उपशान्त करवा मागे छे ते ज्यारे कोई नदीमां गंदा पाणीने देखे छे तो ते पाणीना गंदापाणीने प्रतिषेध्य
समजीने तेना प्रतिषेधकरूप स्वच्छ अने शीतल पाणीनो ज स्वीकार करे छे. ते ज वात अहीं जाणवी जोईए.
तेनो ज आश्रय ले छे तेना द्वारा व्यवहारनयनो विषय आश्रय करवा योग्य न होवाथी आपोआप प्रतिषेध्य
थई जाय छे.
योग्य केम छे तेनुं वर्णन करता थका श्री अमृतचंद्राचार्य समयसार गा. ११ नी टीकामां पूर्वोक्त पाणीना
द्रष्टान्त द्वारा बहु ज स्पष्ट खुलासो करता थका स्वयं कहे छे के:–
अनुभव करे छे; परंतु केटलाक ज पुरुष पोताना हाथथी नाखेला कतकफळ (–निर्मळी औषधि) ना पडवा
मात्रथी उत्पन्न थता कादव अने पाणीना पृथक्करण (–विवेक) वश पोताना पुरुषार्थ द्वारा प्रगट करवामां
आवेला सहज एक स्वच्छ पाणीनो स्वभाव होवाथी ते निर्मळ पाणीनो ज अनुभव करे छे, तेम प्रबळ
कर्मोना मळवाथी जेनो सहज एक ज्ञायकभाव ढंकाई गयो छे–अप्रगट छे एवा आत्मानो अनुभव
करवावाळा घणाय पुरुष तो एवा छे के जे आत्मा अने कर्मनो विवेक न करता थका व्यवहारथी विमोहित
हृदयवाळा थईने प्रगट थता विश्वरूप (–अनेकरूप) भाव सहित ते आत्मानो अनुभव करे छे, परंतु
भूतार्थदर्शी (सहज एक ज्ञायकभावने देखवावाळा) पुरुष पोतानी बुद्धिथी नाखेलो जे शुद्धनय ते अनुसार
बोध थवा मात्रथी आत्मा अने कर्मनो विवेक थवाने कारणे पोताना पुरुषार्थद्वारा प्रगट थता सहज एक
ज्ञायकस्वभाव होवाथी प्रकाशमान एक ज्ञायक भावरूप ते आत्मानो अनुभव करे छे माटे अहीं एम समजवुं
के जे भूतार्थ (सहज एक ज्ञायकभाव) नो आश्रय करे छे ते ज आत्माने सम्यक्रूपे देखे छे, माटे सम्यग्द्रष्टि
छे. परंतु तेनाथी भिन्न बीजा पुरुष सम्यग्द्रष्टि नथी, केमके शुद्धनय कतकफळना स्थाने छे. तेथी कर्मोथी भिन्न
आत्माने देखवावाळा जीवोने व्यवहारनय अनुसरण करवा योग्य नथी.
तेने प्रगट करवुं पडशे, नहितर ते स्वच्छ पाणीनो उपभोग करी शकशे नहि, ते रीते कर्म संयुक्त जीवमां जीव
पण छे अने तेनी कर्मसंयुक्त अवस्था पण छे.
करी शकशे नहि तेथी स्पष्ट छे के मोक्षमार्गमां एक मात्र निश्चयनय ज अनुसरण करवा योग्य छे,
व्यवहारनय नहि.