Atmadharma magazine - Ank 210
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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चैत्र : र४८७ : :
देखे छे तेने शुद्धनय (परमभावग्राही निश्चयनय) जाणो.” आ द्वारा पण निश्चयनयनो ते ज विषय
कहेवामां आव्यो छे के जेनी तरफ पंचाध्यायीकार ‘न’ शब्द द्वारा ईशारो करी रह्या छे.
प०. समयसार गा. १४नी टीकामां श्री अमृतचंद्राचार्य कहे के “नियमथी जे अबद्धस्पृष्ट, अनन्य,
नियत, अविशेष अने असंयुक्त आत्मानी अनुभूति छे ते शुद्धनय छे. आ अनुभूति आत्मा ज छे; माटे
तेमां (अनुभूतिमां) एक मात्र आत्मा ज प्रकाशमान थाय छे,”
प१. आ शुद्धनयनो सुस्पष्ट निर्देश (–वर्णन) करतां थका तेओ कळश नं. १० मां कहे छे के:–“जे
परभाव अर्थात् परद्रव्य, परद्रव्यना भाव तथा परद्रव्यने निमित्त करीने थयेला पोताना विभाव–ए
प्रकारना समस्त परभावोथी भिन्न छे, आपूर्ण छे, आदि–अंतथी रहित छे, एक छे तथा जेमां समस्त
संकल्प–विकल्पोना समूहनो विलय थई गयो छे एवा आत्मस्वभावने प्रकाशित करतो थको शुद्धनय उदयने
पामे छे (–प्रगट थाय छे.) ”
पर. अहीं श्री अमृतचंद्राचार्ये एक वार तो निश्चयनयनो विषय शुं छे ए देखाडता थका एनुं कथन कर्युं.
छे अने बीजी वार जे निश्चयनयनो विषय छे ते रूप आत्मानुभूतिने ज निश्चयनय कह्यो छे. तेमने एवुं कथन
करवानुं खास कारण ए छे के ज्यां सुधी आ जीव निश्चयनयना विषयने सारी रीते हृदयंगम (अंतरभाव
भासन) करीने तद्रूप आत्मानुभूतिने प्रगट करता थका तेमां ज सुस्थित थतो नथी त्यां सुधी ते विविध प्रकारना
अध्यवसान* भावोथी उत्पन्न पोतानी भाव संसाररूप पर्यायनो अंत करीने मुक्तिनो पात्र थई शकतो नथी.
प३. मुक्ति अने संसारने परस्पर विरोध छे. संसारना कारण विविध प्रकारना अध्यवसान
(–विभाव) भाव छे अने मुक्तिनुं कारण तेनो त्याग छे. परंतु विविध प्रकारना अध्यवसानभावोनो त्याग
केवी रीते थाय? ए प्रश्न छे. ए तो बनी शकतुं नथी के, आ जीव एक तरफ तो विविध प्रकारना
अध्यवसानभावोना कारणभूत व्यवहारनयने उपादेय मानीने तेनो आश्रय पण करतो रहे अने बीजी तरफ
संसारनो त्याग करवा माटे उद्यम पण करतो रहे, केमके ज्यां सुधी आ जीव उपादेय मानीने व्यवहारनयनो
आश्रय करतो रहे छे त्यां सुधी नियमथी अध्यवसानभावोनी उत्पत्ति थती रहे छे अने ज्यां सुधी आने
अध्यवसानभावोनी उत्पत्ति थती रहे छे त्यां सुधी संसारनो अंत थवो असंभव छे; तेथी जे निश्चयनयनो
विषय छे ते ज आश्रय करवा योग्य छे, एवुं जाणीने तेनी अनुभूतिने ज निश्चयनय कहेल छे. व्यवहारनय
प्रतिषेध्य केम छे अने निश्चयनय प्रतिषेधक केम छे तेनुं रहस्य पण आमां ज छुपाएलुं छे.
प४. श्री कुन्दकुन्दाचार्ये समयसार आदि परमागममां सर्वत्र प्रथम व्यवहारनयना विषयने उपस्थित
करीने, पछी निश्चयनयना कथनद्वारा जे तेनो निषेध कर्यो छे तेनुं कारण पण ए ज छे. जेम के तेमना आ
उल्लेखथी ज स्पष्ट छे:–
समयसार गा. र७र मां कह्युं छे के
“आ रीते निश्चयनयद्वारा व्यवहारनय प्रतिषिद्ध छे एम जाणो. तथा जे मुनिओ निश्चयनयनो
आश्रय करनारा छे तेओ निर्वाणने प्राप्त थाय छे.”
पप. अहीं गाथामां आवेल “णिच्छयणयासिदा” पद ध्यान देवा योग्य छे. आ द्वारा आचार्य
महाराज स्पष्ट सूचित करे छे के मोक्षमार्गमां एक मात्र निश्चयनयनो आश्रय लेवाथी ज मुक्तिनी प्राप्ति थशे,
व्यवहारनयनो आश्रय लेवाथी नहि. जो के आचार्य महाराजे निश्चयनयद्वारा व्यवहारनय प्रतिषिद्ध केम छे
तेना कारणनुं ज्ञान आना पहेलां ज करावी दीधुं छे; पण मोक्षमार्गमां निश्चयनयनो आश्रय लेवो ज
कार्यकारी छे एवुं कहेवाथी पण उपर कहेल अर्थ फलित थई जाय छे.
प६. निश्चयनय प्रतिषेधक छे अने व्यवहारनय प्रतिषेध्य छे एम श्री अमृतचंद्राचार्यना आ वचनथी
पण सिद्ध छे. तेओ समयसार गा. प६नी टीकामां कहे छे के:–
* शुभाशुभ भाव; मिथ्या अभिप्राय सहित परिणमन: मिथ्यानिश्चय; मिथ्या अभिप्राय करवो ते.