शके नहि, केमके ज्यां कथंचित् भेद विवक्षा पण अहीं
प्रयोजनवान नथी त्यां सर्वथा भेदरूप पदार्थनो आश्रय लेवाथी ईष्टकार्यनी सिद्धि केम थई शके? अर्थात् न
थई शके. साथे ज एक बीजी वात छे ते ए के मोक्षने माटे जे पदार्थनो आश्रय लेवामां आवे ते पोतानाथी
अभिन्न होवा छतां पण स्वयं अविकारी तो होवो ज जोईए. साथे ज नित्य पण होवो जोईए, केमके जे
विकारी हशे तेनो आश्रय लेवाथी निरन्तर विकारनी ज सृष्टि थशे अने जे अनित्य हशे तेनो सर्वदा आश्रय
करवो बनी शके नहि.
४३. हवे विचार करो के एवो क््यो पदार्थ होई शके छे के जे पोतानाथी अभिन्न होवा छतां पण न तो
विकार होय अने न अनित्य ज होय. विचार करवाथी मालूम पडे छे के एवो पदार्थ परमपारिणामिकभाव ज
होई शके छे; ज्ञायकभाव के त्रिकाळी ध्रुवभाव पण तेने ज कहे छे.
४४. नियमसार शास्त्रना टीकाकारे जेनी कारण परमात्मा संज्ञा राखी छे ते ए ज छे. ते निगोद
पर्यायथी मांडीने सर्व अवस्थाओमां समानरूपथी सदाय एकरूपे होय छे, माटे ते स्वयं निरूपाधि छे अने जे
स्वयं निरूपाधि होय छे ते विकार रहित तो होय ज छे ए पण स्पष्ट छे अने जे स्वयं विकार रहित होय छे,
ते नित्य पण होय छे ए पण स्पष्ट छे. एवो नित्य अने निरूपाधि स्वभावभूत जे ज्ञायकभाव छे
ते ज
मोक्षमार्गमां आश्रय करवा योग्य छे. आ जाणीने श्री कुन्दकुन्दाचार्ये तेने तो भूतार्थ कह्यो छे अने तेना
सिवाय जेटलो पण भेद व्यवहार छे तेने अभूतार्थ कह्यो छे.

* जो के एवा जीवना अस्तित्वादि गुणनी शुद्धपर्यायो थाय छे तो पण भेदरूप होवाथी तथा तेना आश्रये पण राग उत्पन्न
थाय छे, तेथी तेनो पण आश्रय लई शकाय नहि.
१ पारिणामिक स्त्वनादिनिधनो निरूपाधि; स्वाभाविक एव।
(पंचास्तिकाय गा. प८नी टीका)