: ८ : आत्मधर्म : २१०
४प. द्रव्यमां गुणभेद तथा पर्यायभेद छे तेमां संदेह नथी अने ए द्रष्टिथी ते भूतार्थ ए पण साचुं छे;
परंतु त्रिकाळी ध्रुवस्वभावी ज्ञायक भावमां ते अंतर्लीन थईने पण गौण रहे छे, तेथी आ अपेक्षाए तेमां
आनी नास्ति ज जाणवी जोईए. कोई कोई ठेकाणे आ भेदव्यवहारने असत्यार्थ अने मिथ्या पण कहेवामां
आव्यो छे तो एम कहेवामां पण ए ज कारण छे.
४६. वात (–हकीकत) ए छे के जे साधक छे तेने आ भेद जाणवा योग्य होवा छतां पण आश्रय
करवा योग्य त्रिकाळमां नथी, माटे तेना उपरथी द्रष्टि हठावीने ज्ञायकना एक मात्र त्रिकाळी ध्रुवस्वभाव उपर
द्रष्टि करवा माटे आ कहेवामां आव्युं छे के जेटलो पण भेद–व्यवहार अने संयोग सम्बन्ध छे ते सघळोय
अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे, अने मिथ्या छे; आ रीते जीवद्रव्य सामान्य–विशेषात्मक होवा छतां पण
मोक्षमार्गमां ज्ञायकभावना त्रिकाळी ध्रुवभावने शा माटे भूतार्थ बतावीने आश्रय करवा योग्य कह्यो अने
भेदव्यवहारने केम अभूतार्थ बतावीने त्यागवा योग्य बताव्यो तेनो विचार कर्यो.
४७. आ तो भूतार्थ अने अभूतार्थनी मीमांसा थई. आ द्रष्टिथी ज्यारे ए नयोनो विचार करवामां
आवे छे तो मोक्षमार्गमां आश्रय करवा योग्य जे भूतार्थ छे ते एक प्रकारनो होवाथी तेने विषय करवावाळो
निश्चयनय तो एक ज प्रकारनो बने छे. आ परमभावग्राही निश्चयनय छे. एनुं लक्षण बतावता थका
नयचक्रमां गा. १९९ मां कह्युं पण छे:–
“जे अशुद्ध, शुद्ध अने उपचार रहित मात्र द्रव्यस्वभावने ग्रहण करे छे, सिद्धिने ईच्छनार पुरुषद्वारा
ते परम भाव ग्राहक द्रव्यार्थिकनय जाणवा योग्य छे”
आ गाथामां आवेल ‘सिद्धि कामेण’ पद ध्यान देवा योग्य छे. ते द्वारा एम सूचित करवामां आव्युं
छे के जे पुरुष (आत्मा) मुक्तिनो अभिलाषी छे तेणे एक मात्र आ नयनो विषय ज आश्रय करवा योग्य
छे. परंतु आ नयना विषयनो आश्रय करवो त्यारे ज बने के ज्यारे आ जीवनी द्रष्टि न तो जीवनी शुद्ध
अवस्था उपर रहे, न अशुद्ध अवस्था उपर रहे अने न उपचरित कथनने ज ते पोतानुं आलंबन बनावे;
ए माटे उपर कहेल गाथामां द्रव्यार्थिकनय (निश्चयनय) ना विषयनो निर्देश (–कथन; उपदेश) करता थका
तेने (ए नयना विषयने) अशुद्ध, शुद्ध अने उपचारथी रहित कह्यो छे.
४८. निश्चय शब्द ‘निर’ उपसर्गपूर्वक ‘चि’ धातुथी बन्यो छे. तेनो अर्थ जे नय सर्व प्रकारना चय
अर्थात् गुणो अने पर्यायोना समुदाय, संयोगसम्बन्ध, निमित्त–नैमित्तिक सम्बन्ध अने उपादान–
उपादेयसम्बन्धने प्रकाशित करवावाळा व्यवहारथी अतिक्रान्त थईने मात्र अभेदरूप त्रिकाळी ध्रुवभाव वा
परमपारिणामिकभावनो स्वीकार करे छे ते निश्चयनय छे.१ तेनुं कोई उदाहरण द्वारा कथन करवुं तो बनी
शकतुं नथी. केमके विधि सूचक (अस्ति बतावनार) जे शब्द द्वारा तेनुं कथन करशो तेनाथी कोई अवस्था के
गुण विशिष्ट वस्तुनो ज बोध थशे. पण मोक्षमार्गमां आश्रय करवा योग्य जे निश्चयनो विषय छे ते एवो
नथी माटे तेनुं जे कांई लक्षण करवामां आवशे ते व्यवहारनयनुं निषेध सूचक ज हशे. आ बधो विचार
करीने पंचाध्यायीकारे आनुं आ प्रकारे लक्षण बांध्युं छे:–
अ. १ गा. प९८–प९९ नो अर्थ
“व्यवहार प्रतिषेध्य छे अर्थात् निषेध करवा योग्य छे अने निश्चय तेनो निषेध करवावाळो छे, माटे
व्यवहारना प्रतिषेधरूप जे कोई पण पदार्थ छे ते ज निश्चयनयनुं वाच्य छे. जेम द्रव्य सद्रूप छे अथवा जीव
ज्ञानवान छे एवो विषय करवावाळो व्यवहारनय छे अने तेना निषेध सूचक ‘न’ एटलो मात्र–निश्चयनय
छे के जे सर्व नयोमां मुख्य छे.”
४९. समयसार गा. १४मां शुद्धनयनुं लक्षण करता थका जे एम कह्युं छे के “जे आत्माने बंध अने परना
स्पर्श रहित, अन्यत्वरहित, चलाचल रहित, विशेष रहित अने अन्य संयोग रहित एवा पांच भावरूप
१–आ व्युत्पत्ति निश्चय शब्द उपरथी करवामां आवी छे. पं० श्री बंशीधरजी न्यायालंकार आ व्युत्पत्तिनो स्वीकार करे छे.