लींबोळीने नीलमणीमां खतववा जाय ते जेम न चाले तेम पुण्य–पापना भाव कडवी लींबोळी जेवा
आकुळतामय छे, आत्मानुं रूप नथी.
आत्मध्यानमां लीन रहेता हता. एकवार ध्यानमां वर्त्तमान सदेहे बिराजमान श्री सीमंधर भगवान
तीर्थंकरदेव जेओ विदेहज्ञेत्रमां छे, तेमनुं ध्यान करतां समवसरण चिंतवता हता. विरह लाग्यो, के अरे, आ
काळे साक्षात् परमात्मानो भेटो नथी, पोताने एवा पुण्य अने पवित्रतानो योग तेथी त्यां धर्मसभामां–
(समवसरणमां) श्री तीर्थंकर प्रभुना श्रीमुखथी–“
हती तेथी त्यां जई आठ दिवस रह्या; त्यां साक्षात् तीर्थंकरनी वाणी सांभळी; श्रुतकेवळीओना परिचय करी
भरतक्षेत्रमां आव्या अने तेमने गुरुपरम्पराथी तथा तीर्थंकरथी साक्षात् मळेला ज्ञान प्रमाणे समयसार,
प्रवचनसार, पंचास्तिकाय. नियमसार, अष्टपाहुड, आदि परमागम (शास्त्र) बनाव्या. ते बधामां
समयसार–कर्ताकर्म अधिकारमां तो गजब रचना करी छे. सत्समागमे अभ्यास श्रवण–मनन करी समजे तो
न्याल थई जाय!
चिदानंद स्वभावी आ आत्मा ज साची शान्ति–सुख (–धर्म) नुं कारण छे. एवो निर्मळ स्वभाव हुं छुं एवी
श्रद्धा करतां ज मिथ्यात्वरूपी आस्रवोथी मुक्त थाय छे
राग आव्या विना रहे नहि, मुनि थाय तोपण अहिंसा, सत्य, दत्त, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह ए पांच महाव्रत
वगेरे र८ मूळगुणना शुभभाव आवे ते राग छे, उदयभाव छे, अने ते उदयभावने तत्त्वार्थ सूत्रमां बंधनुं
कारण कहेल छे. अज्ञानी तेने धर्म अने धर्मनुं कारण माने छे, ते अनादिनो भ्रम छे. अविकारी स्वभावनो
तिरस्कार छे.
त्रीजो बोल आव्यो के महाव्रत शुभराग छे, आस्रव छे, दुःखनुं कारण छे, आत्म शान्तिनुं कारण नथी; ते
सांभळतां एक पंडितजीने दुःख लागतुं हतुं पण तत्त्वार्थ सूत्रमां तेने आस्रव कहेल छे; बंधनुं कारण ते धर्मनुं
(सुखनुं) कारण केम बने?
पाप आकुळता छे. भगवान आत्मा सदा पवित्र सुखदाता अनाकुळ छे तेनी हा पाडे (आदर करे) तोपण
महान अपूर्व जातना पुण्य बंधाय छे.