भव्यजीव भावि निर्वाणनुं भाजन (पात्र) छे.
माने, पुण्य–पापमां सुख माने ते अध्यात्मनी वातने जूठी माने ज.
पापनो उदय होय तो तेने एकवार ज फांसीनी सजा थाय. कांई हजारवार न थाय; त्यारे शुं कुदरतना क्रममां
पापनुं पूरेपूरुं फळ नहि होय? छे–ते नरक क्षेत्र छे; जेने अगणित, अमर्यादित संख्यामां बीजाओने
मारवाना क्रूरभाव वर्ते छे. लांबु आयुष्य हो्य तो ज्यां सुधी ते जीवे त्यां सुधी पोतानी सगवडता खातर
बीजाने हणवाना भाव छे, तेमां संख्या, काळ, के क्षेत्रनो आंतरो पाड्यो नथी तेना फळमां आ लोकमां दंड
नथी पण ज्यां आंतरा विना दसहजार वर्षथी मांडीने असंख्य अबज वर्ष सुधी एकधारी प्रतिकूळता ज छे.
शरीरना कटका थता पाछुं पारानी जेम भेगुं थई जाय एवुं क्षेत्र निरन्तर प्रतिकूळतानुं स्थान नरकलोक नीचे
(अधःलोक) छे.
सत्य आवुं होय वगेरे समजवानी माथाकूट शी?
आत्महितमां सावधान न थाय ते बधा एना जेवा छे.
तेना टोपकामां अग्निरूपे थवानी शक्ति छे ते स्पष्ट जणा्य छे. तेम आत्मामां बहारना भागने देखे तो
पुण्य–पाप रागादि अने अल्पज्ञता ज देखाय छे; तेना आश्रये पूर्णस्वभावनो भरोंसो न थाय.
परमात्मशक्तिनो महिमा न आवे पण वर्त्तमान जे ज्ञान परमां ठीक–अठीक करी दुःखी थाय छे ते ज ज्ञान
स्वभाव–विभावनो भेद समजीने अंदरमां ढळे के आ विचार करनारो कोण छे. आकुळता दुःख क्षणे–क्षणे
बदलाय जाय छे; टळे छे ने तेने जाणनारो एनो ए छे; ते कांई दुःखरूपे नथी. एम भेद जाणतां ज जे ज्ञान
रागमां पोतापणुं मानतुं–कर्तव्य मानतुं ते ज ज्ञान अंतर स्वभावमां ढळतां अतीन्द्रिय सुखनो स्वाद लेतुं
आत्मानी प्रसिद्धि करे.
तेनी पाछळ ज्ञाननी त्रिकाळी ध्रुवशक्ति बेहद छे; तेने भूली पुण्य–पापना विकारने कर्त्तव्य मानी, भला
मानीने, स्वभावने भूल्यो छे त्यांथी गुलांट मारी पूर्णज्ञाता शक्तिनो भरोंसो लावी, वर्त्तमान ज्ञानने
अंतरमां वाळे तो असली पूर्णस्वभावनी द्रष्टि अने अतीन्द्रिय सुखस्वभावनो अनुभव करी शकाय छे.