Atmadharma magazine - Ank 213a
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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अषाड : २४८७ : १३ :
षण जोडवामां आवतुं नथी तो ए ज उदाहरण अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनयनुं थई जाय छे. अने जो एने
बीजाना संबंधथी विशेषण सहित करवामां आवे तो ते उपचरित सद्भूत व्यवहारनयनुं उदाहरण बनी जाय छे.
९१. ए ज तथ्य ध्यानमां राखीने पंचाध्यायीमां अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनयनो विचार करतां
बताव्युं छे :–
स्यादादिमो यथान्तर्लीना या शक्तिरस्ति यस्य सतः
तत्तत्सामान्यतया निरुप्यते चेद् विशेषनिरपेक्षम् ।। १–५३५।।
इदमत्रोदाहरणं ज्ञानं णीवोपजीवि जीवगुणः
झेयालम्बन काले न तथा ज्ञेयोपजीवि स्यात् ।। १–५३६।।
घटसद्भावे हि यथा घटनिरपेक्षं चिदेव जीवगुणः
अस्ति घटाभावेऽपि च घटनिरपेक्षं चिदेव जीवगुणः ।। १–५३७।।
अर्थ: जे पदार्थनी जे आत्मभूत शक्ति छे तेने जे नय अवान्तर भेद कर्या विना सामान्यरूपे ते ज
पदार्थने बतावे ते अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय छे.
१–प३प. आ विषयमां आ उदाहरण छे के जेवी रीते जीवनो ज्ञानगुण जीवोपजीवी होय छे तेवी रीते
ते ज्ञेयने विषय करती वखते ज्ञेयोपजीवी होतो नथी.
१–प३६. जेम घडाना सद्भावमां जीवनो ज्ञानगुण घडानी अपेक्षा राख्या विना चैतन्यमात्र ज छे.
तेमज घडाना अभावमां पण जीवनो ज्ञानगुण घडानी अपेक्षा कर्या विना चैतन्यमात्र ज छे, १–प३७.
९र. तात्पर्य ए छे के जीवद्रव्य एक अखंड पदार्थ छे. तेमां कोई एक स्वभावभूत गुण वडे भेद करीने विषय
करवो ते अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय छे. उपचरित सद्भूत व्यवहारनयनो निर्देश करतां त्यां बताव्युं छे:–
उपचरितः सद्भूतो व्यवहारः स्यान्नयो यथा नाम
अविरुद्धं हेतुवशात्परतोऽप्युपचर्यते यतः स्वगुणः ।। १–५४०।।
अर्थ विकल्पो ज्ञानं प्रमाणमिति लक्ष्यतेऽधुनापि यथा
अर्थः स्वपरनिकायो भवति विकल्पस्तु चित्तदाकारम् ।। १–५४१।।
असदपि लक्षणमेतत्सन्मात्रत्वे सुनिर्विकल्पत्वात्
तदपि न विनालम्बान्निर्विध्यं शभ्यते ब्रक्तुम् ।। १–५४२।।
तस्मादनन्यशरणं सदपि ज्ञानं स्वरूपसिद्धत्वात्
उपचरितं हेतुवशात् तदिह ज्ञानं तदन्यद्वारणमिव ।। १–५४३।।
अर्थ: कारण के हेतुवश स्वगुणनो पररूपे अविरोधपूर्वक उपचार करवो ए उपचरितसद्भूत
व्यवहारनय छे. १–प४०
जेम अर्थ विकल्पात्मक ज्ञान प्रमाण छे ए प्रमाणनुं लक्षण छे ते–आ उपचरितसद्भूतव्यवहारनयनुं
उदाहरण छे. अहीं स्व–पर समुदायनुं नाम अर्थ छे अने ज्ञाननुं तदाकार थवुं एनुं नाम विकल्प छे. १–प४१.
सत् सामान्य निर्विकल्प होवाने लीधे एनी अपेक्षाए जो के आ लक्षण असत् छे तोपण आलंबन विना
विषयरहित ज्ञाननुं कथन करवुं शक्य नथी १–प४र तेथी ज्ञान स्वरूपसिद्ध होवाथी अन्यनी अपेक्षा विना ज
सत्रूप छे तोपण हेतु वशे ते ज्ञानने अन्य शरणनी जेम उपचरित करवामां आवे छे. १–प४३
९३. तात्पर्य ए छे के एक अखंड पदार्थमां असाधारण गुणवडे भेद करीने तेने परना आलंबनथी.
विशेषण सहित करवुं ए उपचरित सद्भूतव्यवहारनयनुं उदाहरण छे. अहीं पंचाध्यायीमां मतिज्ञान आदि जीव छे
एने उपचरित सद्भूत व्यवहारनयनुं उदाहरण बताव्युं नथी ते तेनुं कारण छे. वात एम छे के जेटला कोई
विभावभाव छे ते बधाने अध्यात्मशास्त्रमां परभाव कह्या छे. कारण के सम्यग्द्रष्टि जीव एवा ज त्रिकाळी
ज्ञायकस्वभावनो आश्रय करे छे के जेमां एनो लेश मात्र पण सद्भाव नथी. हवे जो आ द्रष्टिथी, जे स्वात्मा
[स्वसमय] छे तेमां व्यवहारनयनो आश्रय करी असाधारण गुणनो आरोप करवामां आवे छे अर्थात् भेद कथन
करवामां आवे छे तो ते स्वभावभूत असाधारण सामान्य गुणना रूपमां ज बनी शके छे, बीजा रूपे नहि. तेथी तो