Atmadharma magazine - Ank 213
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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प्रथम जेठ : २४८७ : २३ :
जे पाणी अग्निना संबंधवडे ऊनुं थयुं छे ते त्यांथी गुलांट मारे तो अग्निनो गारो करी एनी मेळे ठंडु
थाय छे. तेम हुं त्रिकाळी निर्मळ ज्ञाता छुं विकार (–पुण्य–पाप) हुं नहि–एम नक्की करी अंदरमां स्वभावमां
पूर्ण शक्ति छे तेनो आदर आश्रय करे तो ते ज क्षणे अनादिनो मिथ्यात्वमोहनो नाश थई जाय छे. त्यारथी
ते सुखी थाय छे.
‘कोटि वर्षनुं स्वप्न पण जाग्रत थतां समाय, तेम विभाव अनादिनो ज्ञान थतां दूर थाय’ .
* * * * *
लक्ष पूर्वक एकाग्रता
मारो ज्ञायक स्वभाव एकलो शान्त निर्दोष आनंदमय छे.
रागादिना आश्रयथी तेनुं होवुं नथी. एवो आ आत्मा ज उत्तम. मंगळ
अने शरणरूप छे; सुखदाता छे तेनी द्रष्टि (तेमां एकाग्र द्रष्टि) विना
बीजा कोई प्रकारे कल्याण थतुं नथी. अंतर्मुख अवलोकननी द्रष्टि करे तो
ज असत्यनो आग्रह छूटी सत्य परमेश्वर एवा पोताना आत्मानो
अनुभव अने आश्रय थाय.
जेनाथी कल्याण थाय ज छे एवा पोताना अतीन्द्रिय
आत्मस्वभावनुं लक्ष करीने तेनो पक्ष जीवे कदी कर्यो नथी अने जेना
आश्रये कदी कल्याण थतुं ज नथी; एवा रागादि व्यवहारनो पक्ष कदी
छोड्यो नथी. माटे आचार्यदेव अने अनंताज्ञानी कही गया छे के:– हे
भव्य! जो तारे हित करवुं होय; सुखी थवुं होय तो ए व्यवहारनो पक्ष
(पराश्रयथी–निमित्तथी लाभ मानवानो पक्ष) छोडी दे, ने तारा
शरणभूत चैतन्यस्वभावने स्वसंवेदन ज्ञानना लक्षमां लई तेमां
एकाग्रता कर.
*