Atmadharma magazine - Ank 213
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: २० : आत्मधर्म : ए.२१३
स्वरूपमां नथी, ध्येयमां रुचिमां, श्रद्धामां नथी. उपर उपर तरे छे, एम प्रथम त्रिकाळी निर्विकार विज्ञानघन
स्वभावनी रुचि करीने श्रद्धा करे त्यारथी ज पुण्य–पापना भाव आकुळता–दुःख छे एम भेदज्ञान थाय,
धर्मनी शरूआत थाय अने अनादिनो आस्रव तथा कर्मोनो बंध अटकी जाय.
स्त्री, पुत्र, धनादि संयोग शरीरमां रोगदशा ए कांई दुःखना कारण–दुःखदाता नथी, ए तो ज्ञेय छे–
ज्ञानमां जणावा योग्य छे. अंदरमां निर्विकारी सिद्ध परमात्मस्वभाव पड्यो छे. पीपरना द्रष्टांते अंतरमां
पवित्र स्वभाव छे ते हुं छुं अने क्षणिक विकार ते विपरीत छे, पुण्य–पाप बेउ खेद छे, पीडा छे, तेथी ते मारुं
स्वरूप नथी, आदर करवा लायक नथी. एम आत्मामां नक्की न करे त्यां सुधी सम्यग्दर्शन थतुं नथी.
आ वात झीणी छे, आत्मा सूक्ष्म–अरूपी अतीन्द्रिय ज्ञान–आनंदमय छे, ते विकल्प अथवा वाणीथी
पकडाय एवो नथी. पुण्य–पापना भाव स्थूळ छे, आकुळता लक्षण दुःख छे, अने भगवान आत्मा सदा
निराकुळ आनंदरूपे छे.
शुभराग कारण थाय अने आत्मानी शुद्धदशा कार्य थाय एम नथी, आत्मा कारण थाय राग कार्य
थाय एम नथी. रागादि आस्रवो जड छे तेथी स्व–परने जाणता नथी, जेम हाथ ते शरीरनो अवयव छे; त्यां
जीवना ज्ञानगुणनो स्पर्शने जाणनारो विकार छे तेथी हाथ लगाडी जोतां शरीर टाढुं छे के ऊनुं छे एम खबर
पडे छे, पण लाकडी अथवा वधेला नख द्वारा खबर नहि पडे, केमके ए चेतन रहित जुदी जात छे. तेम
शुभाशुभ
(–पुण्य–पाप) ना भावो बधाय अचेतन छे. तेमां स्व–परने जाणवानी ताकात नथी. पुण्य–पाप तो वधेला
नख समान मेल छे, काढी नाखवा योग्य छे. माटे तेमां आत्मानो धर्म नथी, धर्मनुं कारण थवानुं सामर्थ्य
तेमां जराय नथी केमके–ते आस्रव तत्त्व छे, मेल छे तेमां आत्माना दर्शन ज्ञान, चारित्र नथी माटे पुण्य–
पापना भाववडे रत्नत्र्य (सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र) मळे नहि.
आत्मा पूर्णज्ञायक चैतन्यप्रकाश छे, तेनुं वर्त्तमान ज्ञान थोडुं प्रगट छे ते ज्ञानविकासने क्षायोपशमिक
ज्ञान कहे छे. तो पण ते आत्माना पूर्णज्ञाननो अंश छे, चैतन्यनी जात छे तेथी ते ज्ञानांशने अंदर वाळतां
स्वभाव परमानंदपणे भासे छे अने पुण्य–पाप तेनाथी विरुद्ध जडरूपे, दुःखरूपे भासे छे.–आ रीते आत्मा
कोण छे एम अनुभव वडे सम्यकदर्शन प्रगट थाय छे.
निमित्त अने पुण्य–पापना भाव तरफ ढळतां दुःखनो अनुभव थाय छे एम जाणी भगवान आत्मा
तो सदा निराकुळ स्वभाव होवाथी तेनी द्रष्टिवडे अंतरमां ढळे तो ते गोठे एवो परमानंद स्वभाव खरेखर
सुखदाता छे एम अनुभव थाय छे.
समजवा माटे श्रवण, मनन, अभ्यास न करे तेने आत्मा शुं, पुण्य–पाप, आस्रव शुं अने सुखदाता
जेम काचा चणामां मीठास शक्तिरूपे पडी छे, तेम आत्मामां आनंद पूरेपूरो छे. शुभ–अशुभभावमां
जराय आनंद नथी, भक्तिमां राग छे, ज्ञानीने पण नीचे, पापथी बचवा माटे भगवाननी भक्तिनो राग
आवे छे पण ते आकुळता छे, एम माने छे.
छठ्ठगुणस्थान सुधी मुनिने पण बुद्धिपूर्वक चारित्रमां राग आवे छे, श्रद्धामां चोथा गुणस्थानथी
बराबर निर्णय छे के शुभराग पण दुःख छे, कलंक छे, आत्मानी निर्मळ प्रजा (दशा) नो नाश करनार छे.
चैतन्यनी जागृतिरूप प्रजा (–स्वभाव पर्याय) नो वारसो राखे एवी ताकात एमां नथी. एम त्रिकाळी
स्वभावमां वर्तमान विभावनी जुदाई जाणतां आत्मामां एकाग्र द्रष्टि प्रगट थाय छे; अने ते ज समये
अनंत परिभ्रमणनुं कारण एवो मिथ्यात्वभाव अने कर्मबंध नाश पामे छे.